Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री जैन सिदान्त बोल संग्रह, छठा भाग २३१ पुरुप को सदा गुरु की सेवा में ही रहना चाहिए किन्तु गच्छ को छोड़ कर कदापि बाहर न जाना चाहिए ।
(५) सदागुरु की चरण सेवा में रहने वाला साधु स्थान, शयन, आसन आदि में उपयोग रखता हुआ, उत्तम एवं श्रेष्ठ साधुओं के समान आचार वाला हो जाता है। वह समिति और गुप्ति के विषय में पूर्ण रूप से प्रवीण हो जाता है। वह स्वयं संयम में स्थिर रहता है और उपदेश द्वारा दूसरों को भी संयम में स्थिर करता है।
(६) समिति और गुप्ति से युक्त साधु अनुकूल और प्रतिकूल शब्दों को सुन कर राग द्वेप न करे अर्थात् वीणा, वेणु आदि के मधुर शब्दों को सुन कर उनमें राग न करे तथा अपनी निन्दा आदि के कर्णकटु तथा पिशाचादि के भयंकर शब्दों को सुन कर द्वेप न करे । निद्रा तथा विकथा, कपायादि प्रमादों का सेवन न करते हुए संयम मार्ग की अराधना करे । किसी विषय में शङ्का होने पर गुरु से पूछ कर उसका निर्णय करे ।
(७) कभी प्रमादवश भूल हो जाने पर अपने से बड़े, छोटे अथवा रत्नाधिक या समान अवस्था वाले साधु द्वारा भूल सुधारने के लिए कहे जाने पर जो साधु अपनी भूल को स्वीकार नहीं करता प्रत्युत शिक्षा देने वाले पर क्रोध करता है, वह संसार के प्रवाह में यह जाता है पर संसार को पार नहीं कर सकता।
(८) शास्त्र विरुद्ध कार्य करने वाले साधु को छोटे, बड़े, गृहस्थ या अन्यतोर्थिक शास्त्रोक्त शुभ आचरण की शिक्षा दें यहाँ तक कि निन्दित आचार वाली घटदासी भी कुपित होकर साध्याचार का पालन करने के लिए कहे तो भी साधु को क्रोध न करना चाहिए । 'जो कार्य आप करते हैं वह तो गृहस्थों के योग्य भी नहीं है। इस प्रकार कठोर शब्दों से भी यदि कोई अच्छी शिक्षा दे तो साधु को मन में कुछ भी दुःख न मान कर ऐसा सपना