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अमरकीर्तिगणि-कृत षट्कर्मोपदेश
(ले०-श्रीयुत प्रोफेसर हीरालाल जैन, एम.ए., एल.एल.बी.)
एक प्रन्यकर्ता व अन्य का ऐतिहासिक परिचय पूर्व लेख में कराया जा चुका है।
यहाँ इसके विषय आदि का परिचय कराया जाता है। प्रन्थ का विषय नाम ही से स्पष्ट है। इसमें गृहस्थों के लिये नित्य पालने योग्य छह कर्मों का उपदेश दिया गया है। ये छह कर्म हैं देवपूजा, गुरु-उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान। इन्हीं का विवरण प्रन्थ की चौदह सन्धियों में किया गया है। तेरह कडवकों की प्रथम सन्धि का कवि ने षट्-कर्म-निर्णय नाम दिया है। इसमें पूर्वोक्त कवि-परिचय के पश्चात् देवपूजा के हेतु सच्चे देव की परीक्षा की गई है। कवि का कहना है कि 'देव की जब परीक्षा करके पूजा की जायगो तभी उससे पुण्य होगा; विना परीक्षा की पूजा से दुर्गति ही बढ़ेगी। 'दृढ़ मिथ्यात्व में फँसे होने के कारण देव की परीक्षा न जान कर मूर्ख सभी को देव मानने लगता है तथा अपने चित्त को एक जगह कहीं भी नहीं लगाता। सब वस्तुओं में विष्णु का बास बताता है, फिर पीछे उन्हीं को लात लगाता है। आठ मूर्त पदार्थों में ईश्वर का भाव भाता है और तत्काल ही उनका अविनय करता है। विष्णु को नमस्कार करता है तथा स्कर और मच्छ को मारता है उन्हें विष्णु की मूर्ति समझ कर पाप का विचार नहीं करता। महाराक्षस और भूत जो अशुचि-रूप हैं तथा क्षेत्रपाल, बेताल आदि इनकी सेवा से क्या होना है ? ये तो हिंसा के घर हैं और दुष्कर्मों के बांधनेवाले हैं। चंडी आदि सब योगिनी मद्यपान और पशुभक्षण करनेवाली हैं; उन्हीं निर्दयो योगिनियों को देवता मानकर निर्लज्ज संशय-विद्ध मन से, उनकी वंदना करता है। गौ श्रादि तियंच जीवों के भङ्गों को सुख से नमस्कार करता है जिनसे पाप का प्रसंग होने वाला है। बड़, पीपल, जामुन, नीम ऊमर, देहली, दूब, जल, जलचर तथा कंजिनी आदि
। देउ परिक्खिउ पुरणहं कारणु । अपरिवखिउ दुग्गइ-विस्थारणु । १, १,' २ दिन-मित्थत्त-सहावारूढउ । तहो परिक्ख अमुकतउ मूढउ ।
सपल वि देव सहावे मंतइ । एकहि कहिं मिण चित्तु णिवत्तइ । सम्वहि वहिं विगुहु पसंसह । पच्छा ताई मि पाहिं फंसह । अट्टहिं मुत्तिहिं ईसरु भावइ । तक्खणि ताहं मि अविणउ दावई । वियह णवइ सूबरु तिमि मारह । तहो मुत्तिउ पाविड़ ण विवारइ ।