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धाम्मिक-उदारता
(ले० बाबू पूरणचंद जी नाहर एम० ए० बी० एल० )
संसार में धर्म ही एक ऐसी वस्तु है कि जिसकी सृष्टि सब धर्मवाले अलौकिक बताते हैं। कोई इसको अनादि कहते हैं, कोई स्वयं ईश्वर का वचन अथवा कोई ईश्वरतुल्य अवतार के कहे हुए उपदेश और नियमादि के पालन को ही धर्म कहते हैं। चतुर्दश रज्ज्वात्मक जीवलोक में जितने भी जीव हैं सुखप्राप्ति के लिये सब लालायित रहते हैं। जीव को मुक्ति अर्थात् निर्वाण के अतिरिक्त जितने प्रकार के सुख हैं सब सामयिक तथा निर्दिष्टकाल और परिमाण के होते हैं। 'धर्म' शब्द के अर्थ को देखिये तो यही ज्ञात होगा कि यह ऐसी वस्तु है कि जो जीव को दुःख में पड़ते हुए से बचावे । जो अपने को कष्ट से बचावे और सुख की प्राप्ति करावे ऐसी वस्तु को कौन नहीं चाहता ? सारांश यह है कि किसी न किसी प्रकार का 'धर्म' मनुष्यमान को चाहिये। चाहे उनका धर्म सनातन हो, चाहे जैन, चाहे बौद्ध, चाहे ईसाई हो, चाहे वे मुसलमान हों, चाहे नास्तिक हों, उनको किसी न किसी धर्म की अथवा किसी महापुरुष के चलाये हुए मतं की दुहाई देनी पड़ती है। जिस प्रकार समाज में चाहे वह गरीब हो चाहे सेठ साहूकार अथवा राजा महाराजा हो सामाजिक दृष्टि से सबों को दर्जा एक है, उनमें कोई बड़ा छोटा नहीं समझा जाता उसी प्रकार धार्मिक दृष्टि से भी एक ही धर्म के पालनेवाले सबलोगों की गणना एक ही श्रेणी में होती है। परन्तु अपने अपने धर्मवाले उनको धार्मिक दृष्टिकोण से दूसरे धर्मानुयायियों को घृणा के भाव से देखते हैं। इतिहास कहता है कि धर्म के नाम पर मुसलमान लोगों ने कई बार संग्राम छेड़ दिया था। मैं कुरान शरीफ से परिचित नहीं हूँ परन्तु सम्भव है उनके धर्म-प्रवर्तक महम्मद साहब का ऐसा उपदेश न होगा। दूसरों के धर्मका नाश करके अपने धर्म का प्रचार करना दूसरी बात है, परन्तु मनुष्य होकर इस प्रकार दूसरे मनुष्य को कष्ट पहुँचाना धर्म नहीं हो सकता। अपने धर्मानुयायियों की संख्या वृद्धि करने को धर्मसमझना स्वाभाविक है, परन्तु वे लोग इस विवार को कार्यरूप में लाने के समय सीमा के बाहर जाते थे। जैन धर्म के तत्व में अन्य धर्म का अथवा अन्य धर्मावलम्बियों को 'न निंदिजईन बँदिजई' यहाँ तक कि निन्दा करना मना है। धार्मिक विषयों में ऐसी उदारता अवश्य होनी चाहिये। हमारे तीर्थकर जातिनिबिशेष से उपदेश दिया करते थे। जैनियों के धर्मग्रन्थ से स्पष्ट है कि