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किरण २]
संस्कृत में दूतकाव्य साहित्य का निकास और विकास
भी कई बार हो चुका है। (J.A.S.B., 1905, Vol. I, pp. 43-5, & Intro. to my edition of Pavanduta, pp. 19-26). वेदान्तदेशिक के हंससंदेश में माल्यवत पर्वत से लङ्का तक के मार्ग का परिचय खूब कराया गया है। लक्ष्मीदास के शुकसंदेश में रामेश्वरम् और गुणपुर के मध्यवर्ती नगरों, ग्रामों, मंदिरों आदि का मनोरंजक वर्णन है। इसी तरह मेघदूतसमस्यालेख में औरंगाबाद से द्वीपपुरी (दीव-वन्दर; गुजरात) तक के रास्ते का बड़ा ही सूक्ष्म परंतु विशद विवरण मिलता है। विनयविजयगणि के 'इन्दुदूत' में योद्धापुर (जोधपुर) से सूरत तक का मार्ग बताया गया है। इन अन्तिम दो जैनकायों के वर्णन का महत्त्व मार्ग में के अगणित जैनमंदिरों और तीर्थस्थानों के उल्लेखों के कारण बहुत बढ़ गया है। किन्तु आश्चर्य है कि बङ्गाली कवियों द्वारा लिखे हुए कृष्णसम्बन्धी दूतकाव्यों में इस विषय का कुछ भी वर्णन नहीं है। उनके ग्रंथों में वृन्दावन वा मथुरा का कुछ भी भौगोलिक वर्णन नहीं लिखा है।
नोट-यह महत्वशाली साहित्यिक लेख मूल में अंग्रेजो के प्रसिद्धपत्र "दी इन्डियन हिस्टॉरीकल क्वाटली" (भाग ३ अंक २ पृष्ठ २७३-२६७) में प्रकट हुआ है। उसी का यह हिन्दी अनुवाद पाठकों के लाभार्थ सधन्यवाद उपस्थित है। सचमुच कवि कालिदास जी के 'मेघदूत' आदर्श ने भारत में एक स्वतंत्र दूतकाव्य साहित्य की सृष्टि करा दी है, जिसका महत्व उपर्युक्त लेख से प्रकट है। हिन्दी-भाषा में भी ऐसे काव्यों का प्रभाव नहीं है। ढूंढ़ने से उसमें इस टायप की मौलिक रचनायें भी मिल जायगी-वैसे कालिदासजी के मेघदूत का पद्यमय अनुवाद तो हो ही चुका है। जैनकवियों ने भी इस साहित्य को उन्नत बनाने में बहुत कुछ कार्य किया है, यह हमारे लिये गौरव की बात है। अयसागर उपाध्याय की 'विज्ञप्तित्रिवेणी.' भी एक विज्ञप्तिपत्ररूप का काव्य है, जिसे सिन्धदेश के मलकवाहण स्थान से अणहिलपुरपाटन को लिखा गया था। इसमें भी भौगोलिक वर्णन अच्छा हैं परन्तु यह शायद 'दूतकाव्य' के ढंग का नहीं है।
-सं.