Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 253
________________ - - - - - - श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, छठा भाग २८३ अट्ठाईसवाँ बोल संग्रह ६५०-मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद इन्द्रिय और मन की सहायता से योग्य देश में रही हुई वस्तु को जानने वाला ज्ञान मतिज्ञान (आभिनिवोधिक ज्ञान) कहलाता है। मतिज्ञान के मुख्य चार भेद है-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । इन चारों का लक्षण इस प्रकार है अवग्रह-इन्द्रिय और पदार्थ के योग्य स्थान में रहने पर सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन के बाद होने वाला अवान्तर सत्ता सहित वस्तु का सर्व प्रथम ज्ञान अवग्रह कहलाता है। ईहा-अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विषय में विशेष जानने की इच्छा को ईहा कहते हैं। अवाय-ईहा से जाने हुए पदार्थ के विषय में 'यह वही है, अन्य नहीं है। इस प्रकार के निश्चयात्मक ज्ञान को अवाय कहते हैं। धारणा-अवाय से जाने हुए पदार्थों का ज्ञान इतना दृढ़ हो जाय कि कालान्तर में भी उसका विस्मरण न हो, धारणा कहलाता है। __ अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चारों पॉच इन्द्रिय और मन से होते हैं इसलिये इन चारों के चौवीस भेद हो जाते हैं। भवग्रह दो प्रकार का है-व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह । पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को अर्थावग्रह कहते हैं। अर्थावग्रह से पहले होने वाला अत्यन्त अव्यक्त ज्ञानव्यञ्जनावग्रह कहलाता है। व्यञ्जनावग्रह श्रोत्रेन्द्रिय, प्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय-चार इन्द्रियों द्वारा होता है । इसलिये इसके चार भेद होते हैं। उपरोक्त चौवीस में ये चार मिलाने पर कुल अट्ठाईस भेद होते हैं। (१) श्रोत्रेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह (२) घाणेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह (३) रसनेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह (४) स्पर्शनेन्द्रिय व्यञ्जनावग्रह (५)

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