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कविवर श्रीजिनसेनाचार्य और पार्वाभ्युदय
(ले-त्रिपाठी भैरव दयालु शास्त्री, बी० ए०, साहित्योपाध्याय)
- (गतांक से आगे) इस चरण से यह व्यक्त होता है कि कालिदास का यक्ष मदनाग्नि से इस प्रकार व्यथित है कि उसे चेतन अचेतन का ज्ञान तनिक भी नहीं रह गया है। परन्तु, यहां
___ “योगिस्तस्मिन् जलदसमये प्रस्खले त्मधैर्य्यात् ।
कामार्ता हि प्रकृतिकृपणाश्चेतनाचेतनेषु ॥” जिनसेन जी की निराली चतुरता चमक रही है। जो 'कामाती' विशेषण मेघदूत में यक्ष की प्रकृष्ट कामिता का प्रद्योतक है, वही विशेषण यहाँ योगी पार्श्वनाथ जी को दिया गया है। किन्तु योगी काम से पीड़ित नहीं, बल्कि अपने काक्षित लक्ष्य की ओर व्यग्र भाव से दौड़नेवाला बताया गया है। इस प्रकार अपने तीर्थङ्कर के 'कामार्ता' इस विशेषण से उत्कृष्ट गुण को दिखा कर जिनसेन जी ने अपनी धर्मप्रियता का उज्ज्वल परिचय दिया है। गौर से देखिये, क्रोधाभिभूत, खून को प्यासा शत्रु यक्ष योगी की तपस्या से किस प्रकार प्रभावित होता है और अपने शिकार को "योगिन्" ऐसे शब्द से सम्बोधित करता है।
थोड़ा आगे बढ़कर देखने से जिनसेन जी की निपुणता का और भी पता चलता है। वहाँ तो कालिदास का यक्ष मेघ का अपना छोटा भाई कल्पित कर भ्रातृजाया यानी अपनी • पत्नी को देखने का अधिकारी बनाता है। परन्तु यहाँ जिनसेन जी के यक्ष की कल्पना नहीं
करनी है। योगी तो उसका छोटा भाई है ही। इसलिये भ्रातृजोया के दर्शन का अधिकार उसे स्वतः प्राप्त है। कालिदास ने मेघ के सम्बन्ध में जो जो बातें कही हैं, उन का समावेश करने के लिये जिनसेन जी ने मेघ की कल्पना कर ली है। मेघ को ऊपर जाने की शक्ति रहती है, इसलिये अलकापुरी का जाना उसके लिये सुगम था। जिनसेन का दूत भातिक शरीर छोड़ कर ऊर्ध्वगति प्राप्त करता है, और इस प्रकार अलकापुरी जाने में समर्थ बताया गया हैं। यों अनेकों कल्पनायें कर जिनसेनाचार्य ने अपना रास्ता सुगम बनाया है। __"उपमा कालिदासस्य" यह उक्ति जगत्-प्रसिद्ध है। अब देखना चाहिये कि हमारे कवि ने उन उपमाओं को लेकर कैसी रचना की है।
___ "येन श्यामं वपुरतितरां कान्तिमापत्स्यते ते।
बर्हेणेव स्फुरितरुचिना गोपवेषस्य विष्णोः ॥" कालिदास की उपमा तो उपमा ही है, पर हमारा कवि भी पीछे नहीं पड़ा है। वहाँ तो