Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Jain Siddhant Bhavan
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 374
________________ किरण ४ प्रतिमा-लेख-संग्रह और केशर चर्चाने का रिवाज था। किन्तु इससे मी कुछ सिद्धान्त भेद नज़र नहीं पड़ता और इस तरह हम तो समझते हैं कि काष्ठासंघ और मूलसंघ में ज़्यादा भेद नहीं था। माथुर संघ का सम्पर्क काष्ठा संघ से धनिष्ठ था और यह प्रकट ही है कि माथुर संघ के श्रावकाचार और सैद्धान्तिक मान्यताओं में मूलसंघ से कुछ भी भेद नहीं था, जैसे कि श्रीअमितगति आचार्य के ग्रंथों से प्रकट है। अत एव काष्ठासंघ के साथ भी मूलसंघ का अधिक अंतर होना असम्भव है यही कारण है कि मैनपुरी के लेख संग्रह में एक ही जाति के लोग मूल और काष्ठा दोनों संघों के अनुयायी मिलते हैं। मैंनपुरी के बड़े मंदिर जी में एक हस्तलिखित गुटका संवत् १८६७ का ढाका शहर का लिखा हुआ मौजूद है। उसमें काष्ठासंघ के अनुसार नित्यनियम अर्थात् देव-शास्त्र गुरु-पूजा दी हुई है। प्रचलित नित्यनियम पूजा में और उसमें केवल इतना ही अंतर है कि उसमें "काष्टकविनिर्मुक्त' आदि" श्लोक के बाद ये श्लोक और दिये हुये हैं : "श्रीयुगादिदेवं प्रणमत्य पूर्व, श्रीकाष्टासंघे महिते सुभन्याः । (१) श्रीमत्प्रतष्ठिा श्रुततो जिनस्य, श्रीयज्ञकल्पं स्वहिताय वक्ष्ये ॥१२॥ आदिदेवं जिनं नत्वा केवलज्ञानभास्कर। काष्ठासंघश्चिरं जीयाक्रियाकाष्ठादिदेशकः ॥१३॥ श्रीनाभिनंदनविभुप्रणिपत्य भक्त्या, यद्देशनामृतरसेन जगत्प्रपूर्णम् । काष्ठाख्यसंघवरमंगलहेतुनित्यं, यस्यागमान्निगदितांघ (?) करोमि पूजां ॥१४॥ इन श्लोकों में केवल काष्ठासंघ का बोध कराने का भाव है और उसके उत्कर्ष की भावना भाई गई है। हां, हमारो उपर्युक्त व्याख्या का इससे भी समर्थन होता है कि इस संघ का नाम देश अपेक्षा है, क्योंकि उपर्युक्त नं० १३ के श्लोक में इस संघ की क्रियायें काष्ठादि देश की बताई हैं। मालूम होता है कि साम्प्रदायिक द्वषबश काठ की मूर्ति आदि बनाने की अपेक्षा काष्ठासंघ कहलाने को कथायें कपोलकल्पनावत् रची गई हैं। उनमें कुछ भी सार नहीं है। काष्टासंघ की जैनपूजा में अवश्य कुछ क्रिया भेद था; किन्तु वह भी विशेष नहीं प्रतीत होता। पूजा में अगाड़ी कुछ भी पाठ भेद नहीं है। केवल 'देवजयमाल' में 'वत्ता गुट्ठाणे' आदि के स्थान पर एक अन्य जयमाल है, जिसका प्रारंभ इन गाथाओं से होता है : "चउबीस जिणंदह तिहुयणचंदह, अह सयलचियभायणहं । जयमाला विरवम्मि गुणगण समरम्मि कम्म महागिरि चूरणहं ॥२॥ जय जय रिसहणाह भव रहिया, जय जय अजिय सुराहिव महिया । इत्यादि" सेनगण का सम्बन्ध बंगाल के सेनराजवंश से प्रतीत होता है। ( वीर वर्ष ४ पृ० ३२८ ) बलात्कार गण की उत्पत्ति किस अपेक्षा है, यह ज्ञात नहीं। कहा जाता है इस गण के सुद्ध अथवा ज़बरदस्त होने के कारण यह इस नाम से प्रख्यात हुआ था।

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