Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री सेठिया जैन ग्रन्थमाला
चारित्र वाले के इन चार अभिग्रहों में से कोई भी अभिग्रह नहीं होता क्योंकि इनका कल्प ही अभिग्रह रूप है। इनका प्राचार अपवाद रहित और निश्चित होता है। उसका सम्यक् रूप से पालन करना ही इनके चारित्र की विशुद्धि का कारण है।
(१४) प्रव्रज्या द्वार-अपने कल्प की मर्यादा होने के कारण परिहार विशुद्धि चारित्र वाला किसी को दीक्षा नहीं देता । वह यथाशक्ति और यथावसर धर्मोपदेश देता है। (१५) मुण्डापन द्वार-परिहार विशुद्धि चारित्र वाला किसी को मुण्डित नहीं करता। (१६) प्रायश्चित्त विधि द्वार-यदि मन से भी सूक्ष्म अतिचार लगे तो परिहार विशुद्धि चारित्र वाले को चतुर्गुरुक प्रायश्चित्त आता है । इस कल्प में चित्त की एकाग्रता प्रधान है। इसलिये उसका भङ्ग होने पर गुरुतर दोष होता है।
(१७) कारण द्वार-कारण (आलम्बन) शब्द से यहाँ विशुद्ध ज्ञानादि का ग्रहण होता है। परिहार विशुद्धि चारित्र वाले के यह नहीं होता जिससे उसको किसी प्रकार का अपवाद सेवन करना पड़े। इस चारित्र को धारण करने वाले साधु सर्वत्र निरपेक्ष होकर विचारते हैं और अपने कर्मों को क्षय करने के लिये स्वीकार किये हुए कल्प को दृढ़ता पूर्वक पूर्ण करते हैं।
(१८) निष्प्रांतकर्मता द्वार-परिहार विशुद्धि चारित्र को अङ्गीकार करने वाले महात्मा शरीर संस्कार रहित होते हैं। अक्षिमलादिक को भी वे दूर नहीं करते । प्राणान्त कष्ट आ पड़ने पर भी वे अपवाद मार्ग का सेवन नहीं करते। । (१६) भिक्षा द्वार:-परिहार. विशुद्धि चारित्र वाले मुनि भिक्षा तीसरी पौरिसी में ही करते हैं। दूसरे समय में वे कायोत्सर्ग आदि करते हैं । इनके निद्रा भी बहुत अल्प होती है।