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इतिहास का जैन ग्रन्थों के मंगलाचरण और प्रशस्तियों से घनिष्ठ सम्बन्ध
(ले० — श्रीयुत पं० हरनाथ द्विवेदी, काव्य - पुराण - तीर्थ )
बहुतों की धारणा है कि पुराण और इतिहास एक ही पदार्थ है । प्राचीन काल में तो ये दोनों अवश्य ही एक थे, क्योंकि पुराणों के सिवा कोई इतिहास ग्रन्थ अलग उपलब्ध नहीं होता । वास्तव में पुराण और इतिहास के उद्देशों में भेद है । यह बात प्राचीन ग्रन्थों में स्पष्ट लिखी भी है। क्योंकि इतिहास की व्युत्पत्ति यों है— इति ह पुरावृत्तं आस्ते अस्मिन् इतिह-आस्-धञ् । पुरावृत्तकथा ही इतिहास है । इसे बल्कि अष्टादश शास्त्र के अन्तर्गत मानते हैं । क्योंकि यजुर्वेदीय शतपथ ब्राह्मण में लिखा है : – “ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वाङ्गीरस इतिहास: पुराणं विद्या सूखायमनुव्याख्यानानि" ।
इतिहास संसार के समस्त. वस्तुपरिवर्तन का उपाख्यान है । कीटपतङ्ग — यहाँतक कि जड़चेतन का भी इतिहास रहता है । हो, इस समय वह पुराणों में ही गंगा-यमुना के संगम की तरह स्वरूप का दर्शन किम्वा पुराणों से उसका ठीक ठीक उद्धार असम्भव हो गया है ।
इतिहास सब देशों का है । पर हमारे देश का नहीं है, यह बात सर्वथा आदरणीय नहीं । स्मरणातीतकाल से पृथ्वीपर जो देश सभ्य माना गया है, उस देश का इतिहास, उसी समय के अनुसार हो सकता, न कि सभ्यताभिमानी देशों की तरह शृङ्खलाबद्ध तिथि- मिति नक्षत सम्वत् के लेखों से सुसज्जित । बल्कि यह बात विचारशीलों से अज्ञात नहीं है । कुछ लोगों की धारणा है कि जितने समय का इतिहास श्रज्ञात है, उतने समय तक हम असभ्य थे । पर यह मन्तव्य भारतवर्ष के लिये प्रमाणभूत नहीं हो सकता । बात यह थी कि प्राचीन समय में जैसी रीति, नीति और श्रावश्यकता थी तदनुसार ग्रन्थों में बातें कहीं विस्तार से और कहीं संक्षेप से लिखी गयी है ! परन्तु वे अब इस समय के विचार से लोगों को अनावश्यक जान पड़ती हैं । की आवश्यकता दूसरे ढंग की है। नहीं ।
भला इस दशा में दूसरे देशवाले क्यों कर इसके समर्थक हो सकते हैं ?
यों तो जर्मन पुरातत्त्ववेत्ता हरनीस ने ग्रीस को विश्वसभ्यता का स्रष्टा मानते हुए यह समझा कि, सिकन्दर के आक्रमण के बाद भारतीय सभ्यता की जो वृद्धि हुई, उसका अंग अंग ग्रीस का ऋणी है। संक्षेप में यह कि, आज हम भारत में जो कुछ देख रहे हैं, वह मीस का दिया हुआ है । परन्तु
केवल मनुष्य ही तक नहीं पशुपक्षी, इतिहास का चाहे जो अर्थ या उद्देश
मिल गया है। उसके असली
अब समय सञ्चार
इसी हमारे देश के ही महानुभावों को प्राचीन लेख-शैली पसन्द