Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग १६६ आत्मा तथा दूसरों को पाप में पड़ने से रोका। भगवान ने त्रियों को पाप का मूल बताकर छोड़ा है, इसलिए वास्तव में वे ही परमार्थदर्शी थे। . , . . ___ (१८) आधाकर्म आदि से दुपित आहार को कर्मवन्ध का कारण समझ कर भगवान् उसका सेवन नहीं करते थे। पाप के सभी कारणों को छोड़कर वे शुद्ध आहोर करते थे।
(१६) वे न वस्त्र का सेवन करते थे और न पात्र में भोजन करते थे अर्थात् भगवान् वखं और पात्र रहित रहते थे। अपमान की परवाह किए बिना वे रसोईघरों में अदीनभाव से आहार की याचना के लिए जाते थे।.. .. .. ..(२०) भगवान नियमित भशन पान काम में लाते थे । रस में आसक्त नहीं होते थे, न अच्छे भोजन के लिए प्रतिज्ञा करते थे। आँख में तृण आदि पड़े जाने पर उसे निकालते न थे और किसी अंग में खुजली होने पर उसे खुजालते न थे।. .. .. ..
(२१) भगवान विहार करते समय इधर उधर या पीछे की 'तरफ नहीं देखते थे। मार्ग में चलते समय नहीं बोलते थे ! मार्ग को देखते हुए वे जयणा पूर्वक चले-जाते थे।. . .
(२२) दूसरे वर्ष आधी-शिशिर ऋतु वीराने पर भगवान् ने इन्द्र द्वारा दिए गए वस्त्र को छोड़ दिया। उस समय वे वाहु-सीधे रख कर विहार करते मे अर्थाव-सर्दी के कारण बाहुओं को न इकट्ठा करते थे और न कन्धों पर रखते थे। .. .
(२३). इस प्रकार मतिमान तथा महान्-निरीह (इच्छा रहित) भगवान् महावीर स्वामी ने अनेक प्रकार की संयमविधि का पालन-किया है। कर्मों का नाश करने के लिए दूसरे मुनियों को भी इसी विधि के अनुसार प्रयत्न करना चाहिए। .. .
श्रोचाराग, अ० र ३०१)