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३८ ऐसे ही एक तोरण के अंशपर से लिया गया है । इस तोरण पर एक नन साधु चित्रित है जिसकी कलाई पर एक खण्ड वस्त्र लटका हुया' है।
यहाँ से सैकड़ों जैन तीर्थकरों एवं यक्ष-यक्षिणियों की मूर्तियों मिली है। ये मूर्तियां बड़े सादे ढंग से बनाई गई हैं। तीर्थंकरों की मतियां खङ्गासन एवं पद्मासन दोनों प्रकार की मिली है। प्रारम्भिक शताब्दियों की मूर्तियां नग्न हैं। इनमें अधिकांश मूर्तियाँ श्रादिनाथ, अजितनाथ, सुपार्श्वनाथ, शान्तिनाथ, अरिष्टनेमि और वर्धमान की मिली हैं। उस काल में तीर्थकर के चिन्हों-लाञ्छनों का आविष्कार न होने के कारण मूर्तियों में प्राय: एक दूसरे से भेद नहीं है। हाँ, आदिनाथ के केश (जटाएं ) तथा पाय और सुपार्श्व के सर्पफरण इनको पहचानने में सहायता देते हैं। जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ नग्न होने के कारण, वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह होने से और शिर पर उष्णीष न होने कारण इस काल की बौद्ध मूर्तियों से अलग आसानी से पहचानी जा सकती है।
मथुरा से इसो समय की चौमुखी मूतियाँ मिली हैं जो सर्वतोभद्रिका प्रतिमा अर्थात् वह शुभ मूर्ति जो चारों ओर से देखी जा सके, कहलाती थीं। इन प्रतिमात्रों में चारों ओर एक तीर्थकर की मूर्ति बनी होती है। चौमुखी मूर्तियों में आदिनाथ, महावीर और सुपार्श्वनाथ अवश्य होते हैं। ऐसी मूर्तियाँ कुषाण और गुप्त काल में बहुतायत से बनती थीं । ईश्वी सन् ४७५ के लगभग उत्तर भारत पर हणों के भयानक आक्रमणों से मथुरा के स्थापत्य को बड़ा धक्का लगा। अतः ईस्वी ६वीं के पश्चात् मथुरा से जो नमूने हमें मिले हैं वे भोड़े और भई हैं। उनमें पहले की सी सजीवता नहीं है। इसी काल के लगभग बिना कपड़ेवाली मूर्तियों में कपड़े दिखाये जाने लगे, और सर्वप्रथम राजसिंहासन यक्ष यक्षिणी, त्रिछत्र एवं गजेन्द्र श्रादि प्रदर्शित होने लगे जो उत्तर गुप्तकाल
और उसके बाद की जैन मूर्तियों के विशेष लक्षण हैं। इन्हीं के साथ मध्यकाल में मथुरा के शिल्पियों ने यक्ष यक्षिणियों और जैन मातृदात्रों की भी पृथक
-बाबू कामताप्रसाद जैन इसे जैनों के अर्धफालकसम्प्रदाय से संबंधित
बताते है, देखो जैन सि. भास्कर भाग ८ अंक २ पृष्ठ ६३-६६