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भास्कर
[ भाग २
वैदग्भ्यश्रीवधूटीपतिरतुलगुणालकृतिर्मेधचन्द्रस्त्रविद्यस्यात्मजातो मदनमहिभृतो भेदने वज्रपातः सैद्धान्तिव्यूहचूडामणिरनुफलचिन्तामणिभूजनानाम् योऽभूत्सौजन्यरुन्द्रश्रियमवति महौ वीरनन्दी मुनीन्द्रः ॥३२॥ श्रीमेघचन्द्रोज्वलमूर्तिकीर्तिः
समस्तसैद्धान्तिकचक्रवर्ती ... श्रीवीरनन्दी कृतवानुदार
.... माचारसारं यतिवृत्तसारम् ॥३३॥ अब देखना है कि 'वीरनन्दी कब हुए। श्रवण बेल्गोल के नं० ४७-५० और ५२ के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि बीरनन्दी के गुरु आचार्य मेघचन्द्र का स्वर्गवास शक सम्वत् १०३७ वि० सं० १९७२ में और इनके एक शिष्य शुभचन्द्र देव का स्वर्गवास शक सं० १०६८ वि० सं० १२०३ में हुआ था। इन्हीं प्राचार्य मेघचन्द्रजी के शिष्य प्रभाचन्द्र ने शक सं० १०४१ वि० सं० ११७६ में एक महा पूजा करायी थी।
इन आधारों का ही आश्रय लेकर पं० नाथूराम प्रेमी जी ने माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित "आचारसार" के निवेदन में श्रीवीरनन्दीजी का समय १२ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध निर्धारित किया है। आप का वीरनंदी जी का यह कालनिश्चय अनुमानपरक है। किन्तु इनके समय-निर्णय के लिये हमारे सामने एक और सुदृढ प्रमाण मौजूद है। वह यह है कि इस वीरनंदी ने शक सं० १०७६ वि० सं० १२११ में स्वरचित. आचारसार की एक कन्नड टीका * लिखी है। इससे तो आचार वीरनंदी का काल १२ वीं शताब्दी का उत्तरार्ध न होकर १३ वीं शताब्दी का प्रारंभिक काल निर्विवाद सिद्ध होता है। ज्ञात होता है कि "कर्नाटककविचरिते" के इस भाग के प्रकाशित नहीं होने के कारण ही उल्लिखिन सबल प्रमाण को प्रस्तुत करने से प्रेमी जी को वञ्चित रहना पड़ा।
इस लेख के प्रकृत लक्ष्यभूत नेमिनाथ जी के समय के विषय में भी कुछ विचार करना परमावश्यक है । "सिद्धान्तचक्रवर्त्याख्येद्धवीरनन्दियतिनाथाशा" आदि टीका के प्रारंभ के इस द्वितीय पद्य से शात होता है कि इन्होंने सिद्धांतचक्रवर्ती वीरनन्दी की आज्ञा से ही नीतिवाक्यामृत की यह कन्नड टीका लिखी है। इससे यह सहसा सिद्ध होता है कि नेमिनाथ जी वीरनन्दी जी के सम-सामयिक थे। अतः नेमिनाथ का भी समय १३ वीं शताब्दी का प्रारंभ निश्चित रहा। इन्होंने टीका के अन्त में अपने को 'सन्धि विग्रही' बतलाया है। परन्तु पता नहीं लगता है कि यह कहां और किस राजा के आश्रय में रह
१-कर्नाठककविचरिते २ व भाग पृष्ठ 5