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किरण ४]
अमरकीर्तिगणि-कृतषट्कर्मोपदेश
अन्य की दशवीं सन्धि में जिनपूजा पुरंदरविधि-कथा कही गयी है, उपवासविधि बतलाई गई है और जिनपूजन व व्रत-उद्यापनविधि का विवरण है। इस सन्धि के साथ षट्कर्मों में से प्रथम देवपूजा का उपदेश समाप्त होता है। ___ ग्यारहवीं सन्धि में दूसरे और तीसरे गृहस्थकर्म अर्थात् गुरु-उपासना और स्वाध्याय का उपदेश दिया गया है, 'गुरु के उपदेश से ही ज्ञान मिलता है, इसलिये गुरु की सेवा करनी चाहिये बिना सूर्य-प्रकाश के कहीं लोक के पदार्थ दिखाई देते हैं' ? गुरु कैसा होना चाहिये ? 'जो मन की शंकाओं का निवारण कर सके, शीलवान् हो, शुद्ध निष्ठावान् हो, जिसका चारित्र ही भूषण हो, दूषणों का जिसके त्याग हो, वही गुरु उत्कृष्ट है, जो इन्द्रियों के विषय-विकारों में भूला हो, वह गुरु तो सच्छिद्र नाव के तुल्य है। मोह, प्रमाद और अहंकार में जो मता हुआ है वह विकलत्र अर्थात् ब्रह्मचारीगुरु कैसे बनायो जा सकता है ? गृह, केलन, मित्र और संपदा में जो बँधा है वह मोहांध कैसे गुरु होगा? जो मद्य पिये और मांस भोजन करे वह निर्लज्ज कैसे गुरु माना जा सकता है ? जो जीवों की रक्षा न करे, न मन में शुद्ध आचार भावे वह पापी गुरु, अन्धों का अन्धे के समान अपने शिष्यों को स्वर्ग के दर्शन कैसे करा सकता है ?..
अतएव उत्कृष्ट गुरु का सदैव विनय करना चाहिये। विनय बड़ा ही अच्छा गुण
जह जह सा दुविहासा मेल्लइ । तह तह सो सविलक्खु पबोल्लइ । जह जह सा फम्मक्खउ भावइ । तह तह सो चउपासिउ धावइ । जह जह सा भावणउ वियप्पइ । तह तह सो सरजालें कंपइ ।
जह जह सा तच्चक्खु विवेयइ । तह तह सो महि पडिउ ण चेयई । '८ जाणिज्जह सा गुरु-कहिय, तेण गहिजइ सुगुरु-वासणा । . रवि-उज्जोयह विणु हवइ, किह लोयम्मि पयस्थ-पयासणा ॥११,१॥
मण-संदेह-णासणो, सील-वासणो, विहिअ-सुद्ध-णिट्ठो ।
जो चारित्त-भूसणो, चत्त-दूसणो, सो गुरु वरिठ्ठो ॥११,१॥ १० इंदिय-विसब-विवारहि भुल्लउ । सो गुरु वणिय-तरंडहु तुल्लउ ।
मोह-पमाय-मएहि पमत्तउ । किह सो गुरु किजइ वियलत्तउ । घर-कलत्त-सुहि-संपव-बद्धड । किह सो गुरु हवेइ मोहंधउ ।
मज्जु पिएइ करह मंसासणु । किह सो गुरु मरिणजह णिग्धिणु । घत्ता-जो जीउ स रक्खइ पावमई, सुद्धायारु ण णियमणि भावइ ।
सो गुरु अंधह अंधु जिह, सीसह केम सग्गु संदावह ॥११,१॥ .