Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग २३६ re.mmmrrrrrrr.mm
(१५) नरकपाल नारकी जीवों का मस्तक चूर चूर कर देते हैं और विष्ठा से भरे हुए और सूजन से फूले हुए अंगवाले उन नारकी जीवों को कड़ाही में डाल कर उन्हीं के खून में ऊपर नीचे करते हुए पकाते हैं। सुतप्त लोहे की कड़ाही में डाली हुई जीवित मछली जैसे छटपटाती है उसी प्रकार नारकी जीव भी तीव्र वेदना से विकल होकर तड़फते रहते हैं।
(१६) परमाधार्मिक देव नारकी जीवों को अग्नि में जलाते हैं किन्तु वे जल कर भस्म नहीं होते और नरक की तीव्र पीड़ा से वे मरते भी नहीं हैं किन्तु स्वकृत पापों के फल रूप नरक की पीड़ा को भोगते हुए वहां चिर काल तक दुःख पाते रहते हैं।
(१७) शीत से पीड़ित नारकी जीव अपना शीत मिटाने के लिए जलती हुई अग्नि के पास जाते हैं किन्तु उन वेचारों को वहां भी सुख प्राप्त नहीं होता। वे उस प्रदीप्त अग्नि में जलने लगते हैं। अग्नि में जलते हुए उन नारकी जीवों पर गर्म तैल डाल कर परमाधार्मिक देव उन्हें और अधिक जलाते हैं।
(१८) जैसे नगर वध के समय नगर निवासी लोगों का करुणा युक्त हाहाकारपूर्ण महान् आक्रन्दन शब्द सुनाई देता है उसी प्रकार नरक में परमाधार्मिक देव द्वारा पीड़ित किये जाते हुए नारकी जीवों का हाहाकारपूर्ण भयानक रुदन शब्द सुनाई देता है। हा मात! हा तात !मैं अनाथ हूं, मैं तुम्हारा शरणागत हूं, मेरी रक्षा करो, इस प्रकार नारकी जीव करुण विलाप करते रहते हैं । मिथ्यात्व हास्य और रति आदि के उदय से प्रेरित होकर परमाधार्मिक देव उन्हें उत्साहपूर्वक विविध दुःख देत हैं।
(१६) पाप कर्म करने वाले परमाधार्मिक देव नारकी जीवों के नाक कान आदि अङ्गों को काट काट कर अलग कर देते हैं। इस दुःख का यथार्थ कारण मैं तुम लागों से कहूंगा । परमाधार्मिक