________________
[ भाग
३८
भास्कर
१
के
काष्ठा संघ की उत्पत्ति के विषय में एक से अधिक मत हैं। दसवीं शताब्दी के देवसेनाचार्य मतानुसार सं० ७५३ में भ० कुमारसेन द्वारा इस संघ की उत्पत्ति हुई थी; किन्तु इस काल से भी पहले इस संघ का अस्तित्व मिलता है । एक कथा में काठ अथवा मिट्टी की मूर्ति बनाने का विधान करने के कारण इस संघ का यह नाम पड़ा बताया गया है । किन्तु हम तो समझते हैं कि मथुरा के निकट जमुना तट पर स्थित काष्ठा नामक ग्राम की अपेक्षा, इस संघ का यह नाम पड़ा था। इस संघ के पुष्कर व माथुरगण और नदी तट गच्छ आदि इस बात के द्योतक हैं कि किसी ग्राम की अपेक्षा से ही इस संघ का नाम 'काष्ठासंघ' पड़ा है । मथुरा प्राचीन काल से जैन धर्म का प्रमुख स्थान रहा है और उसके निकट काष्ठा नामक ग्राम भी मिलता है । द्रमिल संघ - द्राविड़ संघ, पुन्नाट संघ आदि नाम भी देश अपेक्षा है । अतः काष्ठासंघ भी जैन मुनियों के उस साधुसमुदाय का नाम प्रतीत होता है, जिनका मुख्य स्थान काष्ठा नामक स्थान था । देवसेन जी ने माथुर संघ की गणना अलग की है; किन्तु अन्य विद्वान् उसे काष्टसंघ का एक गच्छ ही बतलाते हैं; यथा :
काष्ठासंघ भुविख्याता जानन्ति नृसुरासुराः । तत्न गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ ॥१॥ श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुर बागड़ाभिधः ।
लाड़ बागड़ इत्येते विख्याताः क्षितिमण्डले ॥३॥ — सुरेन्द्रकीर्तिः |
देवसेन जी के उपर्युक्त भेद-विवक्षा का कारण यह प्रतीत होता है कि काष्टासंघ में गोपुच्छ की पिच्छि रखने की आज्ञा है और माथुर संघ में पिच्छि रखने का विधान नहीं है । श्रीश्रमितगति आचार्य का श्रावकाचार माथुर संघ का है; किन्तु उसमें कोई बात ऐसी नहीं है जो मूलसंघ के विपरीत हो । काष्टासंघ का कोई आचारग्रंथ नहीं मिलता और यह भी नहीं मालूम कि उसमें और मूलसंघ में: क्या अन्तर था; किन्तु उपर्युक्त मैंनपुरी के लेख संग्रह से प्रकट है कि काष्टसंघ और मूल संघ में ऐसा कुछ विशेष विरोध नहीं था; यही कारण है कि एक ही जाति के लोग दोनों ही संघों के श्रनुयायी थे । इतना तो निस्सन्देह स्पष्ट है कि उल्लिखित लेखों के समय अर्थात् १४ वीं से ११ वीं शताब्दी ई० तक जैनों में काष्टासंघ और मूल संघ की कट्टरता का पक्ष नहीं था। यहां तक कि लोग काष्टासंघ के गए और गच्छ रूप में मूलसंघ के बलत्कारगण और सरस्वती गच्छ का उल्लेख करते थे। मालूम नहीं मूल में इन दोनों संघों में कितना भारी भेद था । देवसेनाचार्य के बताये हुये भेदों में केवल दो, कड़े बालों या गाय की पूंछ की पिच्छी रखना और तुल्लकों के लिये arrar का विधान करना मुख्य हैं । ( दर्शनसार गा० ३५) किन्तु इन बातों का सम्बन्ध गृहस्थों से विशेष नहीं है। कहा जाता है कि काष्टासंघ में बीस पंथ के अनुसार जिनेन्द्रपूजन में फल, फूल