Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 241
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग २७१ लेने के लिये रवाना हो गई। दोनों पुरुषों ने मन्त्री के पास जाकर सारा हाल कह दिया और मन्त्री ने राजा से निवेदन किया । राजा मन्त्री की बुद्धिमत्ता पर बहुत प्रसन्न हुआ । यह मन्त्री की औत्पत्तिकी बुद्धि थी। (१७) पुत्र-एक सेठ के दो स्त्रियाँ थीं। उनमें एक पुत्रवती और दूसरी बन्ध्या थी । बन्ध्या स्त्री भी बालक को बहुत प्यार करती थी । इसलिये बालक दोनों को ही माँ समझता था। वह यह नहीं जानता था कि यह मेरी सगी माँ है और यह नहीं है। कुछ समय पश्चात् सेठ सपरिवार परदेश चला गया। वहाँ पहुँचते ही सेठ की मृत्यु हो गई । तब दोनों स्त्रियों परस्पर झगड़ने लगीं। एक ने कहा-यह पुत्र मेरा है, इसलिये गृहस्वामिनी मैं हूँ। इस पर दुसरी ने कहा-यह पुत्र तेरा नहीं, मेरा है, अतः गृहस्वामिनी मैं हूँ। इस विषय पर दोनों में कलह होता रहा । अन्त में दोनों राजदरचार मैं फरियाद लेकर गई। दोनों त्रियों का कथन सुन कर मन्त्री ने अपने नौकरों को बुला कर कहा-इनका सब धन लाकर दो भागों में बाँट दो। इसके बाद इस लडके के भी करवत से दो टुकड़े कर डालो और एक एक टुकड़ा दोनों को दे दो। मन्त्री का निर्णय सुन कर पुत्र की सच्ची माता का हृदय काँप उठा । बज्राहत की तरह दुखी होकर वह मन्त्री से कहने लगीमन्त्रीजी ! यह पुत्र सेरा नहीं है। मुझे धन भी नहीं चाहिये । यह पुत्र भी इसी का रखिये और इसी को घर की मालकिन बना दीजिये। मैं तो किसी के यहाँ नौकरी करके अपना निर्वाह कर लूंगी और इस बालक को दूर ही से देख कर अपने को कृतकृत्य समरगी पर इस प्रकार पुत्र के न रहने से तो अभी ही मेरा सारा संसार अन्धकार पूर्ण हो जायगा। पुत्र के जीवन के लिये एक स्त्री इस प्रकार चिल्ला रही थी पर दूसरी स्त्री ने कुछ नहीं कहा। इससे नार में फरियाद लेकरम कलह होता रहा। अतः गृहस्वामिनास

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