Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Jain Siddhant Bhavan
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 348
________________ किरण ४ ] सिलार रट्टराज का नया शिलालेख और जैन-धर्म १४६ सम्राट अमोघवर्ष जैनधर्म के एक महान संरक्षक थे। उनका लगभग सन् ८१४-८७८ तक चौंसठ वर्ष का विस्तृत राज्यकाल था और इस बड़े राज्यकाल में जैनधर्म का चारो ओर खासा प्रचार हुआ था। राष्ट्रकूटों के पश्चात् चालुक्यों का अभ्युदय हुआ। रट्टराज का सम्बन्ध इनसे भी था। चौलुक्य अभ्युदय के प्रारंभिक काल में जैनधर्म का उत्कर्ष अतुण्ण बना रहा। (बम्बई गजेटियर भाग १ खण्ड २ पृष्ठ २०८) किन्तु पूर्वोक्त ताम्रलेख के लिखे जाने के समय दक्षिण भारत के जैनों और शैवों में पारस्परिक स्पर्धा खूब चल निकली थी। चालुक्य जयसिंह द्वितीय सन् २०१८ में राज्याधिकारी हुए थे और वह पहले जैन थे। किन्तु अपनी पत्नी सुग्गलदेवी के प्रयत्न से वह शैव धर्मानुयायी हो गए थे। इतने पर भी कोल्हापुर में राज्य करनेवाले सिलारवंश की शाखा के राजाओं में . जैनधर्म का विशेष प्रभाव कार्यकारी था । सर्वोपरि जिस दक्षिणी मराठा प्रदेश में रहराज का राज्य था, वहां आजतक जैनधर्म का खूब प्रचार है। ... यह पहले ही लिखा जा चुका है कि रट्टराज का जैनत्व उसके प्रस्तुत ताम्रलेख से स्पष्ट है, क्योंकि उसमें बिना किसी 'प्रणव' के केवल 'स्वस्ति' शब्द से ही--एक जैन ढंग पर उसका प्रारंभ हुआ है। जैन लेखों के प्रारम्भ में 'श्री' शब्द भी मिलता है, जैसे कि विजयादित्य के कोल्हापुर वाले लेख में है। (इपी० इन्डिका, भाग ३, पृष्ठ २०६) तिसपर यह भी संभव है कि जिन पाँच बड़े मठों के प्रति रट्टराज ने सम्बोधन किया है, उनमें से कोई जैन हों ! (पञ्चमहामठ स्थान नगर हजमान प्रधानामात्यवर्गः संविदितः।-पंक्ति३५) अतः उपर्युक्त बातों का लिहाज रखते हुए रट्टराज को उपर्युक्त ताम्रलेख लिखते समय जैनधर्मानुयायी हुआ, मानना अनुचित नहीं है। ___ रट्टराज के धर्मपरिवर्तन के साथ साथ उसके राज्याधिकार में भी अन्तर पड़ा था। खारेपाटन के अपने लेख में उसने राष्ट्रकूटबंशी राजाओं को मान्यता दी है। परन्तु उपरान्त में उनका स्थान चालुक्य तैलप को मिल गया है। चालुक्य तैलप ने राष्ट्रकूटों को परास्त कर दिया था। तैलप के बाद उसका पुत्र सत्याश्रय राजा हुआ था और रट्टराज ने अपने को उसका करद लिखा है। (परम भट्टारक महाराजाधिराज श्री सत्याश्रयदेवानुभ्यातमण्डलीकश्रीरट्टराज ) किन्तु प्रस्तुत लेख में किसी के राज्याश्रय स्वीकार करने का उल्लेख नहीं है। रट्टराज का स्वयं अपना राज्य हो गया था और उसी राज्य के अन्तर्गत यह लेख लिखा गया था। (श्री रहार्यराजराज्ये ) इससे स्पष्ट है कि रट्टराज ने चालुक्यों * जर्नल ऑफ बम्बई यांच ऑफ दो रायल ऐशियाटिक सो० भा० १३ पृष्ठ १७ व इण्डियन ऐण्टीक्वेरी भाग १२ पृ० १०२ । दक्षिण महाराष्ट्र देश में जैनों के पाँच मठों का अस्तित्व मिलता है।

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