Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 116
________________ ११२ जैन-सस्कृति का राजमार्ग तो पूजनीय और प्रधान का पात्र हो जायगा और दूसरा जन्म लेने मात्र से ही नीच, अधर्म और अनादर का भाजन हो जायगा। सच पूछा जाय तो यह परम्परा बनाई धर्म के उन ठेकेदारो ने जो 'धर्म को अपनी पैतृक सम्पत्ति समझने लगे थे। ब्राह्मणो का उच्च वर्ग इसलिए माना गया कि वे साधनारत होकर ज्ञान का पठन-पाठन करते किन्तु वे तो पाचरण के धरातल को छोडकर वर्ण के प्रावार पर ही अपने-अापको बडा समझने लगे। इसी प्रकार क्षत्रियो व वैश्यो का भी समाज रक्षा व पालन का जो कर्तव्य था, वह भी कमजोर हो गया। अब इन तीनो वर्गो के दंभ का सारा बोझ गिर पडा शूद्रो पर, जिनके कर्तव्य तो तीनो वर्गों की हर प्रकार की सेवा के थे मगर अधिकार कुछ नही और पाश्चर्य तो इस बात का कि धर्म के क्षेत्र मे भी वे निरीह बना दिये गये। धर्मस्थान मे जाने का उनको अधिकार नही, धर्मप्रथ पढने के वे योग्य नहीं और धर्मगुरुप्रो का उपदेश भी वे नहीं सुन सकते । एक तरह से सामाजिक अन्याय की हद हो गई थी और यह हद इतनी नफरत-भरी थी कि चांडाल और मेहतर वगैरा को छुया नहीं जा सकता । छूने से उच्च वरणों का धर्म भ्रष्ट हो जाता। एक मनुष्य पशु को छूता था लेकिन अपने जैसे ही मनुष्य को छूना पाप था। और आज भी वही घृणित परम्परा चल रही है, छूग्राछूत की बीमारी गांधीजी के सत्प्रयासो के वाद भी घर करे बैठी हुई है । अग्रेजी फैशन मे पडे लोग कुत्तो को गोद में लेकर वैठेगे, मगर हरिजन को नहीं छुएंगे। मनुष्यता का इससे अधिक पतन क्या हो सकता है कि मनुष्य मनुष्य का इतना वीभत्स अनादर करे ? और जब आप यह सोचेंगे कि हरिजन का ऐसा अनादर क्यो होता चला आ रहा है तो मेरा विचार है कि लज्जा से सिर झुक जायगा । इसीलिए तो उनका अनादर है कि वे आप लोगो का मैला अपने सिर पर उठाकर ले जाते हैं, जबकि सेवा का इससे बडा उदार क्या काम हो सकता है। माता होती है, बड़ी खुशी से अपने बालक की विष्टा साफ करती है, क्या आप उससे घृणा करोगे ? उसकी ममता पूजी जाती है तो फिर हरि

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