Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, इंठा' भाग
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तो वह स्थान उपस्थान क्रिया नामक दोष वाला होता है । साधु को वहाँ ठहरनी नहीं कल्पती
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(३) अभिक्रान्त क्रिया-संसार में बहुत से गृहस्थ और स्त्रियाँ भोले होते हैं । उन्हें मुनि के आचार का अधिक ज्ञान नहीं होता । सुनि को दान देने से : महाफल होता है, इस बात पर उनकी, डढ श्रद्धा और रुचि होती है। इसी श्रद्धा और रुचि से श्रमण, ब्राह्मण, अतिथि दीन तथा भाट चारण आदि के रहने के लिए वे बड़े बड़े मकान बनवाते हैं । जैसे कि
। (१) लोहार के कारखाने (२) देवालयों की बाजु के ओरड़े (३) देवस्थान (४) सभागृह ( ५ ), पानी पिलाने की प्याऊ ( ६ ) दुकानें
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(७) माल रखने के गोदाम (८) रथ आदि सवारी रखने के स्थान (६), यानशाला अर्थात् रथ, आदि बनाने के स्थान (१०) चूना चनाने के कारखाने (११) दर्भ के कारखाने (१२) व अर्थात् चमड़े से मढ़ी हुई मजबूत रस्सियों, बनाने के कारखाने, (१३) वल्कल अर्थात् छाल आदि बनाने के कारखाने (१४) कोयले बनाने के , कारखाने (१५) लकड़ी के कारखाने.- (१६) वनस्पति के कारखाने (१७) श्मशान में बने हुए मकान (१८) सूने घर (१६) पहाड पर बने हुए घरे (२०) गुफाएं (२१) शान्तिकर्म करने के लिए
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एकान्त में बने हुए स्थान (२२) पत्थर के बने हुए मण्डप, २३ 'भवनगृह अर्थात् बंगले ।
ऐसे स्थानों में यदि चरक ब्राह्मण आदि पहले थोकर उत्तर जायँ तो बाद में जैन साधु उतर सकते हैं। यह स्थान अभिक्रान्त क्रिया वाली वसति कहा जाता है। इसमें साधु ठहर सकता है !
(४) अनभिकान्तं क्रिया - यदि ऊपर लिखे अनुसार श्रमण, 're at के लिए बनाई गई वसतियों में पहले चरक ब्राह्मण यदि न उतरे हों तो वह वसति अनभिकान्त क्रिया दोष बाली