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die था और गृहनिर्माण की मितव्ययिता के कारण भीतर की ओर केवल ये दीवारें ही बना दी गई थीं। इस कारण भीतर के कुछ हिस्से में ईंट चिनने की जरूरत न रहीं । स्तूप के बाहर की ओर तीर्थकरों की प्रतिमाएँ बनी थीं । यहाँ एक और जैन स्तूप था, उस पर का बहुत छोटा सा लेख मिला है । वह ईसा की तीसरी या चौथी शताब्दी का मालूम होता है ।
इन स्तूपों के अतिरिक्त यहाँ कई प्रयागपट्टे मिले हैं। जिनसे ८ लेख प्रस्तुत संग्रह में संकलित हुए हैं। ये श्रायागपट्ट पत्थर के वे चौकोर पटिये होते हैं जो sant प्रकार के माङ्गलिक चिन्हों से अंकित करके किसी तीर्थकर को चढ़ाये जाते थे । मथुरा के इन प्रयाग पट्टों का जैन कला में विशेष स्थान है । एक श्रायागपट्ट ( जिस पर लेख नं० ७१ उत्कीर्ण है ) पर १ मीन मिथुन, २ देव विमान गृह, ३ श्रीवत्स, ४ वर्धमानक, ५ त्रिरत्न, ६ पुष्पमाला, ७ वैजयन्ती और ८ पूर्णघट येष्ट मांगालिक चिह्न मिले हैं। दूसरे अन्य श्रायागपट्टों पर नंद्यावर्त स्वस्तिक, कमल आदि चिह्न अङ्कित हैं ।
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इन पर उत्कीर्ण लेखों से ज्ञात होता है कि ये मन्दिरों में अर्हन्तों की पूजा के लिए रखे जाते थे । अधिकांश अन्तों की प्रतिमाऐं हैं, कुछ में चरणचिह्न हैं। तीन श्रयागपट्टों पर स्तूपों के चित्र अङ्कित मिले हैं। लेख नं० ८ और १५ वाले श्रायागपट्ट इनमें से ही हैं। लेख नं०८ वाला श्रायागपट्ट ( मथुरा संग्रहालय २ ) अधिक महत्व का है। अनुमान किया जाता है कि उक्त श्रायागपट्ट पर उत्कोर्ण तोरण और वेदिका मण्डित स्तूप मथुरा के विशाल जैन स्तूप की प्रतिकृति है । लेख के अनुसार श्रमणों की श्राविका गणिका लोपशोभिका की पुत्री गणिका वासु ने अपनी माता, पुत्री, पुत्र और अपने समस्त कुटुम्ब के साथ श्रर्हत् का एक मन्दिर एक श्रायागसभा, पानोगृह और एक पाषाणासन बनवाये ।
इसके अतिरिक्त कंकाली टीले से स्तूप को प्रतिकृति और पूजन आदि के महोत्सव को चित्रित करनेवाले कुछ इमारतों के अंश भी मिले हैं। लेख नं०