Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 101
________________ सर्वोदय - भावना का विस्तार युक्त व्यक्ति ही उत्तम गुणस्थानो का स्पर्श कर सकता है । उसमे जाति का कोई महत्व नही | ऊंच पौर नाच गौत्र कषायो पर ही अवलम्बित है | तीव्र कषाय वाला नीच गोत्रीय है और मन्द कषाय वाला ऊँच गोत्रीय । ६७ अतः जिस प्रकार प्रशुचि के साफ करने से हम माता को घृणित नही समझ लेते, बल्कि उसके प्रति विनम्र और प्रज्ञाकारी होते है, उसी प्रकार हरिजन भी समाज के लिए माता के तुल्य समझे जा सकते है और इनके प्रति भी यथायोग्य समान व्यवहार की श्रावश्यकता है । मेरे कहने का निष्कर्ष यही है कि सर्वोदयवाद के महत्व को समझे और परमात्मा की जय बोलने मे सब प्राणियो के साथ साम्य दृष्टि को अपनाएँ । वैभव और ये शरीर आदि सब नश्वर हैं, एक दिन नष्ट हो जायेंगे और साथ रह जायगा वहीं, जो कुछ किया है । जैनशास्त्रो मे परदेशी राजा का उदाहरण घ्राता है, जिसके हाथ निर्दोषों के खून से सने रहते थे, वह भी केशी भ्रमण के उपदेश से त्याग पथ की प्रोर अग्रसर हुम्रा । प्राज भी उसी त्याग की प्रावश्यकता है, समाज की सघर्षमय विषमता को मिटाने के लिए | गोषरण का हमेशा के लिए खात्मा कर दिया जाय, इसके लिए अपनी वासना और घावश्यकताओ को सीमित करना चाहिए और अपने वैभव का प्रमुक हिस्सा दानादि शुभ कार्यों के लिए निर्धारित किया जाना चाहिए । प्राप यहाँ बैठे हुए नज्जन भी दान आदि शुभ कार्य का श्रपना हिस्सा निकालने का व्रत लें । इस पर कई श्रावको ने ऐसा व्रत लिया । धन्त मे यही कहना चाहता हूँ कि समस्त प्राणियों को श्रात्मवत् समझे, सबसे प्रेम करे, सबकी रक्षा करे, यही सर्वोदयवाद है श्रोर इसी मे परमात्मा की जय यथार्थ रूप से वोली जा सकती है ।

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