Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 269
________________ श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, छठा भाग ३०७ सुत्तं वित्ती तह वत्तियं च पावसुय अउपतीसविहं । गंधय नट्ट वत्यु आ धणुक्य संजुत्तं ॥ __ अर्थ-दिव्य (व्यन्तरादिकृत अट्टहासादि विषयक शास्त्र), उत्पात, आन्तरिक्ष, भौम, अङ्ग, स्वर, लक्षण और व्यञ्जन । ये आठ निमित्चांग शास्त्र हैं। ये आठ सूत्र वृत्ति और वार्तिक के भेद से चौबीस हैं। पिछले भेद इस प्रकार हैं (२५) गन्धर्व शास्त्र-संगीत विद्या विषयक शास्त्र । (२६) नाट्य शास्त्र-नाव्य विधि का वर्णन करने वाला शास्त्र । (२७) वास्तु शास्त्र-गृहनिर्माण अर्थात् घर, हाट आदि बनाने की कला बतलाने वाला शास्त्र वास्तु शास्त्र कहलाता है। (२८) आयु शास्त्र-चिकित्सा और वैद्यक सम्बन्धी शास्त्र । (२६) धनुर्वेद-धनुर्विद्या अर्थात् वाण चलाने की विद्या बतलाने वाला शास्त्र धनुर्वेद शास्त्र कहलाता है। हरि० प्रा० प्रतक्रमण अन० पृ० ६६०) (उत्तराध्ययन अ० ३१ गा० १६) तीसवाँ बोल संग्रह ६५७-अकर्मभूमि के तीस भेद जिन क्षेत्रों में असि (शन ओर युद्ध विद्या), मसि (लेखन और पठन पाठन) और कृषि (खेती) तथा आजीविका के दूसरे साधन रूप कर्म अर्थात् व्यवसाय न हों तथा तप, सयम, अनुष्ठान वगैरह कर्मन हो उसे अकर्मभूमि कहते हैं । अकर्मभूमियाँ तीस हैं-हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्पकवर्ष, देवकुरु और उत्तरकुरु ये छ: क्षेत्र जम्बूद्वीप में हैं। धातकीखंड और अर्द्धपुष्कर में ये छहों क्षेत्र दो दो की संख्या में हैं । इस प्रकार पाँच हैमवत, पाँच हैरण्यवत, पाँच हरिवर्प, पाँच रम्यकवर्प, पाँच देवकुरु और पाँच उत्तरकुरु कल तीस क्षेत्र अकर्मभूमि के हैं।

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