Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री जैन सिद्धान्त.बोल संग्रह; कठ गग १३७ निकालते अनन्त. उत्सर्पिणी , एवं अवसर्गिणी, बीत जायँ: फिर
भी वह श्रेणी खाली नहीं होती । इसी प्रकार यह कहा जाता है किसमी भव्य जाब सिद्ध-होंगे किन्तु लोक उनसे खाली न होगा।
जब सभी भव्यजीव सिद्ध न होंगे फिर उनमें और अभव्यों में क्या अन्तर है. इसके उत्तर में टीकाकार,ने वृक्ष का दृष्टान्त दिया है। गौशीर्षचन्दन आदि वृक्षों से मूर्तियाँ बनाई जाती है एवं एरण्ड आदि कई वृत मूर्ति-निमाण के.सर्वथा अयोग्य हैं। परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सभी योग्य वृक्षों से मूर्तियाँ बनाई ही जायं। विइसका यह भी अर्थ नहीं होता है कि मूर्ति के काम न आने से सपंथा मूर्ति के अयोग्य होगये। योग्य वृक्ष कहने का यही आशय है कि मर्ति जब भी बनेगी. तो उन्हीं से बनेगी । यही बात भन्यात्मालो.के सम्बन्ध में भी हैं। इसका यह आशय नहीं है कि सभी,भव्य जीव सिद्ध हो जायेंगे और लोक उन से खाली हो जायगा । परन्तु इसका यह अर्थ है कि जो भी जीव' मोक्ष जायेंगे, वे इन्हीं में से जायेंगे।'
इस प्रश्न की..समाधान काल की अपेक्षा से भी किया गया है। भूत एवं भविष्य दोनों काल बराबर माने गये हैं। न भूत काल की कहीं आदि है, न भविष्य कालं का कहीं अन्त ही है । भूत काल में भव्यंजीवों का अनन्तवां भाग सिद्ध हुआ है
और इसी प्रकार भविष्य में भी.अनन्तवां भाग सिद्ध होगा। भूत और भविष्य दोनों अनन्तभाग के, सिद्ध हुएं एवं सिद्ध होने चाले भव्यात्मा सभी भव्यों के अनन्तवें भाग है और इसलिए भव्यों से यह संसार कभी भी शून्य नहीं होगा। .. .
. ..- (भगवती शतक १२.उद्देशा, २ टीका) (६)प्रश्न-परमाणु से लेकर सभी रूपी द्रव्यों का ग्रहण करनाअवधि जान का विषय है और उसके असंख्य भेद हैं, फिर मनःपर्ययज्ञान