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भास्कर
[ भाग २
स्थित राजगृह तीर्थ के विपुलगिरि पर आचार्य श्रीजिनचन्द्र सूरि के उपदेश से बच्छराज देवराज ने श्रीपार्श्वनाथ का मंदिर सं० १४१२ आषाढ वदी ६ को बनवाया ।
सम्राट अकबर की धामिक उदारता प्रसिद्ध है । जहाँगीर, शाहजहाँ आदि बादशाहों' के समय में भी जैनियों को धामिक विषयों में सहायता मिली थी। उनके पवित्र तीर्थक्षेत्रों के संरक्षण के लिये समय समय पर गुजरात, मालवा, बंगाल आदि प्रान्त के सूबों में लोगों से फरमाण आदि भी प्राप्त किये थे ।
जैनियों में श्वेताम्बर और दिगम्बर दो मुख्य सम्प्रदाय हैं। मैं दिगम्बर- साहित्य से विशेष परिचित नहीं हूँ । श्वेताम्बर - साहित्य के इतिहास को मैंने जहां तक अवलोकन किया है, उससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्वेताम्बर आचार्य और विद्वानों ने प्राचीन काल से जैन विद्वानों की कृतियों को निःसंकोच से अपनाया था । उनका अभ्यास करते थे, उन पर पाण्डित्यपूर्ण टीकायें रची हैं, उनके साहित्य को बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते थे । यही धार्मिक उदारता है ।
जैनियों के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सिद्धसेन दिवाकर,* उमास्वति वाचक* हरिभद्र अभयदेव से लेकर हेमचन्द्राचार्य आदि तथा दिगम्बर सम्प्रदाय में कुंककुंदाचार्य, समंतभद्र, कलंकदेव, प्रभाचंद्र, विद्यानंदि, जिनसेन आदि बड़े बड़े प्रख्यात विद्वान हो गये हैं जिनकी कृतियों की पाश्चात्य विद्वानगण भी भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं। परन्तु सनातन-धर्मालम्बी पण्डित ने उन्हें कहीं अपनाया हो ऐसा देखने में नहीं आता यहां तक कि वे महत्व - पूर्ण जैनग्रन्थों के नामोल्लेख करने में भी हिचकते थे । यह अनुदार भाव उन लोगों की धार्मिक संकीर्णता है। अजैन विद्वानों के नाना विषय के ग्रन्थों को श्वेताम्बर लोगों किस प्रकार अपनाया है इसका कुछ दृष्टांत मैं यहां उपस्थित करूंगा । आशा है कि दिगम्बर विद्वानगण भी इस प्रकार धार्मिक उदारता को प्रकाशित करेंगे ।
हाल ही में अमेरिका के पेन्सिलवेनिया विश्वविद्यालय के संस्कृताध्यापक डा० नरमैन ब्राउन साहब ने 'कालिकाचार्यकथा'' नामक अङ्गरेजी में पुस्तक प्रकाशित की है, जिसकी भूमिका पृ० ४ में जैनाचार्यों के विषय में इस प्रकार लिखते हैं।
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"It is perhaps permissible to record here my appreciation not merely of the courtesy and scholarship of Jain monks and laymen
ये तथा आगे के भी दो एक श्राचार्य दिगम्बर-सम्प्रदाय में भी मान्य हैं—–सम्पादक ।
(1) The story of 'Kalaka' by W. Norman Brown, Prof. of Sans. in the university of Pensylvania, Washington U. S. A. 1933, Preface P. IV...