Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Jain Siddhant Bhavan
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 352
________________ किरण ४] अपने लेखों के विषय में कुछ विशेष वक्तव्य - गया था। नगर के ३७वं शिलालेख के अनुवाद की ब्रह्मचारीजी की पंक्तियाँ यों हैं :___“पम्पादेवी महापुराण में विदुषो थी। यह इतनी विद्या-सम्पन्न थी कि इसे शासनदेवता कहते थे।" ................................. “पम्पा देवी ने अष्टाविधार्चना महाभिषेक और चतुर्भक्ति रची।" ब्रह्मचारी जी ने इन पंक्तियों से पम्पादेवी को विदुषी एवं प्रन्थकी सिद्ध किया है। किन्तु उक्त शिलालेख (ई. सन् १९४७) से अष्टविधार्चना महाभिषेक और चतुर्भक्ति ग्रन्थ सिद्ध न होकर सेवाएं सिद्ध होती हैं। साथ ही साथ "नूतनातिमब्बे" का सम्बन्ध आपने जो पुत्री बाघलदेवी के साथ माना है वह माता पम्पादेवी से ही समन्वित सिद्ध होता है। (२) विक्रम सान्तर की "त्रिभुवन-दानी” यह पद उल्लिखित नगर के शिलालेख (पं०६३-४ ) से उपाधि सिद्ध होता है जिसे हमने ब्रह्मचारी जी के अनुवाद के आधार पर "विक्रमसान्तर महादानी रहा; इसी लिये यह जगदेक दानी भी कहलाता था" यों लिखा है। (३) ब्रह्मचारी जी के म० व मै० प्रा० प्रा० जै. स्मारक में सान्तर, चट्टल, बाचल ये शुद्ध रूप 'सान्तार', 'चत्तल' एवं 'बाञ्चल' इन अशुद्ध रूपों में परिवर्तित हो गये हैं, अतः मेरे लेख में भी ये ही अशुद्ध रूप ज्यों के त्यों रह गये हैं। (४) मैंने जो अपने लेख में वादीभ-सिंह का समय ११ वीं शताब्दी लिखी है, वह सामान्य दृष्टि से। यों तो नगर के ४०वें और ३७वे शिलालेखों से इनका समय ११वों शताब्दी का अन्त और १२वीं शताब्दी का पूर्वाद्ध अनुमित होता है। साथ ही साथ तीर्थहल्लि तथा नगर के शिला-लेख में दी हुई परम्परा से यह भी निश्चित होता है कि वादीभ सिंह वादीभ राज के बाद के थे। (५) चोल राजाओं में प्रथम राज-राज ने ई० सन् १८५ से ई० सन् २०१२ तक राज्य. किया था। वादीभ-सिंह इनके समय में नहीं रहे होंगे। द्वितीय राजराज ने ई० सन् १९४६ से ई० सन् १९७८ तक शासन किया था। अतः इसी राज के शासनकाल के आरम्भ में वादीभ-सिंह रहे होंगे। (६) तिरूत्तक देवर के "जीवक-चिन्तामणि" ग्रन्थ में यह नहीं लिखा हुआ है कि वादीम के द्वारा रचे गये ग्रन्थ का शेष भाग मैने पूर्ण किया। साथ ही साथ तमिलु विद्वानों ने तिरुत्तक देवर का समय ई० सन् १० वीं शताब्दी निश्चित किया है। इस समय-संकेत से भी सिद्ध हो जाता है कि १ शताब्दी पूर्व के यह तिरुत्तक देवर १ शताब्दी वाद के वादीम सिंह के ग्रन्थ का भाषान्तर नहीं कर सकते हैं। इसलिये पं० शंभुशरण त्रिपाठी का "तिरुत्तक देवर ने अपने जीवक-चिन्तामणि में लिखा है कि वादीम के द्वारा प्रारम्भ किये हुए इस ग्रन्थ के शेष भाग को हमने पूरा किया" यह कथन सर्वथा निर्मल है जो कि हम को भी खटका था।

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