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भास्कर
[भाग २
- इस प्रकार मिथ्या देवों का निराकरण करके संधि के शेष भाग में सच्चे देव का निर्णय किया गया है। जिसके क्रोध, लोभ, मद, आलस्य, जरा, भय, विस्मय आदि दोष नहीं, जिसके न गले में मुंडमाला है, न कर में कपाल है ; न कंठ में वासुकि है, न सिर पर गंगा है, न त्रिशुल है, न खट्वांग हैं, न धनुष है, न अर्धनारी-रूप शरीर है, जिसके न लीलाविलास है, न स्वयं गाता है, न नाचता है और न रोष-तोष उपजाता है, न सन्तुष्ट होकर आधे क्षण में राज्य देता और न रुष्ट होकर पकड़ता और मारता; जो केवल जीवों की दया तथा अपने और पराये हित में मग्न है, वही देव नमस्कार करने योग्य है। दूसरे देवों के साथ देख परख कर यही वीतराग कहा जा सकता है।
दूसरी सन्धि से नवमी सन्धि तक कवि ने क्रमशः जल, सुगन्ध, अक्षत, पुष्प, नेवेद्य, दीप, धूप और फल इन अष्ट द्रव्यों द्वारा देव-पूजा करने का माहात्म्य बतलाया है, और प्रत्येक के फल के उदाहरणस्वरूप एक एक कथा दी है। तदनुसार इन सन्धियों का
जो गोविहिं णामेहि वि तक्किउ.। सो पुरिसुत्त कह जणि कोक्किउ । गोविहि दंसणि जो वियलिय-मणु । परिभमेइ तहो कहिं देवत्तणु। जो गोत्तम कलत्त-विभियमइ । सहसणयणु संजायउ सुरवइ । चंदु विहप्पइ-भज्जासत्तउ । भणिवि कलंकिउ जणि वि गुत्तउ । देव वि पुणु जइ मणुयायारिहिं । वत्तहिं पिय-सुय-मोहुग्गारिहिं । देव वि जइ कोहाउर कामिय । भवि भर्मति दुकम्मोहामिय। . ता मणुवहं देवहं वि ण अंतरु । दोसइ पुराणहेउ काई मिथिरु। . पावयम्मु जे सई उप्पायहिं । पुण्णकम्मि किह ते परु लायहिं। .
ताहं ण वीयराय-गुणु दोसइ । संसउ जाहं चित्ति णिरु विलसइ । ५ जस्स कोहो ण लोहो ण माहो मओ । णालसो णो जरा णो पिहा विभवो ।
मुंडमाला गले णो कवालं करे । बासुई णस्थि कण्ठे ण गंगा सिरे । णो तिसूलं ण खड्गयं णो धणू । अद्धणारी णरा दोसए णो तणू। जो ण लीला-विलासो सयं गायए। णच्चए रोसतोसं समुप्पायए । देइ रज्जं खणखें ण संतुट्टओ । गिण्हए मारए जो पुणो रुटुनो।
x x x x x x x x . धत्ता-जीव-दयासत्तउ, स-पर-हियत्तउ, सो पुणु देउ णमिज्जइ ।
इबरेहि परिक्खिउ, देवेहि लक्खिड़ वीयराउ पणिज्जइ ॥१२॥