Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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(२६) जो व्यक्ति बार बार हिंसाकारी शस्त्रों का और राज कथा आदि हिंसक एवं कामोत्पादक विकथाओं का प्रयोग करता है तथा कलह बढ़ाता है। संसार सागर से तिराने वाले ज्ञानादि तीर्थ का नाश करता हुआ वह दुरात्मा महामोहनीय कर्म चान्धता है।
(२७) जो व्यक्ति अपनी प्रशंसा के लिये अथवा दूसरों से मित्रता करने के लिये अधार्मिक एवं हिंसा युक्त निमित्त वशीकरण आदि योगों का प्रयोग करता है वह महामोहनीय कर्म उपार्जन करता है।
(२८) जिसे देव और मनुष्य सम्बन्धी कामभोगों से तृप्ति नहीं होती और निरन्तर जिसकी अभिलाषा बढ़ती रहती है ऐसा विषयलोलुप व्यक्ति सदा विषयवासना में ही डूबा रहता है और वह महामोहनीय कर्म वान्धता है।
(२६) जो व्यक्ति अनेक अतिशय वाले वैमानिक आदि देवों की ऋद्धि, द्युति (कान्ति) यश, वर्ण, बल और वीर्य आदि का अभाव बतलाते हुए उनका अवर्णवाद बोलता है वह महामोहनीय कर्म का उपार्जन करता है।
(३०) जो अज्ञानी जनता में सर्वज्ञ की तरह पूजा प्रतिष्ठा प्राप्त करने की इच्छा से देव (ज्योतिष और वैमानिक), यक्ष (व्यन्तर)
और गुह्यक (भवनपति) को न देखते हुए भी, 'ये मुझे दिखाई देते हैं। इस प्रकार कहता है, मिथ्या भाषण करने वाला वह व्यक्ति महामोहनीय कर्म उपार्जन करता है।
यहाँ महामोहनीय के तीस बोल दशाश्रुतस्कन्ध के आधार से दिये गये हैं। (दशाश्रुतस्कन्ध दशा ६) (समवायांग ३०) (उत्तराध्ययन अध्ययन ३१ गा० १६)(हरिभद्रीयावश्यक प्रतिक्रमणाध्ययन पृ०६६०) अन्तिम मङ्गलं-महावीर प्रमु वन्दे, भवभीति विनाशनम् ।
मंगलं मंगलानां च, लोकालोक प्रदशकम् ॥ श्रीमज्जैनसिद्धान्त, बोल संग्रह संज्ञके । पछे भागः समाप्तोऽयं, अन्थे यत्प्रसादतः ॥ चक्रमे द्विसहस्राब्दे, पञ्चम्यां कातिके सिते । भौमे कृतिरियं पूर्णा, भूयाद्भव्यहितावहा ।