Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री जैन सिद्धान्त वोल संग्रह, छठा भाग
(७) भूओवघाइए-ऋद्धि, रस और साता गौरव के वश होकर, विभूपा निमित्त अथवा निष्प्रयोजन एकेन्द्रिय आदि जीवों की हिंसाकरने वाला अथवा प्राधाकर्मी आहार लेने वाला भूतोपघातिक है। जिससे प्राणियों की हिंसा हो ऐसी बात कहने या करने वाला भी भूतोपघातिक है। जीव हिंसा से आत्मा असमाधि को प्राप्त होता है। (E) संजलणे-प्रतिक्षण अर्थात् बात बात में क्रोध करने वाला । क्रोध करने वाला दूसरे को जलाता है और साथ ही अपनी आत्मा और चारित्र को नष्ट करता है।
(8) कोहणे-बहुत अधिक क्रोध करने वाला । कुपित होने पर पैर का उपशमन करने वालाजीव असमाधि को प्राप्त करता है।
(१०) पिहिमंसिए-पीठ पीछे दूसरों की चुगली, निन्दा करने वाला । अनुपस्थिति में दूसरों के अवगुण प्रगट करने वाला अपनी आत्मा को दूषित करता है। इससे वह अपनी और दूसरों की शान्ति का भंग कर असमाधि को बढ़ाता है।।
(११) अभिक्खणं अभिक्खणं अोहारइत्ता-मन मेंशङ्का होने पर भी किसी बात के लिए बार बार निश्चयकारी भाषा बोलने वाला अथवा गुणों का अपहरण करने वाले शब्दों से दूसरे को पुकारने वाला, जैसे-तू चोर है, तू दास है इत्यादि । उक्त प्रकार की भाषा बोलने से संयम तथा यात्मा की विराधना होती है इसलिये यह असमाधि का कारण है।
(१२) णवाणं अधिकरणाणं अणुप्पण्णाणं उप्याइत्ता-नए नए अधिकरण अर्थात् झगड़ों को शुरू करने वाला । कलह का प्रारम्भ करने में स्व पर और उभय की असमाधिप्रत्यक्ष ही है। __(१३) पोराणाणं अधिकरणाणं खामिअविउसवित्राणं पुणोदीरित्ता-पुराने झगड़े जो क्षमा कर देने आदि के बाद शान्त