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[ भाग २
धम्मोपस-चूड़ामणिक्खु तह फाण-पईड जि माणसिक्खु । छकम्मुष सहु पबंध किय ग्रह संख सई सञ्चसंध । सक्कय- पाइय कव्वय घणाई अवराई किय रंजिय-जणा हूँ । पई गुरुकुल तायहो कुलु पवित्तु सुकइन्हें सासउ कि महंतु । कयण - वयणाम जेपियंति अजरामर होइन ते गियंति । जिह राम-पमुह सुर्याकितिवंत कइमुह-सुहाइ पेच्छाहं जियंत । कर तुट्ठउ अप्पाप समणु अक्खयतणु करह पसिद्धिगण । घत्ता- -मंतासहि-देवहं, किय-चिरसेवहं, धुउ पहाउ णहु सीसौं । परकाय-पवेसर, किय-सासयतणु तिह जिह कहहिं पदीसह ॥७॥ माहासहि पणिय सम्मइ अइकारुण्णें गिहि छकम्मरं । जाई करत भविय संचइ दि िदिणि सुहु दुक्कयहिं विमुञ्चर । तेहिं विवज्जिउ गरभउ भव्वहं छग्गा-गल धरण - समु गय-गव्वहं । म मूढ़े किं पिण चिंतिउ पुण्णकम्मु इय कम्मु पवित्तर | भव काणि भुलो महु अक्खहि सम्म मग्गु सामिय मा वेक्खहि । मरसूरि तव्वयणाणतरु पयss गिeिsकम्महं वित्थरु ।
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भास्कर
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उन्हीं के साथ साथ षट्कर्मोपदेश* इस प्रकार आठ प्रबन्ध, हे सत्यसंध, आपने रच डाले । संस्कृतप्राकृत के और भी बहुत से काव्य आपने बनाये जिनसे लोगों का मनोरञ्जन होता है । आपने अपने सुकवित्व द्वारा गुरुकुल और तातकुल दोनों कुलों को पवित्र, शाश्वत और महान बना दिया है । कविजनों के वचनरूपी अमृत को जो पी लेते हैं वे अजर अमर हो कर (सब कुछ) देखते हैं । जैसे राम आदि प्रसिद्धकीर्तिं महापुरुष कवि के मुख की महिमा से जीते हुए दिखते हैं । यदि कवि प्रसन्न हो जाय तो अपने को और दूसरे को समानरूप से अक्षयतन और सुप्रसिद्ध कर सकता है। यंत्र, औषधि व देवों की चिरकाल तक सेवा करने पर भी शिष्य को परकाय- प्रवेश करने व अमरशरीर होने का वह प्रभाव नहीं मिला जो एक कवि की सेवा करने में प्रत्यक्ष दिखाई देता है ॥७॥
अब दया करके आप मुझे गृहस्थ के छह कर्मों का उपदेश दीजिये जिनके पालने से भव्य प्राणी प्रतिदिन पुण्य का संचय करता और पापों से छूटता है । इनके बिना निरहंकार भव्य प्राणियों का नरजन्म अजागलस्तन के समान निष्फल है। मैं बुद्धिहीन ने अभीतक पुण्य और पवित्र कर्म कुछ भी नहीं सोचा । अतएव इस भव-कानन में भूले हुए को सन्मार्ग का उपदेश दीजिये। हे स्वामी ! अब विलम्ब न कीजिये ।"
उनके ऐसे वचन सुनकर अमरसूरि ने तत्काल ही षट्कर्मों का विस्तारपूर्वक विवेचन करना
*यहां प्रस्तुत ग्रन्थ का उल्लेख करना उचित नहीं था क्योंकि इसके ने धागे चलकर की है। किन्तु कवि इस सयय तक अपने बनाये हुए आवेग में इस प्रसंग को भूल कर कदाचित् यहाँ यह लिख गये ।
रचने की प्रार्थना तो भम्बाप्रसाद कुल ग्रन्थों का उल्लेख करने के