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संस्कृत में दूतकाव्य साहित्य का निकास
_ और विकास (ले०-श्रीयुत चिन्ताहरण चक्रवर्ती, एम.ए., काव्यतीर्थ)
संस्कृत साहित्य में 'दूतकाव्यों' अथवा संदेशरूप पद्यों को मुख्य स्थान प्राप्त है। संस्कृत
साहित्य में जो गीत-पद्य (Lyric Poetry) का एक अभाव सा है उसकी पूर्ति इन दूतकाव्यों एवं पञ्चकों, अष्टकों, दशकों और शतकों से हो जाती है। किन्तु इन सब में दूतकाव्य ही विशेष मूल्यमयी रचनायें हैं। इनमें कविता भी उच्च आदर्श को लिये हुये हैं और वह प्रेमियों के विरह-व्यथा वर्णन में सरसता को प्रकट करती है। साथ ही उनका, महत्व प्राचीन अथवा मध्यकालीन भारत के किसी भाग के भौगोलिक वर्णन परिपूर्ण होने के कारण और भी बड़ा हुआ है। अतः इन पद्यों के निकास और विकास सम्बन्ध में विचार करना असंगत न होगा।
अनेक विद्वानों ने अपने ज्ञान में आये हुए 'दूतकाव्यों' को सूचियां प्रकट की हैं। हिज हाईनेस महाराज रविवर्म ने मालाबार में विकसित छह दूत काव्यों का उल्लेख किया है। उधर
ऑफट सा० इनसे भिन्न अन्य दश काव्य बतलाते हैं। मनमोहन चक्रवर्ती इत दोनों को मिला कर अपनी लिस्ट में सोलह दूतकाव्यों की गणना करते हैं। किन्तु मैंने अविकल परिश्रम के फलरूप ऐसे पचास.काव्यों का पता लगा लिया हैजिनका विवेचन मैं यहां करूंगा। तो भी इनके अतिरिक्त कुछ और दूतकाव्य हैं, जिनका पता अभीतक नहीं लग पाया है।
उपलब्ध दूतकाव्यों का विवेचन । दूतकाव्य साहित्य के संभव निकास और विकास के प्रश्न पर विचार करने के पहले इस साहित्य का सामान्य अवलोकन कर लेना उचित है। यहां हम उनका उल्लेख अकारादि क्रम से करेंगे । समयापेक्षा उल्लेख करना इस समय अशक्य है। क्योंकि सबही काव्यों का रचनाकाल उपलब्ध नहीं है । छंद भी विशेषतः 'मन्दक्रान्ता' व्यवहृत हुआ है।
(१) इन्दुदूतम् —की रचना लोक प्रकाश, कल्प सुबोधिका और हैमलघुप्रक्रिया (वि० सं० १७१०) के कर्ता विनयविजयगणि द्वारा हुई है। इसमें कुल १३१ श्लोक हैं ; जिनमें यह जैनकवि गोधापुर (जोधपुर) से चन्द्रमा को अपना दूत बनाकर सूरत में अवस्थित अपने गुरु के पास अपने समुचित चारितपालन का संदेशा देकर भेजता है। जोधपुर से सूरत तक बीच में आये हुये जैन मंदिरों और तीर्थों का वर्णन भी इसमें खूब आया है। १। जर्नल रायल एशियाटिक सोसाइटी, १८८४, पृ० ४०१... २। Z. D. M G. vol. 54, p.616. ३। जर्नल बंगाल एशियाटिक सोसाइटी, १६०५, पृ० ४२। ४ । काव्यमाला गुच्छ १४ पृ० ४०-६० । ५। बेलवेल्कर-Systems of Sanskrit Grammar, p. 79.