Book Title: Jain Siddhanta Bol Sangraha Part 06
Author(s): Hansraj Baccharaj Nahta, Bhairodan Sethiya
Publisher: Jain Parmarthik Sanstha Bikaner
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श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, छठा भाग १ जो कल्पचार स्थानों में स्थित और छः स्थानों में अस्थित होता है वह अस्थित कन्प कहलाता है। चार स्थान ये हैं-शय्यातर पिण्ड, चतुर्याम (चार महावत), पुरुष ज्येष्ठ और कृतिकर्म करण।
परिहार विशुद्धि चारित्र स्थित कल्प में ही पाया जाता है। अस्थित कल्प में नहीं।
परिहार विशुद्धि चारित्र भरत और ऐरावत क्षेत्र के प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के शासन काल में ही होता है। बाईस तीर्थङ्करों के समय यह चारित्र नहीं होता है।
(8) लिङ्ग द्वार-द्रव्यलिङ्ग और भावलिङ्ग इन दोनों लिङ्गों में ही परिहार विशुद्धि चारित्र होता है। दोनों लिङ्गों के सिवाय किसी एक ही लिङ्ग में यह चारित्र नहीं हो सकता।
(१०) लेरया द्वार-तेजो लेश्या, पन लेश्या और शुक्ल लेश्या में परिहार विशुद्धि चारित्र होता है।
(११) ध्यान द्वार-बढ़ते हुए धर्म ध्यान के समय परिहार विशुद्धि चारित्र की प्राप्ति होती है।
(१२)+गणना द्वार-जघन्य तीन गण परिहार विशुद्धि चारित्र को अङ्गीकार करते हैं और उत्कृष्ट सौ गण इसे स्वीकार करते हैं। पूर्व प्रतिपन्न की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट सैकड़ों गण होते हैं । पुरुष गणना की अपेक्षा जघन्य सत्ताईस पुरुष और उत्कृष्ट * हजार पुरुष इसे स्वीकार करते हैं। पूर्व प्रतिपन तो जघन्य और उत्कृष्ट हजारों पुरुष होते हैं।
(१३) अभिग्रह द्वार-अभिग्रह चार प्रकार के हैं-द्रव्याभिग्रह, क्षेत्राभिग्रह, कोलाभिग्रह और भावाभिग्रह । परिहार विशुद्धि +इसका मिलान भावती सूत्रके मूलपाठ से नहीं होता है । यह बात टीकानुसार दी है।
* इस चारित्र को अगीकार करने वाले उत्कृष्ट सौ गण बतलाये गये हैं। इसजिये पुरुप गणना की अपेक्षा उत्कृष्ट १०० पुरुष होते हैं। प्रज्ञापना सूत्र को टीका में उत्कृष्ट हजार पुरुष वताए हैं । उसा के अनुसार यहाँ पर भी दियागया है।