Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग
२६७
विराजमान् तीर्थङ्कर भगवान् के पास भेजने के लिये चौदह पूर्वधारी मुनि अतिविशुद्ध स्फटिक के समान एक हाथ का पुतला निकालते हैं, उनकी यह शक्ति आहारक लब्धि कहलाती है ।
(२५) शीत लेश्या लब्धि - अत्यन्त करुणाभाव से प्रेरित हो अनुग्राहपात्र के प्रति तेजोलेश्या को शान्त करने में समर्थ शीतल तेज विशेष को छोड़ने की शक्ति शीत लेश्या लब्धि कहलाती है । बाल तपस्वी वैशिकायन ने गोशालक को जलाने के लिये तेजो लेश्या छोड़ी थी उस समय करुणा भाव से प्रेरित हो प्रभु महावीर ने गोशालक की रक्षा के लिये शीत लेश्या का प्रयोग किया था ।
(२६) वैकुर्चिक देह लब्धि - जिस लब्धि के प्रभाव से छोटा बड़ा आदि विविध प्रकार के रूप बनाये जा सकें वह वैकुर्विक देह लब्धि कहलाती है । मनुष्य और तिर्यञ्चों को यह लब्धि तप आदि का आचरण करने से प्राप्त होती है। देवता और नैरयिकों में 'वविध रूप बनाने की यह शक्ति भव कारणक होती है ।
(२७) अक्षीण महानसी लब्धि- जिस लब्धि के प्रभाव से भिक्षा में लाये हुए थोड़े से आहार से लाखों श्रादमी भोजन करके तृप्त हो जाते हैं किन्तु वह ज्यों का त्यों अक्षीण बना रहता है । लब्धिधारी के भोजन करने पर ही वह अन्न समाप्त होता है उसे श्री महानसी लब्धि कहते हैं ।
(२८) पुलाक' लब्धि - देवता के समान समृद्धि वाला विशेष लब्धि सम्पन्न मुनि लब्धि पुलाक कहलाता है । कहा भी हैसंघाचाण कज्जे चुरणेज्जा चक्कवट्टिमवि जीए । तीए लद्वीए जुधो लद्धिपुलाओ मुणेपव्व ॥
अर्थ - जिस लब्धि द्वारा मुनि संघादि के खातिर चक्रवर्ती का भी विनाश कर देता है । उस लब्धि से युक्त मुनि लब्धि पुलाक