Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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भी बैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग
२६५
घेत्तूण संकलं सो वामहत्येण अंछमाणाणं । - मुजिज्ज विलिंपिज व महुमहणं ते न चाएंति ।।
भावार्थ-वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से वासुदेवों में अतुल चल होता है । कुए के तट पर बैठे हुए वासुदेव को, जंजीर से बांध कर, हाथो घोड़े रथ और पदाति (पैदल) रूप चतुरंगिणी सेना सहित सोलह हजार राजा भी खींचने लगें तो वे उसे नहीं खींच मकते । किन्तु उसी जजीर को बाएं हाथ से पकड़ कर वासुदेव अपनी तरफ बड़ी आसानी से खींच सकता है।
जं केसवस्स उ बलं तं दुगुणं होई चक्कवहिस्स । तत्तो चला चलवगा अपरिमियवला जिणवरिंदा ॥ अर्थ-वासुदेव का जो बल बतलाया गया है उससे दुगुना बल चक्रवर्ती में होता है । जिनेश्वर देव चक्रवर्ती से भी अधिक बलशाली होते हैं। वीर्यान्तराय कर्म का सम्पूर्ण क्षय कर देने के कारण उनमें अपरिमित वल होता है।
(१६) दीरमधुसर्पिराश्रव लब्धि-जिस लब्धि के प्रभाव से वक्ता के वचन श्रोताओं को दूध, मधु (शहद) और घृत के समान मधुर और प्रिय लगते हैं वह क्षीरमधुसर्पिराश्रव लब्धि कहलाती है। गन्नों (पुण्डूक्षु) को चरने वाली एक लाख श्रेष्ठ गायों का द्ध निकाल कर पचास हजार गायों को पिला दिया जाय और पचास हजार का पचीस हजार को पिला दिया जाय । इसी क्रम से करते करते अन्त में वह दूध एक गाय को पिला दिया जाय। उस गाय का
द्ध पीने पर जिस प्रकार मन प्रसन्न होता है और शरीर की पुष्टि होती है उसी प्रकार जिसका वचन सुनने से मन और शरीर पाहादित होते हैं वह क्षीराव लब्धि वाला कहलाता है। जिसका वचन सुनने में श्रेष्ठ और मधु (शहद) के समान मधुर लगता। है वह मध्वाश्रव लन्धि वाला कहलाता है। जिसका वचन गनों को चरने