Book Title: Jain Sanskruti ka Rajmarg
Author(s): Ganeshlal Acharya, Shantichand Mehta
Publisher: Ganesh Smruti Granthmala Bikaner

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Page 120
________________ ११६ जन-सन्कात की राजमाग और उनका तिरस्कार करने मे क्यो कोई भी जघन्य कार्य नहीं समझते, उसगे महागप नही मानते ? किसी काल मे अहकार की भावना ने जाति, वर्ण व कुलगन भेदभावो को जन्म दिया तया अाज अर्थगत भेदभाव जटिल बनते जा रहे हैं विन्तु इन सब भेदभावो मे प्रायः सत्याश कुछ भी नहीं हैं, यह जैन सिद्धान्तो की दृढ धारणा है, क्योकि ये सव भेदभाव अहकार को पुष्ट करते हैं जो समानता का विरोधी है । "माणेण प्रहमागई"-उत्तगध्ययन सूत्र में कहा है कि मान से प्रात्मा अधम गति को पहुँचती है और जब मानव अधमाई की ओर बढता है तो वह सत्य को नहीं समझ पाता। __ भगवान महावीर ने प्राणीमात्र की एकता, समानता और प्रात्मसम्मान और निर्वाह का आदर्श प्रस्तुत किया। उनका ढाई हजार वर्ष पहले कहा गया यह वाक्य आज भी एक नवीन प्रकाश प्रदान कर रहा है कि "अप्पसमं मन्येच्छधिकायं ।" । छहो काया के समस्त जीवो को अपनी ही प्रात्मा के समान समझो। कितना विशाल और उदार सिद्धान्त है यह ? पर आज उन वीर प्रभु के उपासको का ही मुख किधर है ? यह सोचें कि प्रात्मवत् व्यवहार से प्रापकी कितनी दूरी है ? आज जैनधर्म के पुनीत सिद्धान्तों की मांग है कि उन पर प्राचरण किया जाय वरना अनावरित सिद्धान्त' का कोई महत्त्व नही रह जाता और उनके आचरण का अर्थ होगा कि आप समानता के अनुभाव को हृदय मे जमा लें और समाज के विभिन्न क्षेत्रो में उसका व्यवहारिक प्रयोग करें। जब यह तैयारी पार लोगो की हो जायगी तो मानव के बीच रहे हुए अगुण कृत किसी भी प्रकार के अन्तर को श्राप सहन न कर सकेंगे चाहे वह अन्तर जाति का वर्ण के भेद पर खडा हो या कि आर्थिक विषम के कगार पर और तभी धर्म का भी स्वस्थ प्राचरण प्रारम्भ होगा। मानव के मानवोचित सम्यक् कर्तव्यो का पुज ही तो धर्म है जो समाज मे वन्धुता और समता की धारा बहाते हुए प्रात्म-विकास की दिशा मे पराकमशाली बनाता है। जन-सिद्धान्तो की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे समाज पोर

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