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किरण ४ ]
अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश
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गृहस्थी के उपकरणों और जीवों के संहार करनेवाले आयुध ष्यादि सभी का देवता मान कर उनके विनय से नमस्कार करने लगता है । इन नाममात्र के देवताओं का प्रेरा हुआ, मूर्ख गुरुद्वारा धोखे में डाला जाकर, भ्रमता फिरता है । जो देव देखा उसी से लग गया; उचित अनुचित की कुछ खोज ही नहीं करता। जब हाथ में अक्षमाला लेता है तब अपने मन में शंका उत्पन्न करता है कि यह देव नहीं है । जो प्रिया के प्रेम में आसक है, विषयों में प्रमत है, देव होकर भी नाचता फिरता है, जो भयानक है (दारुवणु १), दुराग्रही है, वह शुभ प्रभु कैसे हो सकता है ? अवश्य वह लोगों को ठगता है'। जो गोपियों के नाम से जाना जाता है उसे लोग पुरुषोत्तम कैसे कहने लगे ? जिसका मन एक ग्वालिन के देखने से ही विचलित हो जाय, देवत्व उसके पास भी कैसे फटक सकता है ? गौतम ऋषि की भार्या में जिसका मन विस्मित हो गया वही सहस्रनयन सुरपति बन गया ? चन्द्र वृहस्पति की भार्या पर आसक्त हो गया, लोगों ने उसे कलंकित मात्र कहकर रहने दिया। यदि देव भी प्रिया व सुत के मोह में पड़कर मनुष्यों के समान आचरण करते हैं। और क्रोधातुर व कामातुर हुए, दुष्कर्मो में लिप्त, संसार में घूमते फिरते हैं, तो फिर मनुष्यों और देवों में तो कोई अन्तर ही दिखाई नहीं देता ? पुण्य का कारण फिर क्या ठहरा ? जो स्वयं पापकर्म करते हैं वे दूसरों का कैसे पुण्यकर्म में लगा सकते हैं ? जिनके चित्त में सदा संशय विलास कर रहा है, उनमें तो कोई वीतराग गुण दिखाई नहीं देता '" इत्यादि ।
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धत्ता - मह - रक्खस - भूवइ', असुइ-सरुवई, खेत्तवाल - वेयालाइ | ह य देव, हुति असेवई, दुकम्म हिंसालइ ॥६॥ चंडिय - पंमुहउ जोइणि सारउ । मज्ज -पाण-पसु-कवलण-यारउ । देव मणिवि वंद णिग्घिणु । णिविणाइ संसय सल्लिय- मणु । गो-मुहाई तिरिक्खहं श्रंगई । सुहिण णमंसइ पाव-पसंगइ || वड पिप्पलु, जंबू शिंबंचुरु । देहलि दुध्व-इव्भु जलु जलयरु । कंजिणि - पमुह घर - उवयरई । आउहाई जीवहं संघरण । इय सव्व देवइ मरणंतउ । विणयें एवकार गामाहास- देव- मइ - पेरिउ । हिंडइ जड-गुरूहिं जो जो देउ थिइ तहो लभ्गइ । जुत्ताजुत्तु किंपि ण हु मग्गइ |
विरयंतउ |
अवहेरिउ |
देव गियर्माणि संसउ भावहिं । अक्खमाल जावहिं करुठा वहिं ।
धत्ता - पिय-पेम्मासत्तउ, विसय पमत्तउ, देव हविवि जो चइ ।
दारुवणु कयग्गहु, कह सो सुहपहु, लोयहं अवसु पर्वच ॥ १०॥