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श्रीपूज्यपाद-कृत
वैद्य-सार (अनुवादक-पण्डित सत्यन्धर जैन, आयुर्वेदाचार्य, काव्यतीर्थ)
(गतांक से आगे) २०--नवज्वरे करुणाकररसः रसगंधकं भागैकं तथा च लौहटंकणं। मनःशिला मयस्कांतं नाग गगनमेव च ॥१॥ सवंगशुल्वसंयुक्तां कृत्वा कजलिकां बुधैः। लौहपाने पचेत् सम्यक् यावदरुणवर्णता ॥२॥ करुणाकररसो नाम नवज्वरनिवारणः । निमित्तदोषदोषेभ्यश्चानुपानं प्रयोजयेत् ॥३॥ पूज्यपादकृतो योगः नराणां हितकारकः।
सर्वरोगसमूहनो कथितो विज्ञसंम्मतः ॥४॥ टीका-शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, लौहभस्म, कच्चा सुहागा, शुद्ध मैनशिल, कान्तलौहभस्म, शीसाभस्म, अभ्रकभस्म, वंगभस्म और ताम्रभस्म ये सब बराबर बराबर लेकर कजली बनावे और लोहे की कड़ाही में डालकर पकावे, जब पकते पकते लाल वर्ण हो जाय तब तैयार समझे। यह करुणाकर नाम का रस नवीनज्वर को नाश करनेवाला है। इसको ज्वर, तथा वात, पित्त, कफ दोषों के अनुसार अनुपान भेद से सेवन करना चाहिये। यह पूज्यपाद स्वामी का कहा हुआ योग मनुष्यों का हित एवं संपूर्ण रोगों को नाश करनेवाला विद्वानों द्वारा मान्य कहा गया है।
२१-श्रामादौ मेघनादरसः हिंगुलं टंकणं व्योष सैधवं निवृतानि च। दन्ती:हिंगुविडंगं च दीप्ययुग्मं समांशकम् ॥१॥ तच्चूर्णसमभागं च जैपालफलमिश्रितः। मर्दयेत्खल्वमध्ये तु जंबीररसभावितः ॥२॥