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जन-संस्कृति का राजमार्ग सिद्धान्त मनुष्यो के बीच किसी भी प्रकार के भेदभावो को मान्यता नही देते और यही जैन धर्म की सर्वोत्कृष्ट विशेपता है कि वह मानवता का कितना बड़ा सरक्षक व उन्नायक है ?
इस गुरणपूजा मे जैन धर्म बाह्यडम्बर को मुख्य नही मानता, मुख्य है व्यक्ति का जीवन स्तर और उसमें प्राप्त किया हुआ आत्मा का विकास महावीर के समवशरण मे मगघ के महाराजा श्रेणिक और सकड़ाल कुम्हार का स्थान समान था क्योकि वह समानता उनके वाह्याडम्बर पर आधारित नही थी। वह समानता उनके आन्तरिक विकास की स्थिति को जताती थी। धनिक व गरीव का भी कोई अन्तर नही था। आत्म-साधना आनन्द श्रावक ने भी की, जो कोटि-कोटि सम्पत्ति का स्वामी था और उसी श्रेणी की प्रात्म: साधना पूणिया श्रावक ने भी की जिसके घर मे एक समय का पूरा अन्न
भी नहीं था, किन्तु बारह उच्च श्रावको की पात मे दोनो के सम्माननीय । स्थान में कोई अन्तर नही था। । आज भी आप लोग देखते हैं कि समाज मे घनिक और गरीब की स्थिति मे बड़ी विषमता पाई जाती है । प्रतिष्ठा और सामाजिक सम्मान का प्रतीक धन अधिक बन गया है और गुणो का स्थान कम महत्त्वपूर्ण हो गया है, यह स्थिति जैन सिद्धान्तो की दृष्टि से उचित नही मानी जा सकती। इस । विषमता पर प्राघात करने के लिए ही जैन दर्शन का अपरिग्रहवाद महावीर • ने सम्मुख रखा । समाज मे यदि श्रावक धन सम्पत्ति व उपभोग-परिभोग की
समस्त सामग्रियो के उपयोग की मर्यादा बांध लें और उसमे अपने ममत्व को कम करते जावें, स्वामित्व को छोडते जावें तो ज़रूरी है कि समाज की । सम्पत्ति का अधिक-से-अधिक हाथो मे विकेन्द्रीकरण होता जायगा और । समाज मे जब दु.ख और विषमता घटेगी तो यह कल्पना प्रासानी से की • जा सकती है कि उस समय समाज मे रही हुई असमानता व अनीति भी । घटेगी। इसीलिए अपरिग्रहवाद का सामाजिक पहलू यह है कि वह परिग्रह , के दंभ को हटाकर सामाजिक समानता का मार्ग प्रशस्त करता है। ।। । इसके साथ ही धावक व साधु धर्म मे जिस प्रकार हिंसा का निषेध