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प्रशस्ति-संग्रह
चार्य स्पष्ट लिखा हुआ है। बल्कि पं० सुबय्य जी का यह कथन-Catalogue of Sanskrit and Prakrita Manuscripts in the Central Provinces and Berar by R. B. Hira Lal B. A. Appendix (B.) से भी प्रमाणित हो जाता है, फिर भी जैनइतिहावान्वेषी इस ओर विशेष ध्यान देंगे। जैन सिद्धान्त-भवन की इस प्रति के अत्यन्त अशुद्ध होने के कारण इसके साहित्यिक विवेचन पर विशेष प्रकाश नहीं डाला जा सकता। तो भी यह कहना ही पड़ेगा कि इसका संस्कृत सरल एवं प्रशस्त है।
की एक दूसरी प्रति भी 'भवन' में है जिसकी वर्तमान ग्रन्थ प्रतिलिपिमात्र है। वस्तुतः दोनों प्रतियां अशुद्ध हैं। पहली प्रति की नकल कन्नडप्रति से उल्लिखित मूडविदिनिवासी बामन भट्ट के पुत्र लक्ष्मण भट्ट ने की है।
(२) ग्रन्थ नं. १६४ . चन्द्रप्रभचरित-व्याख्यानम् (का० ना०)
_ अपर नाम-विद्वन्मनोवल्लभ
रचयिता
विषय-काव्य भाषा-संस्कृत चौडाई-८॥ इञ्च
लम्बाई-१३॥ इञ्च
पत्रसंख्या-३०६
मङ्गलाचरण बन्देऽहं सहजानन्दकन्दलीकन्दबन्धुरम् । चन्द्राङ्क चन्द्रसंकाशं चन्द्रनाथं स्मराम्यहम् ॥१॥ चन्द्रप्रभारंधीरस्य काव्यं व्याख्यायते मया ।
विश्वमन्वयरूपेण स्पष्टसंस्कृतभाषया ॥२॥ मध्य-भाग-(पूर्व पृष्ठ ६६, श्लोकटीका १२)
गुरुवंशमिति। अथ प्रस्थानानन्तरे। गजेन्द्रगामी गजेन्द्र इव गच्छतीत्येवं शीलः मन्दगामीत्यर्थः। स कुमारः। गुरुवंशम् गुरवः महान्तः वंशाः वेणवः यस्मिन् तं पक्षे गुरुर्महान्