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भास्कर
[भाग २
किसी राजो को प्रसन्न करने का उल्लेख नहीं पाया जाता, किन्तु वे गिस राजा के समय में हुए हैं वह उज्जैनी का राजा मंज बड़ा गुणग्राही और साहित्य-प्रेमी था। आश्चर्य नहीं वे ही अमितगति के काव्यों, विशेषतः उनके सुभाषितों की गंध पाकर प्रसन्न हुए हों। भमितगति सच्चे दिगम्बर मुनि थे। वे राज-महाराजाओं को कृपाकटाक्ष के भूखे नहीं थे
और न उनके रुष्ट-तुष्ट होने का उन्हें कोई हर्ष-विषाद था। इसीसे उन्होंने मुंज की उस प्रसन्नता का अपने काव्यों में उल्लेख करने की परवाह नहीं की। इन अमितगति ने भी अपने को माथुरसंघी कहा है। इससे अमरकीर्ति की गुरुपरम्परा वाले 'अमियगई और इनके अभिन्न होने में कोई शंका नहीं रहती। अमितगति आचार्य के ग्रन्थों में उनका समय वि० सं० १०५० से १०७३ तक पाया जाता है। उनसे पौने दो सौ वर्ष पश्चात् पांचवी पीढ़ी में अमरकीर्ति हुए। इस तरह इन दोनों के समय का भी सामञ्जस्य बैठ जाता है। पूर्वोक्त परम्परा के शान्तिसेनगणी के सम्बन्ध में कवि ने कहा है कि महीश भी उनके चरण-कमलों को नमन करते थे, श्रीषेण सूरि वादिरूपी बन के लिये अग्नि ही थे, और उसी तरह चन्द्रकीर्ति वादिरूपी हस्तियों के लिये सिंह थे। इससे जान पड़ता है कि इस परम्परा में बड़े विद्वान् मुनि होते रहे हैं। (माथुरसंघ काष्ठासंघ की एक शाखा थी। इसके सम्बन्ध में मैं एक स्वतन्त्र लेख लिख रहा हूँ।) ___ अमरकीर्ति जी को वर्तमान ग्रन्थ की रचना के लिये प्ररित करनेवाले सद्गृहस्थ का नाम अम्बाप्रसाद था। वे नागरकुल में उत्पन्न हुए थे और उनके माता-पिता के नाम क्रमशः चर्चिणी और गुणपाल थे। यह ग्रन्थ उन्हीं को समर्पित किया गया है। प्रत्येक संधि के समाप्ति-सूचक वाक्य में उनका नाम स्मरण किया गया है। इस काज्य को कवि ने उनकी अनुमति से बनाया ऐसा कहा गया है। कहीं कहीं इन्हीं अम्बाप्रसाद को कवि ने अपना: लघुबन्धु' और 'अनुज बन्धु' कहा है जिससे अनुमान होता है कि हमारे कवि भी इसी कुल में उत्पन्न हुए थे और अम्बाप्रसाद के बड़े भाई थे। अपनी गुरुपरम्परा में अमरकीर्ति ने अपने को चन्द्रकीर्ति मुनि के 'अनुज सहोदर' और शिष्य कहा है, इससे उनके ये गुरु भी सगे बड़े भाई सिद्ध होते हैं।
इस ग्रन्थ की रचना कवि ने 'गुजर' विषय के मध्य 'महीयड' देश के 'गोदहय' नामक नगर के श्रादीश्वर चैत्यालय में बैठकर की थी। स्पष्टतः गुर्जर विषय गुजरात प्रान्त का १ अमितगति आचार्य के विषय में विशेष जानने के लिये देखो पं० नाथूराम-कृत 'विद्वदूरत्नमाला
पृष्ट ११५ आदि। २ देखो परिशिष्ट २ (१४, १८, १६ णंदउ अंबपसाउ वियक्खणु । अमरसूरि-लहुबंधु सुलक्खणु) ३ देखो परिशिष्ट १ (१, ६, १० बंधवेण अणुजायई......अंबपसायई) ४ देखो परिशिष्ट १ (१, ४, ४ आदि)