Book Title: Jain Siddhant Bhaskar
Author(s): Jain Siddhant Bhavan
Publisher: Jain Siddhant Bhavan

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Page 342
________________ किरण ४ ] . श्रीऋषभदेव भगवान के जीवनी के साधन के साधन १४५ जैनकुमार-सम्भव इस ग्रन्थ के कर्ता महाकवि श्री जयशेखर सूरि हैं। इस ग्रन्थ का नाम देने में कालिदास का अनुकरण है और कुमारसम्भव की तरह इसकी रचना भी कोमल एवं प्रौढ़ है, परन्तु शृङ्गार-बहुल वर्णन इसमें नहीं है । यह ग्रन्थ महाकाव्य की शैली का होने से रघुवंशादि की तरह, यमक, उदात्त, उपमा, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति आदि आलंकारिक श्लोकों से भरा हुआ है। इसमें अयोध्या के तथा श्रऋषभदेव भगवान् के जन्म आदि का काव्यदृष्टि से वर्णन किया है। श्रावक भीमसिंह माणेक बंबइ वाले ने इसको गुजराती अनुवादसहित प्रकाशित किया है। इसका आदिम श्लोक यह है - अस्त्युत्तरस्यां दिशि कोशलेति, पुरी परीता परमधिलोकैः । निवेशयामास पुरः प्रियायाः, स्वस्या वयस्यामिव यां धनेशः ॥१॥ अलंकार संपन्नकामा नयनाभिरामाः, सदैव जीवत्प्रसवा अवामाः । यत्रोज्झितान्यप्रमदावलोका अदृष्टशोका न्यविशंत लोकाः ॥२॥ (जैनकुमार-सम्भव) त्रिषष्ठिशलाका-पुरुषचरित्र वारमी शताब्दी के सर्व-विद्या-विशारद श्रीहेमचन्द्रसूरि ने कालिदास जैसी अपनी प्रासादिक प्रौढ कविता में त्रिषष्टिशलाका-पुरुष-चरित्र को पद्यबद्ध बनाया है । इसमें २५ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, १ वासुदेव, ६ प्रतिवासुदेव और ६ बलदेव इन ६३ शलाका ( उत्तम ) पुरुषों के विस्तार से पूरे चरित्र हैं। अतएव इसका यथागुण नाम है, इस ग्रन्थ में सारा जैन इतिहास तथा तत्वज्ञान आ जाता है। यह ग्रन्थ करीब ३६००० श्लोक का है। इसके दश पर्व (भाग) पाड़े हैं। प्रथम पर्व में परमात्मा श्रीऋषभदेव तथा भरत चक्रवर्ती आदि की जीवनी विस्तार से करीब ५००० हजार श्लोकों में लिखी है। प्रथम पर्व के ६ सर्ग हैं । पहिले सर्ग में भगवान् के १२ पूर्व भवों का वर्णन, दूसरे में कुलकरों का वृत्तान्त, जन्मोत्सवादि, तीसरे में दीक्षामहोत्सव, केवलज्ञान, तीर्थप्रवर्तनादि का वर्णन, चौथे सर्ग में भरत चक्रवर्ती का दिग्विजय, भगवान् के ६० पुत्रों की दीक्षा आदि का वर्णन, पाँचवें में भरत बाहुबलि के बुद्ध का वर्णन और छ? सर्ग में कैवल्यावस्था में भगवान् का विहार, अष्टापद ऊपर निर्वाणोत्सव, भरत का केवल ज्ञान आदि का वर्णन आता है। यह मूल ग्रन्थ श्रीजैनधर्म प्रसारक-सभा भावनगर से पूरा प्रकट हुआ है । इसके प्रथम सर्ग का इंग्लीश अनुवाद डा० प्रो० बनारसीदास जैन एम० ए०, ने किया है जो Jain Jataks के नाम से मोतीलाल बनारसीदास ने अपने The Punjab sanskrit depot Lahore से सन् १९२५ में प्रकट किया है । इसके परिशिष्ट पर्व का ग्लीश और जर्मन भनुवाद छप चुका है और डा० मिस जोन्सन ( अमेरिकन विदुषी)

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