Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner

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Page 248
________________ २७८ भी सेठिया जैन ग्रन्थमाला mmmmmmm लगे। इसके बाद किसी पर्व के दिन उसने मायाको मित्र के दोनों लड़कों को अपने घर जीमने के लिये निमन्त्रण दिया । उसने अपने दोनों पुत्रों को मित्र के घर जीमने के लिये भेज दिया। घर आने पर उसने उन दोनों को अच्छी तरह भोजन कराया। इसके पश्चात् उसने उन्हें किसी दूसरी जगह पर छिपा दिया। जब बालक लौट कर नहीं आये तो दूसरे दिन लड़कों का पिता अपने मित्र के घर आया और उससे दोनों लड़कों के लिये पूछा। उसने कहां-उस घर में हैं। उस घर में मित्र के आने से पहले ही उसने प्रतिमा को हटा कर आसन बिछा रखाथा । वहीं पर उसने मित्र को बिठाया। इसके बाद उसने दोनों बन्दरों को छोड़ दिया। वे किलकिलाहट करते हुए आये और मायावी मित्र को प्रतिमा समझ कर उसके अङ्गों पर सदा की तरह उछलने कूदने लगे। यह, लीला देख कर वह बड़े आश्चर्य में पड़ा । तव दूसरा मित्र खेद प्रदर्शित करते हुए कहने लगा--मित्र ! यही तुम्हारे दोनों पुत्र हैं । बहुत दुःख की बात है कि ये दोनों बन्दर हो गये हैं। देखो! किस तरह ये तुम्हारेप्रति अपना प्रेम प्रदर्शित कर रहे हैं। तव मायावी मित्र बोला-मित्र! तुम क्या कह रहे हो ? क्या मनुष्य भी कहीं व दर हो सकते हैं ? इस पर दूसरे मित्र ने कहा-मित्र भाग्य की बात है। जिस प्रकार,अपने भाग्य के फेर से निधान (खजाना से कोयला हो गया उसी प्रकार भाग्य के फेर से एवं कर्म की प्रतिकूलता से तुम्हारे पुत्र भी वन्दर हो गये हैं । इसमें आश्चर्य जैसी क्या बात है ? , मित्र की बात सुन कर उसने समझ लिया कि इसे निधान विषयक मेरी चालाकी का पता लग गया है। अब यदि मैं अपने पुत्रों के लिये झगड़ा करूँगा तो मामला बहुत बढ़ जायगा । राजदरंवार में मामला पहुँचने पर तो निधान न मेरा रहेगा, न इसका, ही। ऐसा सोच कर उसने उसे निधान विषयक सच्ची हकीकत

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