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किरण २ ]
प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार की समीक्षा
इसमें पूर्वचर उत्तरचर हेतुओं का स्वभाव, कार्य, कारण हेतुओं में अन्तर्भाव नहीं हो सकता है इसलिये इनको स्वतंत्र स्वीकार करना चाहिये, इस बात का समर्थन किया गया है। सूत्र नं० ७२, ७३, ७४, ७५ में इसी की पुष्टि की गयी है। सूत्र नं० ७६ इस प्रकार है
सहचारिणोः परस्परस्वरूपत्यागेन तादात्म्यानुपपत्तेः, सहोत्पादेन तदुत्पत्तिविपत्तेश्व, सहचरहेतोरपि प्रोक्तषु नानुप्रवेशः ॥७६-३॥ ___ इस सूत्र में “सहचरहेतोरपि प्रोक्तषु नानुप्रवेशः" इतना अंश बिल्कुल निरर्थक ही है, कारण कि जिस प्रकार सूत्र नं. ७१ में “पूर्वचरोत्तरचरयोः स्वभावकार्यकारणेषु नानुप्रवेशः” इसका अनुसंधान ग्रन्थकर्ता को बाहिर से करना पड़ता है, उसी प्रकार यहां पर भी किया जा सकता है। यह बात नहीं है, कि सूत्र नं० ७१ में इस पद का अनुसंधान ही न करेंगे, कारण कि इस पद का अनुसंधान नहीं करने से सूत्र नं०७१ का इतना ही अर्थ होता है कि "पूर्वचर और उत्तरचर में स्वभाव अथवा कार्यकारण भाव नहीं है क्योंकि स्वभाव और कार्यकारणभाव काल का व्यवधान होने पर नहीं देखे जाते हैं। लेकिन इतने मात्र अर्थ से आकांक्षा की निवृत्ति नहीं होती, किन्तु "इसलिये पूर्वचर और उत्तरचर हेतुओं का स्वभाव, कार्य, कारण हेतुओं में अन्तर्भाव नहीं हो सकता है" इतना अश उस अर्थ के साथ संबद्ध करने से ही वाक्यार्थ पूरा होता है। इतना अवश्य है कि यह अर्थ तात्पर्य से निकल ही आता है इसलिये इसके बोधक वाक्य का सूत्र में पाठ करने की ज़रूरत नहीं है। इसी प्रकार सूत्र नं० ७६ में भी पूर्वोक्त अंशके पाठ करने की भावश्यकता नहीं है। ___ यहां पर "प्रोक्तषु" पद असंबद्ध भी है। यह पद पहिले कहे हुए का अनुसंधापक होता है। यहां पर इस पद से "स्वभावकार्यकारणेषु" इस पद का अनुसंधान अभीष्ट है। टीकाकार ने रत्नाकरावतारिका में यही अर्थ "प्रोक्तेषु" पद का किया भी है, लेकिन इस सूत्र के पहिले किसी भी सूत्र में "स्वभावकार्यकारणेषु" यह पद नहीं पढ़ा गया है जिससे कि "प्रोक्तेषु" पद से उसका अनुसंधान किया जा सके। इसलिये “सहचरहेतोरपि प्रोक्तेषु नानुप्रवेशः' इस अंश को पृथक् करने से ही सूत्र संगत हो सकता है। यह आवश्यक है कि इस अंश के निकल जाने से सूत्र में “सहचारिणोः" पद के आगे अपि शब्द अपेक्षित हो जाता है जो कि सूत्र नं० ७१ में कहे हुए “न स्वभावकार्यकारणभावौ” इस पद का दोनों सूत्रों में अन्वित होने का बोध कराता है, इस तरह से सूत्र का स्वरूप निम्न प्रकार हो जाता हैं। ___सहचारिणोरपि परस्परस्वरूपपरित्यागेन तादात्म्यानुपपत्तेः सहोत्पादेन तदुत्पत्तिविपत्तश्च ॥७६-३॥