Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 271
________________ श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला . ६५८--परिग्रह के तीस नाम • अल्प, बहु, अणु, स्थूल, सचित्त, अचित्त आदि किसी भी द्रव्य पर मूर्छा (ममत्व) रखना परिग्रह है। इसके तीस नाम है . (१) परिग्रह (२) सञ्चय (३) चय (४) उपचय ५) निधान (६) सम्भार (७) सङ्कर (८) आदर (8) पिण्ड (१) द्रव्यसार (११) महेच्छा (१२) प्रतिबन्ध (अभिष्वङ्ग) (१३) लोमात्म (१४) सहर्दि (महती याश्चा) (१५) उपकरण (१६) संरक्षणा (१७), भार (१८) सम्पातोत्पादक (१६) कलिकरएड (कलह का भाजन)(२०) प्रविस्तार (धन धान्यादि का विस्तार) (२१) अनर्थ (२२) संस्तव (२३) अगुप्ति (२४)आयास (खेद रूप (२५)अवियोग (२६) अमुक्ति (२७ तृष्णा (२८) अनर्थक (निरर्थक) (२६) आसक्ति (३०) असन्तोष) प्रश्नव्याकरण आश्रव द्वार ५) • ६५६-भिक्षाचर्या के तीस भेद निर्जरा बाह्य आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार की है। बाह्य निर्जरा (बाह्य तप) के छः मेदों में भिक्षाचर्या तीसरा प्रकार है । औपपातिक सूत्र में मिक्षा के अनेक भेद कहे हैं और उदाहरण रूप में द्रव्याभिग्रह चरक, क्षेत्राभिग्रह चरक, कालाभिग्रह चरक, भावाभिग्रह चरक, उत्क्षिप्त चरक आदि तीस भेद दिये हैं। मिक्षाचर्या के तीस भेदों के नाम और उनकी व्याख्या इसी ग्रन्थ के तीसरे भाग में बोल नं. ६६३ में दिये गये हैं। (औपपातिक सूत्र १६) । ६६०-महामोहनीय के तीस स्थान सामान्यतः मोहनीय शब्द से आठों कर्म लिये जाते हैं और विशेष रूप से आठों कर्मों में से चौथा कर्म लिया जाता है । वैसे आठों कर्मों के और मोहनीय कर्म बन्ध के अनेक कारण हैं लेकिन शास्त्रकारों ने विशेष रूप से तीस स्थान गिनाये हैं। इन्हें

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