Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 17
________________ जैन-सस्कृति की विशालता गतियो पर अधिकार नहीं है, वह अपने जीवन मे शुद्र ही बना रह जाता है । आज मनुष्यो की अधिकतर यह प्रवृत्ति देखी जाती है कि वे अपनी ओर लक्ष्य न देकर दूसरो को नियत्रित करने का ज्यादा ख्याल करते है और इसी ने पतन हो रहा है । अगर अपने आप पर नियंत्रण रखने की पहले कोशिश की जाय तो स्वय उसकी प्रवृत्तियाँ जब सन्तुलित हो जाएँगी तो सारे ममाज मे ही स्वयचालित नियत्रण व सन्तुलन होने लगेगा और वह कट्टप्रद नहीं रहेगा । जिसने अपने जीवन पर अधिकार कर लिया, भावना की दृष्टि से उसका जगत पर अधिकार हो जाता है । तो जन-सस्कृति तीन प्रमुख विन्दुप्रो पर आधारित है और वे तीन विन्दु है-श्रम, समता और सद्वृत्ति । श्रमग शब्द का सार इन तीनो विन्दुनो मे है । एक तरह से श्रम सत्य है, समता शिव है और सद्वृत्ति सौन्दर्य है । ये तीनो सीढियाँ जीवन को पूर्ण बनाने वाली सीढियां है और जैन-सस्कृति जो गुणो पर आधारित है, प्रेरणा देना चाहती है कि आपका विकास आपकी मुट्ठी मे है । सकल्प करो, निष्ठा से श्रम-पुरुषार्थ मे जुट जाम्रो । प्रापकी विशाल शक्तियो को प्रकट होने से कोई नहीं रोक सकेगा। उन गक्तियो के प्रकाश में आपको अपनी आत्मा का स्वरूप स्पष्ट दिखाई देगा और तभी आप दूसरी पात्माग्रो मे भी समानता देख सकेगे और एक साम्यवृत्ति जागेगी। सभी के प्रति जागी हुई ममानता की भावना पापको मदेव सवृत्तियो की राह पर बलपूर्वक ले जाएगी और आप अनुभव करेंगे कि श्रम, समता और सवृत्ति की सीढियां आपके जीवन को ऊपर उठाती जा रही है। यह है जैन-सस्कृति की विशिष्टता जिसमे गुणो का ही महत्त्व है । जिममे गुरण है, वह किसी भी अवस्था में हो-गरीब या धनी, साधु या गृहस्थ-पूजनीय है । जिसमे गुण नही, जो जीवन-कला को नहीं जानता, वह यदि साधुवेष भी धारण किये हुए हो तो भी वन्दनीय या पूजनीय नहीं हो सकता । आडम्बर व्यक्ति की कसौटी नहीं, वह कसौटी तो उसके गुणावगुण है । श्रमण शब्द का अर्थ यही है कि श्रममय जीवन यापन

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