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-The TFIC Team.
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भी गणेश स्मृति प्रथमाला-ग्रंथांक-१
जैन-संस्कृति का राजमार्ग
[जैन-सस्कृति का परिचय देने वाले प्रवचनो का संग्रह ]
प्रवचनकार श्री मज्जैनाचार्य पूज्य श्री गणेशलाल जी म. सा.
संपादक श्री शांतिचंद मेहता एम० ए० एल-एल० बी०
समा
र्शन
चारित्र श्रीगणेश स्मृति ग्रंथमाला
श्री गणेश स्मृति ग्रंथमाला, बीकानेर (श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ द्वारा संचालित)
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प्रकाशक
मंत्री - श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ रागडी मोहल्ला, बीकानेर (राजस्थान )
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प्रथम संस्करण : १९६४
मूल्य :
दो रुपये पचास नये पैसे
मुद्रक : रामस्वरूप शर्मा, राष्ट्र भारती प्रेस
कूचा चेलान
दिल्ली - ६
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प्राक्कथन
श्रीमज्जैनाचार्य श्री गणेशलाल जी म० सा० श्रमण-सस्कृति के ज्योतिपुञ्ज है। उनके प्रवचनो का यह संग्रह 'जैन सस्कृति का राजमार्ग' श्राद्योपान्त देखा। जैन-दर्शन के तात्त्विक विवेचन के साथ-साथ जैन-संस्कृति का स्पष्ट एक प्रेरणादायक निरूपरण इन प्रवचनो द्वारा हुआ है। इन प्रवचनों मे स्पष्ट, सरल शैली मे ज्योतिपुञ्ज प्राचार्य श्री गणेशलाल जी महाराज ने अपनी साधना की अनुभव प्रणीत चेतना को अभिव्यक्त किया है । प्राचार्य श्री ने अपने जीवन की निस्पृह साधना द्वारा जो सत्यानुभव किया, उसी के उद्गारो का यह उपयोगी समुच्चय है। __भारतीय धर्मों और धार्मिक संस्कृतियो का उद्भव मनुष्य की भावना के निरन्तर उद्वेग 'के शमन के लिए ही हुआ है । आत्म-शुद्धि और आत्मलाभ का मूल प्राश्रय इतना ही है कि मनुष्य सत्य, शाश्वत नियमों के अनुसार अपना जीवनयापन करे और अविचल पूर्णत्व प्राप्त करे। इस प्रयास का एकमात्र प्राधार धर्म है, नियम-ज्ञान नहीं। नियम ज्ञान होते हुए भी मनुष्य अपनी सहज प्रवृत्तियो के कारण अनियमित हो जाता है । अनियमित होने की मनुष्य की इस स्वाभाविक कमजोरी के निराकरण के लिए धार्मिक प्रेरणा की अावश्यकता रहती पाई है। समाज-शास्त्रियो को अभी यह जानना चाहिए कि मनुष्य ज्ञान और विद्या प्राप्त करते हुए भी 'पालन' के लिए क्षमतावान् किस प्रकार होता है । जीवन की सभी कोमलताएँ अनुभव से प्रसूत होती है और क्षमता का यह प्रसव धर्म-पालन द्वारा ही होता है ।
धर्म भावना अपने अत्यन्त सुघड़ स्वरूप मे श्रद्धा है । वुद्धि-प्रक्रिया जीवन के भोग का उत्तेजन तो करती है, परन्तु पूर्णतः शमन नही कर पाती। यह शमन तो धर्म भावना द्वारा ही हो पाता है। मनुप्य अनन्त और असकीर्ण शाश्वत जीवन की कामना करता है, जिसकी तृप्ति धर्म भावना
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द्वारा ही होती है। इस अतीन्द्रिय धारणा के स्वानुभव के लिए हमे ज्ञान, विद्या और विज्ञान पक सीमा के बाद आगे नहीं ले जा सकते हैं । धर्म भावना ही हमें इस क्षेत्र में प्रवेश देती है और यही कारण है कि ससार की अतुल्य ऋद्धि-सिद्धियो के रहते हुए भी धार्मिक महापुरुषो का प्रभाव सदियो तक मनुष्य के समूहो मे घर किये रहता है।
आचार्य श्री गणेशलाल जी म० के प्रवचनो मे उक्त धर्म भावना का व्यवहारिक प्रतिपादन किया गया है और जैन सस्कृति के सच्चे स्वरूप को सरलता से चित्रित किया है। साथ ही एक प्राकर्षण यह है कि इनमें विद्वत्ता का अभिमान कहीं नहीं है । सिर्फ जीवन के अपने अनुभवो का कथन है। जैन दर्शन के आधारो को अपने प्रवचन के प्रत्येक शब्द मे प्रतिफलित करने का प्रयास किया है।
__ आचार्य श्री गणेशलाल जी महाराज का व्यक्तित्व एक सत्यान्वेषक का व्यक्तित्व है । जैन दर्शन का उनका ज्ञान और उपदेश सासारिको के पथ प्रदर्शन के उपयुक्त है एवं प्राचार प्रादर्श जीवन के सत्य को प्रगट करता है। यही कारण है इस भौतिकवाद के वातावरण में आज भी हम प्राप श्री जैसे प्राचार्य के दर्शन कर सकते हैं।
-जनार्दनराय नागर उपकुलपति राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर
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प्रकाशकीय श्रीमज्जनाचार्य पूज्य श्री गणेशलालजी म. सा. द्वारा दिये गये भनेक महत्त्वपूर्ण प्रवचनो मे जैन-सस्कृति से सम्बन्धित प्रवचनो का यह सग्रह "जन-सस्कृति का राजमार्ग" के नाम से प्रस्तुत करते हुए हमे हर्ष हो रहा है। इन प्रवचनो मे जैनधर्म के मुख्य-मुख्य सिद्धान्तो की सरल सुबोध भाषा मे विदेषना की गई है और जिनकी मौलिकता गभीरता एव विषदता का मूल्याकन पाठक स्वय कर सकेगे।
प्राचार्य श्री के अनमोल प्रवचन जनमानस मे जैन सस्कृति की महत्ता का प्रचार करने मे सक्षम हैं, इसी भावना से प्रेरित होकर इस प्रवचन संग्रह के प्रकाशन मे निम्नलिखित विदुषी बहिनो ने प्रार्थिक सहयोग प्रदान किया है
श्रीमती भूरीबाईजी सुराना, रायपुर ५००) श्रीमती उमरावबाईजी मूपा, मद्रास ५००)
इसके लिए आप दोनो धन्यवादाई हैं और आशा है कि आपकी भावना से प्रेरणा लेकर अन्य बन्धु भी साहित्य प्रचार मे आर्थिक सहयोग प्रदान करेंगे।
यहां यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि प्राचार्यश्री के प्रवचन साधु-भाषा मे होते थे। फिर भी प्रमादवश संपादक या सग्राहक द्वारा भाव या भाषा सम्बन्धी कोई भूल हो गई हो तो उसके उत्तरदायी संपादक या सग्राहक है और ज्ञात होने पर आगामी सस्करण मे सुधार हो सकेगा।
पुस्तक की प्रस्तावना लिखने के लिए राजस्थान के जाने-माने साहित्यज्ञ श्री जनार्दनरायजी नागर के हम सघन्यवाद प्राभारी हैं ।
इस पुस्तक का प्रकाशन एक दूसरी दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है । पाचार्यश्री के प्रादर्शो के स्मरण को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये पाप धी को स्मृति मे स्थापित होने वाली 'श्री गणेश स्मृति ग्रंथमाला' का शुभा
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: ६ :
रम्भ श्राप श्री के महत्त्वपूर्ण प्रवचनो से हो रहा है । जिससे हमारी यह भावना साकार हो रही है कि ग्रथमाला के उद्देश्य - जैनवमं श्रीर आचार के शाश्वत सिद्धान्तो का लोकभाषा मे प्रचार करना -- मे हम सफलता प्राप्त करेंगे ।
निवेदक
जुगराज सेठिया, मंत्री सुन्दरलाल तातेड़, सहमंत्री
महावीरचन्द घाड़ीवाल, सहमंत्री
श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, बीकानेर |
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प्रकाशन में सहयोगिनी बहिनों का परिचय
श्रीमती भूरीबाईजी सुराना, रायपुर-श्रीमती भूरीबाईजी सुराना रायपुर स्वर्गीय श्री प्रगरचन्दजी सुराना की धर्मपत्नी हैं। श्राप रायपुर स्था० जैन महिला संघ की उपाध्यक्षा हैं। जीवन सादा और सरल है। आपके दो पुत्र और दो पुत्रियां हैं। दोनो पुत्र श्री चम्पालालजी व सोहनलालजी धर्मप्रेमी, समाजसेवी, कर्मठ कार्यकर्ता और सफल व्यापारी हैं। भापके फर्म का नाम 'अगरचन्द चम्पालाल' और 'अगरचन्द सोहनलाल' है। रायपुर मे कपड़े के सबसे बड़े व्यापारी हैं । प्रागर एजेन्सी मे मिलो के साथ कपड़े का थोक व्यापार का काम होता है। श्री प्र० भा० साधुमार्गी जैन सघ को पापका और आपके सुपुत्रो का तन-मन-धन से सक्रिय सहयोग प्राप्त है।
__श्रीमती उमरावदाई जी मूथा, मद्रात-श्रीमती उमरावबाई जी मूथा स्वर्गीय श्री सज्जनराज जी मूथा मद्रास की धर्मपत्नी हैं। छोटी उम्र मे ही आपको वैधव्य का दुःख सहना पड़ा। प्रापका जीवन धार्मिक, सरल और सादा है । प्रापका दयालु स्वभाव और स्वधर्मी वात्सल्य प्रशसनीय है । आपके ससुर श्रीमान् बीजराजजी सा० मूथा का श्री प्र० भा० साधुमार्गी जैन संघ को तन-मन-धन से सक्रिय सहयोग प्राप्त होता रहता है। __संघ की ओर से हम आपका आभार मानते हैं और प्राशा है आगामी प्रकाशनो के लिए प्रापका सक्रिय सहयोग प्राप्त होगा।
मंत्री, श्री अखिल भारतवर्षीय
साधुमार्गो जनसंघ
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विषय-सूची
अध्याय
१. जैन-सस्कृति की विशालता २. महावीर का सर्वोच्च स्वाधीनता ३. जैन अहिंसा और उत्कृष्ट समानता ४. स्याद्वाद सत्य का साक्षात्कार ५. कर्मवाद का अन्तर्रहस्य ६. अपरिग्रवाद याने स्वामित्त्व का विसर्जन ७. शास्त्रो के चार अनुयोग ८. जैन दर्शन का तत्त्ववाद
६. सर्वोदय-भावना का विस्तार • १०. जैन धर्म का ईश्वरवाद कैसा ? ११. जैन सिद्धान्तो मे सामाजिकता
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जैन-संस्कृति की विशालता में आप के समय आज जैन दर्शन एव सस्कृति की विशालता पर कुछ प्रकाश डालना चाहता हूँ। यह समझने योग्य बात है कि जहाँ अन्य दन वा संस्कृतियाँ एक खास घेरे में अपने को सीमित करती हुई चली हैं वहाँ जनदर्शन का आधार अत्यन्त व्यापक व गुणो पर आधारित रहा है इसमे कभी सकुचितता व कुत्सित साम्प्रदायिकता का प्रवेश नही हो पाया। मूलमत्र नवकार मत्र मे लेकर ऊँचे-से-ऊंचा सिद्धात आत्मा के विकास की बुनियाद को लेकर निर्मित हुआ है ।
जनदर्शन मे न तो व्यक्ति-पूजा को महत्त्व दिया गया है, न ही सकुचित घेरो मे सिद्वान्तो को कसने की कोशिश की गई है। आत्म-विकास के सदेश को न सिर्फ समूचे विश्व को बल्कि समूचे जीव-जगत् को सुनाया गया है।
'जन' शब्द का मूल भी इसी भावना की नीव पर अकुरित हुआ है। मुल संस्कृत धातु है 'जि', जिसका अर्थ होता है-जीतना । जीतने का अभिप्राय कोई क्षेत्र या प्रदेश जीतना नही बल्कि प्रात्मा को जीतना, प्रात्मा की बुराइयो और कमजोरियो को जीतना है । आप अभी वालक है, फिर भी कभी अवश्य महसूम करते होगे फि जब कभी श्राप झूठ बोलो या कि कुछ चुरा लो नो प्रापका मन कांपता होगा, फिर उस गलती को सोचकर एक घृणा पैदा होनी होगी और उसके बाद आप लोगो मे से जो मजबूत इच्छाशक्ति के छात्र होगे, वे मन मे निश्चय करते होगे कि अब आगे से कभी ऐसी बुराई नहीं करेंगे । यही एक तरह से जीतने की प्रक्रिया है ।।
मनुप्य की धात्मा मे वातावरण से, सस्कार से यानी कर्म-प्रभाव से पाप कार्य करने की प्रवृत्ति होती है तो उस समय उसकी मम्यक् प्रतिक्रिया रूप जिस उत्थानवारी भावना का विस्तार होने लगता है और ज्यो-ज्यो वह
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जन-सस्कृति का राजमार्ग
भावना बलवती होती जाती है तो समझना चाहिए कि उसकी आत्मा मे जीतने का क्रम शुरू हो गया है । मन के विकागे को नष्ट करते हा ज्यो-ज्यो आत्म-विकास की सीढियाँ ऊपर चढते जाते है, जीनने का क्रम भी ऊपर चढता जाता है और एक दिन उस भव्य आत्मा का मुक्ति के महाद्वार में प्रवेश होना है।
तो यह है हमारे यहाँ विजय का स्वरूप, जिसमे विजेता आत्मा होना है किन्तु विजित कोई नही होता । इस प्रकार जो अपने कर्मशत्रुओ पर. विकारो पर पूरी तरह से विजय प्राप्त कर ले वे 'जिन' कहनाते है । वजय के इस क्रम को हमारे यहाँ गूथा गया है गुणस्थान की श्रेणियो मे । आत्मा की विचार-सररिणयो के साथ गुणस्थान की श्रेणियाँ चलती है, जिनका चरम विकास 'जिनत्व' में होता है।
ऐसे 'जिन' भगवान ने चरम विकास के धरातल पर चढकर अपने ज्ञान-दर्गन-चारिय से उद्भूत जिन सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला, वे कहलाये जन-सिद्धान्त और उनके अनुयायी जैन । तो जैन का सम्बन्ध है अपने प्रात्म-शत्रुनो पर विजय से, अपनी आत्मा के गुणो के विकास मे । इसलिए जैन की कोई जाति, कोई वर्ग या कोई घेरे वाली बात नहीं है । जैन कोई भी व्यक्ति हो सकता है जो अपनी कोशिशो को अपने मन को ऊपर उठाने में लगाए, आन्तरिक गुणो को चमकाए । जैनत्व का सम्बन्ध किसी खास क्षेत्र, व्यक्ति या ममूह मे नहीं, बल्कि मुख्यत गुणो से है और गुगो का क्षेत्र सदैव सर्वव्यापी और विशालतम होता है ।
इसलिए जैनधर्म को समझने के लिए सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि जैनधर्म के सिद्धान्तो मे माम्प्रदायिकता को कतई स्थान नहीं है। अमुक समाज या व्यक्ति ही इसके पालन करने का अधिकारी है-इम क्षुद्रवृत्ति से अछूता रहना ही यह दर्शन सबसे पहले मिग्वाता है । वह धर्म, धर्म नही जो विकारी भेदभाव की नीव पर खडा हो । धर्म का मम्बन्ध जाति या देश मे नहीं, गुणो मे होना चाहिए। जो व्यक्ति अपने जीवन में
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जैन-संस्कृति की विशालता
धार्मिक गुणो का आचरण करता है, वही सच्चे अर्थो मे धार्मिक है, वरना यह कहना गलत होगा कि एक जैन इसलिए जैन है कि उसने जैन घराने मे जन्म तो ले लिया है किन्तु जैनत्व का पालन नहीं करता। ____ स्मरण रखे कि जब-जब किसी भी धर्म या सस्कृति ने अपने अनुयायियो को यथायोग्य मुक्त चिन्तन का अवसर नही दिया और उन्होने कथित सिद्धान्तो के कठोर घेरे मे बांधे रखने का प्रयास किया तो वहाँ कदाग्रह फैला है । जहाँ बिना दिमाग के दायरे को खोले हुए एक हठ की जाती है, एक गलत प्राग्रह बनाया जाता है, वहां हमेशा घेरेबन्दी का कदाग्रह फैलता है और कुत्सित साम्प्रदायिकता पनपती है । क्योकि कुत्सित साम्प्रदायिकता की बुनियाद गुणो पर नही बल्कि, बेसमझी की गुटबन्दी पर होती है और गुटबन्दी खडी होती है व्यक्ति-विशेष के आश्रय पर । क्योकि एक व्यक्ति या तो अपनी कोई जिद पूरी करना चाहता है या अपने आग्रह को दूसरो पर बलात् लादना चाहता है, तब वह अपने प्रशसको का एक गुट बनाता है और वह गुट सिद्धान्तो को नही देखता, गुणो को नही परखता, सिर्फ अपने नेता का कदाग्रह पूरा करना चाहता है और उसी प्रयोजन से हरसभव प्रयत्न करना चाहता है । यही है साम्प्रदायिकता की बुनियाद, जिसमे गुणो का कोई सम्बन्ध नहीं होता । क्योकि जो प्रवृत्ति गुणो पर आश्रित होती है वहाँ कभी भी गुटबन्दी नहीं हो सकती । जैनधर्म गुणो के कारण ही व्यक्ति को महान समझता है, जन्म व जाति की दृष्टि मे नही । उत्तराध्ययन सूत्र मे ग्पष्ट कहा है कि जाति मे नही, वरन कर्म मे ही क्षत्रिय, कर्म से ही ब्राह्मण और कम मे ही वैश्य व शूद्र माना जाना चाहिए। कितना विशाल है जैनदर्शन जहाँ व्यक्ति का व्यक्ति के नाते कोई मोल-महत्त्व नहीं, महत्त्व है नो उमदे विकास का, उसके गुणो का । ___एक महत्त्व की बात बनाऊँ कि जैन दर्शन व सस्कृति के प्रणेताग्रो व प्रवर्तवो में भी कितनी विशाल उदारता थी। किसी भी अन्य दर्शन का वन्दना-मत्र लीजिए, उसमे नाम मे किमी-न-किसी महापुरुष की वन्दना वी गई होगी, किन्तु जैन-दर्शन का वन्दन-मत्र जो उसका महामत्र नवकार
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जन-संस्कृति का राजमार्ग
मत्र कहलाता है, इस भावना का प्रतीक है कि निजत्व का व्यामोह जनसस्कृति को कभी छुआ तक नहीं है । देखिए यह है हमारा नवकार मत्र"गामो अरिहताण'-उन महापुरुषो को नमस्कार है जिन्होंने राग-द्वेष
प्रादि शत्रुनो को नष्ट कर दिया है और चरम वीतगगता को प्राप्तकर परिपूर्ण समदर्शी सर्वज बन गए है । इसमे भगवान ऋपभदेव या महावीर किसी का नाम से उल्लेख नहीं है। वह आत्म-विजेता कोई भी हो सकता है । जैन तो इम गुणवारी सभी महापुरुपो को
नमस्कार करना चाहता है । "णमो सिद्धाण"~-उन महापुरुषो को नमस्कार है जिन्होंने अपने प्रात्म
विकास को सिद्ध बना दिया है, जो मुक्तिगामी हो गए
है, जो निराकार, अव्यावाध मुख वाले है । "णमो पायरियाण"-उन सभी आचार्यों को नमस्कार है जो अपने पच
महाव्रत आदि ३६ विशिष्ट गुणो के आधार पर प्राचार्य
वने है और आचार्यत्व को निभाते है । "गामो उवज्झायाण"-~-उन उपाध्यायो को नमस्कार है जो पच महाव्रत
प्रादि गुणो से युक्त होकर मुख्यत वीतरागप्ररूपित
गास्त्रो के अध्ययन-अध्यापन में मलग्न हो। "णमो लोए सव्व साहूण"-लोक ( ससार ) मे सर्व साधुप्रो को नमस्कार
है । साधु वह जिसमे साधुत्व-सयम और साधना के गुण हो । यहां यह उल्लेखनीय है कि प्राचार्य, उपाध्याय या
साधु सभी मे गुणो का समावेश मानकर वन्दना की है। जैनधर्म उस सृषिकर्तृत्व में भी विश्वास नहीं रखता, जहाँ यही मान्यता हो कि ईश्वर तो एक है और वह हमेशा ईश्वर ही रहेगा, दूसरे प्राणी चाहे विकास की किसी भी सीढ़ी पर चढ जाएँ, ईश्वरत्व प्राप्त नहीं कर मकते । जैनधर्म इसे एक तरह से दामता मानता है कि प्रत्येक प्राणी
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जन-संस्कृति की विशालता
जोवन पर्यन्त दास ही बना रहेगा और ईश्वर से मिलते ही करता रहेगा । उसे उन मिन्नतों के बदले मे कुछ सुख-सुविधाएँ तो मिल जाएँगी कि तु वह रहेगा गुलाम-का-गुलाम ही ।
जैनदर्शन अपने उत्थान - पतन का कर्ता एव अपने सुख-दुख का प्रणेता अपने ही आत्मा को मानता है । वह ईश्वर और भक्त के बीच हमेशा स्वामी सेवक की खाई बनाकर नही रखता । वह आत्मा के निज के पराक्रम का प्रज्ज्वलित करता है और निष्ठा के साथ यह कहना चाहता है कि प्रत्येक ग्रात्मा मे परमात्मा की शक्ति छिपी हुई है । आवश्यकता है कि उस शक्ति पर जो विकारो का मैल चढा हुआ है, उसे सयम और साधना से धो दिया जाय तो विकास की वह उच्चता उस आत्मा को भी मिल जाएगी जिम उच्चता पर हम ईश्वर को प्रतिष्ठित मानते है । तब वह आत्मा भी ईश्वरत्व में परिणत हो जायगा । अर्थात् ईश्वरत्व आत्म-विकास की वह चरम उच्चता है जो सभी भव्य आत्माओ को प्राप्य है और उसी को आदर्श मानकर समार मे माधना-मार्ग की गतिशीलता बनी रहनी चाहिए । प्रत्येक प्रात्मा विकाम करता हुआ ईश्वर बन सकता है और वह ईश्वर बनता है नो दूसरो पर स्वामित्व रखने के लिए नही किन्तु अपने ही ग्रात्म-स्वरूप की परम उज्ज्वलता को प्रकट करने के लिए। ऐसी विचारणा अवश्य ही मनुष्य की रचनात्मक व साधनाशील प्रवृत्तियों को जागृत करती है कि वह भी ईश्वर बन सकता है । इसके विपरीत अन्य दर्शनो में रही ईश्वर की धारणा मनुष्य को शिथिल बनाती है, क्योकि वह हमेशा भक्त ही रहेगा, दास ही रहेगा तो उसकी साधना को बन श्रौर उत्साह कहाँ से मिलेगा?
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जैनदर्शन को मूलाधार श्रमरण-सस्कृति है । 'समरण' शब्द प्राकृत का है । मस्कृत में इनके तीन रूप हाते है - श्रमरण, समन और शमन । श्रमरग शब्द “श्रमु तपसोखेदे च " धातु से बना है । इसका अर्थ है श्रम करना। इसलिए जैन-सस्कृति की मूल निष्ठा श्रम है । नियति - भाग्य के ग्राश्रय पर बैठने वाले निश्चित रूप से प्रकर्मण्य बनते हैं और अपने पतन को निकट लाते है | यदि अपनी उन्नति करना चाहते हो तो पुरुषार्थ करो, श्रम मे
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जन-सस्कृति का राजमार्ग
इतने तल्लीन हो जानो कि किमी तरह पराश्रयी न रहकर म्वाश्रयी बन सको और यह जो पुरुषार्थ-श्रम- करना है, किन्ही दूसरों को दवाकर अपना मिर ऊंचा करने के लिए नही अथवा दूसरों का शोषण करके अपना पेट भरने के लिए नहीं बल्कि अपने आन्तरिक शत्रुओ एव मनोविकारो को नष्ट करने के लिए । जब आत्मा मे श्रमण-वृत्ति जागती है तो वह अपने आपको व्यापक हित के लिए विसर्जित कर देता है, अपना सुख करुणा और साधना मे विखेर देता है । वस्तुत पुरुषार्थ ही मानव को प्रगति के पथ पर अग्रगामी बनाता है । जो व्यक्ति स्वावलम्बी रहता है, वही सुखी बनता है और जो पराधीन है वह चाहे सारी सुख-सामग्री के बीच खडा है, तो भी मुखी नहीं हो सकता । जो सस्कृति स्वतत्रता को आधारस्तम्भ बनाकर खडी है, उसकी व्यापकता एव विशालता की तुलना किमी अन्य छिछली सस्कृतियो से नही की जा सकती। जैन-सस्कृति का मूलाधार 'श्रमण' है।
_ 'समण' का दूसरा शब्दार्थ होता है-समन । इसका अर्थ है प्राणिमात्र के प्रति साम्यभाव रखना । सबके मुख-दुख को अपने सुख-दुःख के समान समझकर उनके प्रति व्यवहार करना । कष्ट मे पडे हुए प्राणी को देखकर उसे कष्ट से मुक्त करना और उमकी रक्षा करना-यह सहज वृत्ति प्रात्मा मे जागे उसे समन कहा है । इसकी सच्ची कसौटी प्रात्मानुभव है । यह विचारणा मनुष्य को आत्मिक मौन्दर्य का दर्शन कराने वाली है। क्योकि इस विचारणा के अनुसार प्राचरण करने वाला कोई भी क्यो न हो, उसके मन में अशान्ति का विषैला वातावरण कभी भी पैदा नहीं होगा। जब वह किमी प्राणी को कष्ट से मुक्त करेगा या करुणा कर के सहयोग देगा तो उनके मन में एक असीम शान्ति का अनुभव होगा जो उसे सुग्वदायक लगेगा।
तीमग शब्दार्थ है-गमन अर्थात् दबाना । दवाना है अपने कुविचागे गव अपनी कुप्रवृत्तियो को ताकि मवृत्तियां पनपें और आत्मा में सुविचार पंदा हो । जिम व्यक्ति में अपने व्यवहार का ज्ञान होगा वही व्यक्ति दूमरो के प्रति सद्व्यवहार कर सकेगा और असद्व्यवहार का शमन करेगा। किन्तु जिसका अपनी वृत्तियो या प्रवृत्तियो पर नियत्रण नहीं है, जीवन की
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जैन-सस्कृति की विशालता
गतियो पर अधिकार नहीं है, वह अपने जीवन मे शुद्र ही बना रह जाता है । आज मनुष्यो की अधिकतर यह प्रवृत्ति देखी जाती है कि वे अपनी ओर लक्ष्य न देकर दूसरो को नियत्रित करने का ज्यादा ख्याल करते है और इसी ने पतन हो रहा है । अगर अपने आप पर नियंत्रण रखने की पहले कोशिश की जाय तो स्वय उसकी प्रवृत्तियाँ जब सन्तुलित हो जाएँगी तो सारे ममाज मे ही स्वयचालित नियत्रण व सन्तुलन होने लगेगा और वह कट्टप्रद नहीं रहेगा । जिसने अपने जीवन पर अधिकार कर लिया, भावना की दृष्टि से उसका जगत पर अधिकार हो जाता है ।
तो जन-सस्कृति तीन प्रमुख विन्दुप्रो पर आधारित है और वे तीन विन्दु है-श्रम, समता और सद्वृत्ति । श्रमग शब्द का सार इन तीनो विन्दुनो मे है । एक तरह से श्रम सत्य है, समता शिव है और सद्वृत्ति सौन्दर्य है । ये तीनो सीढियाँ जीवन को पूर्ण बनाने वाली सीढियां है और जैन-सस्कृति जो गुणो पर आधारित है, प्रेरणा देना चाहती है कि आपका विकास आपकी मुट्ठी मे है । सकल्प करो, निष्ठा से श्रम-पुरुषार्थ मे जुट जाम्रो । प्रापकी विशाल शक्तियो को प्रकट होने से कोई नहीं रोक सकेगा। उन गक्तियो के प्रकाश में आपको अपनी आत्मा का स्वरूप स्पष्ट दिखाई देगा और तभी आप दूसरी पात्माग्रो मे भी समानता देख सकेगे और एक साम्यवृत्ति जागेगी। सभी के प्रति जागी हुई ममानता की भावना पापको मदेव सवृत्तियो की राह पर बलपूर्वक ले जाएगी और आप अनुभव करेंगे कि श्रम, समता और सवृत्ति की सीढियां आपके जीवन को ऊपर उठाती जा रही है।
यह है जैन-सस्कृति की विशिष्टता जिसमे गुणो का ही महत्त्व है । जिममे गुरण है, वह किसी भी अवस्था में हो-गरीब या धनी, साधु या गृहस्थ-पूजनीय है । जिसमे गुण नही, जो जीवन-कला को नहीं जानता, वह यदि साधुवेष भी धारण किये हुए हो तो भी वन्दनीय या पूजनीय नहीं हो सकता । आडम्बर व्यक्ति की कसौटी नहीं, वह कसौटी तो उसके गुणावगुण है । श्रमण शब्द का अर्थ यही है कि श्रममय जीवन यापन
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जैन-सस्कृति का राजमार्ग
करना, प्राणिमात्र पर माम्यदृष्टि रखना और अपने प्रात्म-विकाम मे बाधक प असत् प्रवृत्तियों का शमन करना- यही साधुत्व है।
इस सिद्धान्त की वास्तविकता को भी समझ लीजिए कि गुणो की स्थिति और गुणो का विकास भी मूलत भावना पर ही टिका रहता है। गणो के पक्ष मे भावनायो का ढलान और निर्माण यदि मजबूत बन जाय तो फिर उसके कार्यान्वय मे कभी दुर्बलता नही आ सकेगी । इसलिए भावनाओ के निर्माण की पहली आवश्यकता है ।
हमारे यहाँ एक कपिल केवली का वृत्तान्त पाता है । कपिल एक गरीब ग्राह्मण था, इतना गरीव कि वह अपने खाने-पीने के साधन भी मुश्किल मे ही जुटा पाता था । उस नगर मे राजा प्रात सर्वप्रथम दर्शन देने वाले ब्राह्मण को एक स्वर्णमुद्रा दान मे देता था । तीन दिन से भूखा-प्यामा कपिल दर्शन देकर स्वर्णमुद्रा प्राप्त करने की अभिलाषा से रात को १२ बजे ही घर में निकल पडा । प्रहरियो ने उसे पकड लिया मोर दूसरे दिन दरवार में कपिल को पेश किया गया। कपिल ने जब सत्य-सत्य स्थिति राजा को बताई तो वह दया से द्रावित हो उठा। उसने कपिल से इच्छा हो मो मांग लेने को कहा । कपिल ने सोचने के लिए समय मांगा और वह बाग में बैठकर मोचने लगा-~-जब मांगना ही है तो एक क्या दस स्वर्णमुद्राएं मांग नू फिर दम ही क्यो मौ, हजार, लाख स्वर्ण-मुद्राएं मांग लू । लेकिन अव राजा ने कहा ही है तो उसका समूचा राज्य ही क्यो न मांग लू.. किन्तु इस विचार के साथ ही उसके हृदय को धक्का लगा और उसकी भावना जागी- मै कितना क्षुद्र हूँ, राजा की उदारता का यह वदला देना चाहता हूँ कि उसका गज्य ही छीन ल । वह अपनी प्रात्मा को धिक्कारने भगा और यात्मिक विचारणा में डूबने लगा। कुछ क्षणो मे ही कपिल की भावना इतनी ऊँची चढ गई कि उन्हे केवलज्ञान प्राप्त हो गया ।
कहने का अभिप्राय यह है कि भावना के निर्माण पर ही गुणो का विकाम हो मकता है । भावना के धरातल पर गुण विकरें और
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गुणो से आत्मा चरम विकास की ओर गतिशील हो, यही जैन दर्शन एव संस्कृति की मूल प्रेरणा है ।
मुझे श्राप नवयुवको से यही कहना है कि प्राप जैन दर्शन एवं संस्कृति की इस विशालता एव महानता को हृदयगम करे एव उस प्रकाश मे अपने जीवन का निर्माण तथा विकास साधे । अभी मैंने "समरा" शब्द का जो अर्थ व्यक्त किया, वह केवल साधुओ के लिए ही नहीं है । आप लोगो को भी शास्त्रकारों ने 'समरणोपासक' कहा है प्रर्थात् समरण - संस्कृति की उपासना करने वाले समरण - वृत्ति के अनुसार आचरण करने वाले ।
आप लोगो ने जैन सोसायटी नामक नम्वा स्थापित की है तथा जैननति के प्रचार की वान आप सोच रहे है । यह अच्छा है, लेकिन इन कार्यो में अपने प्रत्येक कदम पर जैन दर्शन एवं संस्कृति की मूल भावना का सदैव ख्याल रन्वना । जो दृष्टिकोण मैने आपके सामने रखा है, उसके अनुसार यदि श्राप जैन - सस्कृति का प्रचार करते हो तो प्रत्येक धर्म व संस्कृति के सत्याशो का स्वन ही प्रचार हो जाएगा । क्योकि जैनदर्शन का कभी ग्रह नही कि उसका अपना कुछ है - वह तो सदाशयो का पुज है, जहाँ से सभी प्रेरणा पा सकते है । ब्राह्मण-संस्कृति व पाश्चात्य देशो मे भी अहिंसा, सत्य एव पुरुपार्थ के जिन का प्रवेश हुग्रा है, उसे जैन-सस्कृति की ही देन समझना चाहिए। गाधी जी ने भी ग्रहमा को साघन बनाकर देश के स्वातत्र्यआन्दोलन को मजबूत बनाया, वह भी जैन सम्कृति को ही विजय है ।
भगवान महावीर ने किसी प्रकार की गुटबन्दी, साम्प्रदायिकता फैलाने का कभी नही सोचा | उन्होंने तो श्रम, समता, सद्वृत्ति की सन्देश वाहक श्रमण संस्कृति का प्रचार करके गुण- पूजक संस्कृति का निर्माण किया और
वान्त के सिद्धान्त से भवका समन्वय करना सिखाया । इसलिए इस संस्कृति का प्रचार करना है तो सयम को कभी मत भूलना । संस्कृति के विकास का मूल सयम है । जैनधर्म यही शिक्षा देता है कि सयम के पथ पर चलकर साधा हुना विकास ही सच्चा विकास है । जहाँ अपनी वृत्तियो पर
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जन-संस्कृति का राजमार्ग
नियत्रण नही, विलासिता व परमुखापेक्षी भावना है, वहां पर न तो विकास ही सधेगा और न प्रचार ही होगा।
इसलिए आप नवयुवक भावना से गुणोपासक बनकर अपनी वृत्तियो व प्रवृत्तियो मे सयम का प्रवेश कराएँ और उसके बाद निष्ठापूर्वक महान एव विशाल जैन दर्शन तथा सस्कृति का समुचित प्रचार करें । आपको अवश्य ही सफलता मिलेगी और आप उनकी विशालता का परिचय दूसरो को दे सकेगे। स्थानमहावीर भवन, चांदनी चौक, दिल्ली (जैन सोसायटी दिल्ली के विद्यार्थियो के समक्ष दिया मया व्यारयान )
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महावीर की सर्वोच्च स्वाधीनता महावीर प्री बुद्ध ने जिस गणतत्र के स्वतत्र वातावरण में स्वय का विकास नाधा और कोटि-कोटि जन को जीवन के स्वाधीनतापूर्ण विकास की
ओर उन्मुख किया आज भारत मे उसी गणतत्र की ज्योति चमक उठी है । परतत्रता की शृ ग्वलायो को काटकर जन-जन का जीवन जो आज स्वतत्र गगगनत्र के उल्लाम मे परिपूरित हो उठा है, उसके ही प्रतीकस्वरूप आज चागे और मनाए जाने वाले समारोह है । मैं भी आज के दिवस के अनुरूप ही इस विषय पर कुछ प्रकाश डालना चाहता हूँ कि महावीर का सर्वोच्च स्वाधीनता का सन्देश कमा अनुपम है और उन उत्कृष्ट स्वाधीनता की ओर हम भारतवानियो को किम उत्साहपूर्ण भावना मे गति करनी चाहिए?
महावीर ने जो कहा पहले उसे किया और इसीलिए उनकी वाणी में कर्मठना का प्रोज व भावना का उद्रेक दोनो है । हिंसा के नग्न ताडव से मलप्त एव शोषण व अत्याचार से उत्पीडित जनता को दु.खो से मुक्त करने के लिए भगवान महावीर ने स्वय अहिमा धर्म की प्रव्रज्या लेकर
हिसा को क्रान्निवारी तथा मुग्वकारी आवाज़ उठाई । स्वार्थोन्मत्त नरपिशाचों को प्रेम, महानुभूनि, शान्ति एव सत्याग्रह के द्वारा उन्होंने स्वाधीनता का दिव्य पथ प्रदर्शित किया ।
माया-मग्रह म्प पिशाचिनी वे वराल जान मे फमे हुए मानवो को उन्होंने पथभ्रष्ट विलासिता के दन-दन मे निकालकर निर्ग्रन्थ अपरिग्रवाद का प्रादर्ग दनाया। उन्होने स्वय महतो के ऐश्वर्य व राजसुख का त्याग कर निर्गन्य माधुत्व को वरण किया नया अपने मजीव अादर्श मे स्पष्ट किया वि भौतिक पदार्थों के इच्छापूर्ण त्याग ने ही यात्मिक मुख का स्रोत फूट नवेगा । पयोवि ग्रथि (ममना) को ही उन्होंने ममस्त दुखो का मूल माना,
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जैन - संस्कृति का राजमार्ग
चाहे वह ग्रथि जड द्रव्य-परिग्रह मे हो, कुटुम्ब, परिवार में हो या काम, कोच लोभ, मोहादि मनोविकारो में हो - यह ग्रंथि हो नित नवीन कष्टों का सृजन करती है । इसीलिए महावीर ने दृढता मे ग्राह्वान किया
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" पुरिसा, प्रत्ताण मेव प्रभिणिगिज्ज्ञ एवं दुक्खा पोक्खसि ।" -- श्राचाराग सूत्र, प्र० ३, सूत्र १६
हे पुरुषो । आत्मा को विषय ( कामवासनाओ ) की ओर जाने में रोकी, क्योकि इमी से तुम दुःखमुक्ति पा सकोगे ।
समस्त जैनदर्शन महावीर की इसी पूर्ण स्वाधीनता की उत्कृष्ट भावना पर आधारित है । परिग्रह के ममत्व को काटकर संग्रहवृत्ति का जब त्याग किया जायगा तभी कोई पूर्ण अहिंसक श्रौर पूर्ण स्वाधीन बन सकता है । ऐसी पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना हो जैनधर्म का मृतभूत ध्येय है । स्वाधीनता ही ग्रात्मा का स्वधर्म अथवा निजी स्वरूप है ।' मोह, मियात्व एव अज्ञान के वशीभूत होकर ग्रात्मा अपने मूल स्वभाव को विस्मृत कर देती है और इसीलिए वह दासता की शृंखलाओं में जकड जाती है । आज गणतंत्र की स्वाधीनता पहले आत्मा की स्वाधीनता को जगाए, ताकि आत्मा की स्वाधीनता जागृत और विकसित होकर गरण की स्वाधीनता को सुदृढ एवं सुचार बना सके ।
ग्रात्मा की पूर्ण स्वाधीनता का अर्थ है- धीरे-धीरे सम्पूर्ण भौतिक पदार्थ एव भौतिक जगत से सम्बन्ध-विच्छेद करना । अन्तिम श्रेणी मे शरीर भी उसके लिए एक बेडी है, क्योंकि वह ग्रन्य आत्माओ के साथ एकत्व प्राप्त कराने में बाधक है । पूर्ण स्वाधीनता की इच्छा रखने वाला विश्वहित के लिए अपनी देह का भी त्याग कर देता है । वह विश्व के जीवन को ही अपना मानता है, सबके सुख-दुख मे ही स्वय के सुख-दुख का अनुभव करता है, व्यापक चेतना मे निज की चेतना को मजो देता है । एक शब्द मे कहा जा सकता है कि वह अपने ' व्यष्टि को समाप्टि में' विलीन
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महावीर की सर्वोच्च स्वाधीनता
कर देता है । वह आज की तरह अपने अधिकारों के लिये रोता नही, वह कार्य करना जानता है और कर्तव्यो के कठोर पथ पर कदम बढाता या चलना जाता है । जैसा कि गीता मे भी कहा गया है
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।"
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फल को कामना ने कोई कार्य मत करो, अपना कर्तव्य जानकर करो, तब उस निष्काम कर्म मे एक आत्मिक आनन्द होगा और उसी कर्म का सम्पूर्ण समाज पर विशुद्ध एव स्वस्थ प्रभाव पड सकेगा । कामनापूर्ण कर्म दूसरो के हृदय मे विश्वास पैदा नहीं करता, क्योकि उसमे स्वार्थ की गन्ध होती है और सिर्फ स्वार्थ, परार्थ का घातक होता है । स्वार्थ छोडने से परार्थ की भावना पैदा होती हैं और तभी प्रात्मिक भाव जागता है ।
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महावीर ने स्वाधीनता के इसी प्रादर्श को बताकर विश्व में फैली ब े-छोटे, छूत प्रत, धनी - निर्धन यादि की विषमता एव भौतिक शक्तियो के मिथ्याभिमान को दूर हटाकर सबको समानता के अधिकार बताए । यही कारण है कि ढाई हजार वर्ष व्यतीत हो जाने पर भी महावीर के अहिंसा और त्याग के अनुभावो की गूज बराबर बनी रही है । महात्मा गाधी आदि प्रभृति राष्ट्रीय नेताओ ने कोई सन्देह नही कि इसी गूज ने प्रेरणा प्राप्त की एवं उनके सन्देश को गत मे पुनर्प्रतिष्ठित किया । चाहे बाह्य दृष्टि से ये नेता न जैन कहलाये, न हो महावीर के शिष्य, किन्तु अपरिग्रह और ग्रहीसा के सिद्धान्तों को जो सामाजिव महत्त्व इन्होंने दिलाया उसे हम उनका जैनत्व ही माने । क्योकि ग्राप जानते ही है कि जैनत्व किसी वर्ग, जाति या क्षेत्र के साथ बधा हुआ नही है तथा न ही इसका नाम मे ही सार्थक महत्त्व है। शुद्ध दृष्टि से तो जैनत्व वहाँ ही माना जायगा, जहाँ तदनुरूप वार्य का तत्व है । ग्रग्रेजी साम्राज्य के विरुद्ध जो स्वातव्य-मघर्ष आज तक किया गया, उनमें अहिंसा और त्याग को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है तथा उसी भावना का परिणाम है कि श्राज भारत स्वतंत्र से गरणतत्र भी हो रहा है । तो जिस पथ पर चलकर इतना विकास सम्पादित किया जा सका है, महावीर वाणी कहती है कि इसी पथ पर आगे बढो, ताकि ग्रात्मविकास
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जैन-मम्कृति का राजमार्ग
की सन्वी स्वाव उसके निर्मन प्रकाश में समूह की गगनत्रता प्राप्त की जा सके ।
भारत को स्वनत्र हुए दो वर्ष बीत चुके और आज वह तत्र भी वन रहा है । ग्रव भारत किसी व्यपि विशेष का न होकर समष्टि का इन गया है । जनता के द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि व राष्ट्रपति हो देश वा प्रशासन चलाएँगे । जनताको नागरिकता के पूर्ण अधिकार प्राप्त होगे । इस तरह राजनीतिक दृष्टिकोण से जनता स्वतंत्र हो गई हैं ।
किन्तु जब तक जनता मे सभी दृष्टियों से स्वावलम्वन पैदा नही होगा नव तक स्वाधीनता नही आएगी। चाहे तो निर्वाह के साधन हो या मानसिक विकारों का क्षेत्र हो, परतंत्रता को मिटाने पर ही जीवन में नया उत्साह भर मकेगा । ग्राज जो यह यात्रिक प्रगति मामाजिक न्याय के बिना बेरोक-टोक की जा रही है, वह न तो योजनाबद्ध कही जा सकती है, न ही समाज के लिए सुखदायक। इस व्यवस्था मे प्रार्थिक विषमता बढ रही है और शापरण व अन्याय भी उसी परिमाण में तीव्रतर हो रहा है । क्योकि एक ओर तो लाभांश कमाने वाला शोधक समाज अधिक समृद्ध होता हुआ विलासिता के रग में डूंब रहा है तो दूसरी ओर शापण व अन्याय मे उत्पीडित वर्ग कष्टो मे विचलित होकर विकृति व हिसा के मार्ग पर कदम बढा रहा है। दोनों प्रकार से सारा समाज अनैनिकता की राह पर आगे बढ रहा है। त्यागमय सस्कृति के क्षीण होने मे वैभव की भूख बलवती हो रही है, जो समाज की स्वस्थ प्रगति के लिए शुभ लक्षण नहीं है । इसलिए सबसे पहले इस दूपिन व्यवस्था से मुक्ति पाए बिना आप मे सच्चा स्वावलम्बन नही फैल सकता है। ऐसी अवस्था में आज के युवक पर इसकी महान जिम्मेदारी है, किन्तु उसकी भी मन्तोषजनक स्थिति नहीं है । ग्राज के युवक के पास बोलने के लिए जिह्वा है, शब्दकोश है किन्तु हाथो के लिए कर्तव्यपरायणता और पाँवों के लिए कर्मठता नहीं है । परिणाम यह है कि युवक आज के राज-समाज की लोचना तो करता है किन्तु उसे सुदृढता मे बदल डालने के लिए त्यागमत्र जोश से अपने आप को वह कटिबद्ध नहीं कर पाता है। विचार
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महावीर की सर्वोच्च स्वाधीनता
और वागी जब तक कर्म में पन्गित नही हो सके, वे अपने आप में प्रभावमाली नही होते । युवको को यह सोचना चाहिए कि वर्तमान परिस्थितियो में वे समाज की गतिशीलता में क्या और किस प्रकार योग दे सकते है कि सर्वोच्च स्वाधीनता की ओर हमारे कदम बढ़ते चले जाएँ ?
ग्राज मै राष्ट्र के विभिन्न राजनीतिक दलो की कार्यप्रणाली पर भी दृप्रिपात करता हूं तो उसमे वागविलास ही दिखाई देता है । वजाय इसके कि उनकी कार्यप्रणाली मे नवनिर्माण की रचनात्मक प्रवृत्ति दिग्वाई दे । भारत के एक चिन्तनगील कवि जगन्नाथ ने जो यह अन्योक्ति कही है, उससे रोमा प्रतिभास होना है कि वह सभवत वर्तमान परिस्थिति को हो इगित करके वही गई हो
पुरा सरासि मानसे विकचसार सालिस्खलपराग मुरभिकृते यस्य यात यय' । म पलवल जलेऽधनालिलदनेक भेकाकुले, मरालकुल नायक कथय रे कथ वर्तताम् ।
~~भामिनीविलास प्रर्थान् कमलो से प्रान्छादित, भरते हुए पगग मे सुगन्धित एव मधु ने भी मधुर मानसरोवर के शीदल जन और चमकते हुए बहुमूल्य मुक्ता का पान वरना हुअा मुन्दर-मुन्दर कमलो पर क्रीडा करके अपना जीवनयापन वग्ने वाले गजहस को ऐसी छोटी-सी तलैया पर बैठा देखे, जिस तलंया में पानी तो थोडा हो और मेढक अधिक हो, जो राजहम के अन्दर चोच टालने ही पुदव-पुदककर पानी को गदला बना डालते हो और राजहम दो पानी पीने मे दचित रख देते हो नोहेमी दुखावस्था को देखकर ववि हदय बोल उठना है वि हे माननगेवर के आदिवामी राजहम, तुम्हारी यह दुखद दशा की।
रन्धुनो जरा ध्यान से भारत के गौरवपूर्ण अतीत पर नजर डालिए कि वह हमेगा मानमरोवर पर रहा है और यहाँ ऋषभ, शान्तिनाथ, राम, कृष्णा, महा- ।
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जन-सस्कृति का राजमार्ग
वीर जमे गजहस होते रहे हैं । जिन्होंने सदैव मसिद्धान्तो रूपी मुक्तानो का चयन किया और उन्हे ममग्र भारतवामियो को भेंट किया । फिर आज यह दुर्भाग्य क्यो जो मानसरोवर के राजहम अोठी व क नहपूर्ण गजनीति की गशे नलया पर बैठे है और जनता को मेढक बना रहे है । गणतत्र दिवस पर महावीर का त्यागमय सन्देग हृदय मे ग्रहण कीजिए, तब आप भलीभाँनि अनुभव कर सकेगे कि आज का युग ईर्ष्या, विग्रह एव आलोचना का नही, प्रेम, सहानुभूति एव कर्तव्यवर्मों के पालन करने का है । अब तक राजनीतिक रूप से ही सही, लेकिन जनता के जो हाथ-पांव बधे हुए थे, वे मुक्त हो गए है और अवसर पाया है कि अपने अथक कार्यों से देश की त्यागमय मस्कृति का धवन प्रकाश फिर से विश्व मे फैला दे । जिस विश्वप्रेम का पाठ ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने पढाया था उसी पाठ को वर्तमान समय मे निर्ग्रन्थ श्रमरण-सस्कृति के सत जनता को पढ़ा रहे है और गाधीजी सरीखे पुरुषो ने विश्वप्रेम को अहिंसा के नाम से व्यवहारिक व राजनीतिक क्षेत्र मे भी प्रसारित किया है, जो कि आज सबके सन्मुख है और मेरा भी आदेश है कि मानव, मानव की आत्मा के साथ शुद्ध अहिसामय प्रेम स्थापित कर, अन्य सभी कर्मजनित सकुचित दायरो से ऊपर शुद्ध मानवता के अनुभाव का पूर्ण विकास हो । विचार-भिन्नता होने पर भी कार्य-क्षेत्र मे भिन्नता नहीं होनी चाहिए, मनभेद मनभेद को पैदा नही करे। जो राजनीतिक स्वतत्रता प्राप्त हुई है, उसका उपयोग महावीर की सर्वोच्च स्वाधीनता के लिए होना चाहिए । इमी में देश का गौरव है और गौरव है शुद्ध कर्मण्यशक्ति का।
महावीर ने दश वर्मो का वर्णन किया है, उसमे राष्ट्रवर्म का भी उल्लेख है । राष्ट्र अपने आप मे भौगोलिक सीमानो से वधा हुआ धर्म एव संस्कृति का एक वडा घटक होता है और उस सीमा तक कि वह धर्म विश्वप्रेम पर आघात न करे। गष्ट्र के प्रति निष्ठा एव भक्ति भी पूर्णतया आवश्या है । आज वही निष्ठा एव भक्ति भारतीयो के हृदयो मे पैदा होनी चाहिए कि देश का सम्मान बढे । जापान देश की एक छोटी-सी घटना बताई जाती
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महावीर को सर्वोच्च स्वाधीनता
है कि वहां एक भारतीय अपनी इच्छा के फल न मिलने के कारण जापान के प्रति निन्दात्मक वाते कह रहा था, जिसे एक गरीब जापानी ने सुन लिया। पह बडा विक्षुब्ध हुआ और कही से खोज-खाजकर वह फलो की टोकरी ले प्राया और उसने उस भारतीय को दे दी । भारतीय जव उसे दाम देने लगा तो उसने बडा मार्मिक जवाब दिया-महाशय, मुझे पैसा नही चाहिए, देश का मान हमारे लिए बडा है, जन्मभूमि का सम्मान हमे अपने जीवन से भी अधिक प्यारा है । आपसे इन फलो की मैं यही कीमत मांगता हूँ कि आप अपने देश में जाकर मेरे देश जापान को किसी प्रकार निन्दा न करें।
राष्ट्र के प्रति व्यक्त किया जाने वाला यह सम्मान देशवासियो मे गौरव का भाव उत्पन्न करता है और यही गौरव का भाव सकटों मे धैर्य,
भद मे नम्रता तथा कर्म मे कर्मठता को बनाए रखता है। जिन्हे अपनी प्रात्मा का गौरव होगा, वे कभी उसे पतित नहीं होने देगे, चाहे कितनी ही विवयतापूर्ण परिस्थितियां उनके सामने आकर खड़ी हो जाएँ ! अपनी धात्मा का गौरव वनाइए, उसे निभाइए और अपने साथियो के गौरव की न्क्षा कीजिए, फिर देखिए समाज और राष्ट्र का गौरव बनेगा और वह विश्व के गौरव मे ददलता जाएगा। छोटे से लेकर समूहो तक के जीवन विकास की यही कहानी है।
प्राज श्राप लोग भी स्वतयता के प्रतीक चक्रयुक्त तिरगे झडे का घभिवादन कर रहे है, स्वतत्रता पर भाषण-अभिभाषण हो रहे हैं किन्तु इन बाह्य क्रियायो मात्र ने स्वतत्रता का रक्षरण होने वाला नही है । इसके लिए तो अपने स्वार्थों का वलिदान चाहिए और चाहिए है वैसी कर्मठता जो त्याग की भूमि पर नुहृढना से गति कर रही हो । अगर ऐसा नहीं हुआ तो पया यह राजनीतिक स्वतत्रता टिक सकेगी और क्या महावीर की सर्वोच दाधीनता की साधना की जा सकेगी? इसलिए बन्धुयो, गणतत्र दिवस पर प्रतिज्ञा वीजिए कि श्राप गोंध रवाधीनता की अन्तिम सीमा तक गति करते ही रहेंगे। ॐ शाति । रसदन्त टॉकीज, घागरा
२६ जनवरी, १९५०
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जैन अहिंसा और उत्कृष्ट समानता "जय जगत् शिरोमणी, हु सेवक ने तू धणी " प्रार्थना मे कहा गया है कि हे जगत के शिरोमणि, हे प्रभु, तुम्हारी जय हो | मै तुम्हारा सेवक हूँ और तुम मेरे स्वामी हो । मैं आपसे पूर्श कि पया हमारे कहने से ही परमात्मा की जय हो और हमारे न कहने मे उसकी जय नही हो ? आपको यह प्रश्न कुछ अटपटा लगे किन्तु उतर स्पष्ट है । हमारे जय कहने या न कहने का परमात्मपद पर कोई असर नहीं पड़ता और न ही जिस श्रेणी मे सिद्ध विराजमान है, उनका हम सासारिक प्राणियो से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध है। यह जय तो हम अपने आत्मिक-जागरण के लिए कहते है कि उनका प्रदर्शित पथ हमारे अन्तर् मे रम सके और हम उनकी जय भी इसलिए कहते है कि वे पूर्ण पुरुप है । अपूर्ण की जय नही कही जाती । पूर्ण विजेता ही जयवान् होता है । जिस तरह कुम्हार का कच्चा घडा या रसोई मे रखा कच्चा सामान तृपा व क्षुवा सन्तुष्टि मे सहायक न होकर पक्का घडा व पक्वान्न ही वैसे हो सकते है।
तो उस प्रभु की जय इसलिए कहते है कि हम उसके प्रति वफादार बन सके । सेवक अगर स्वामी के प्रति वफादार न बन सके तो फिर उमका सेवकत्व ही क्या ? फिर परमात्मा का सेवक होना तो कोई छोटी बात नहीं है । साधारण स्वामी को तो अप्रत्यक्ष तरीके से छला भी जा सकता है लेकिन त्रिकाल ज्ञाता मर्वज्ञ प्रभु के प्रति वफादाने का अर्थ है कि अपने जीवन में एक निश्चित विधि से निश्छल साधना की जाय और इस माधना का प्रमुख रूप है कि परमात्मा के सभी सेवको की इस सृष्टि मे हम समानता की स्थिति पैदा करें । सभी परमात्मा के सेवक है-फिर उनके बीच
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जन प्रहिंसा और उत्कृष्ट समानता भेदभाव और विषमता क्यो ? एक सेठ का नौकर भी जब सेवा का कार्य करता है तो पुरस्कार पाता है और काम बिगाडता है तो तिरस्कृत होता है । फिर हम भी परमात्मा के सेवक बनकर यदि सृष्टि का सुधार करेगे तो ऊँचे चढते जाएँगे तथा अपने साथियो का अकल्याण करेगे पहले तो हमारा ही पतन होगा ?
अत परमात्मा की जय बोलते हुए इस सृष्टि मे उसके प्रति वफादार रहने का एक ही मार्ग है और वह है अहिंसा का मार्ग । इसीलिए जैनधर्म जा हृदय है अहिंसा- "अहिंसा परमोधर्म ।"
म सृष्टि मे रहते हुए सृष्टि को सुधारने वाला जो यह अहिंसा का सिद्धान्त है, वह क्या है ? यह गभीरता से सोचने और समझने लायक है। पहिला के पथ पर जो भी चला, उसने अपने विकास की चरम श्रेणी प्राप्त कर ली । प्रानन्द देकर जो आनन्द मिलता है, उसी के प्रकाशमान स्तभ अहिंसा पर हम यहाँ विचार करेगे ।
जनधर्म मे अहिंसा का जो स्वरूप-दर्शन तथा निरूपण किया गया है, वह सर्वाधिक सूक्ष्म है । यो तो अहिंसा को मान्यता सभी धर्म देते है किन्तु माथ-ही-साथ “धामिको हिसा हिंसा न भवति" का तर्क देते है अथवा माधुत्रो को भी सकट मे मासभक्षण का निर्देश करते है । वहाँ जैनधर्म की प्रात्मा अहिंसा है । “जय चरे, जय चिट्ठ " " हर कार्य इतनी यतना से होना चाहिए कि वह किसी भी प्राणी को तनिक-सा भी क्लेश देने वाला नहीं हो ।
से 'अहिता' शब्द स्वीकारात्मक न होकर नकारात्मक है । जहां हिंसा नहीं, वहाँ अहिला । ह्मिा की हमारे यहां व्याख्या दी गई है-"प्रमत्तयोगात् प्रणयपरोएण हिला"-प्रमाद के योग से किसी भी प्राण को हनना या प्लेश पहुँचाना हिना है । वने यह व्याख्या बहुत सीधी है, किन्तु मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जैनधर्म मे अहिंसा के न सिर्फ इस नकारात्मक पहलू पर गमीर प्रदान डाला गया है वरन् अहिंसा के स्वीकारात्मक पहलू पा सविस्तार अव्ययन किया गया है ।
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग
किसी भी प्राण को क्लेशित करने का नाम हिसा कहा गया है तो प्रश्न पैदा होता है कि प्रारण क्या ? जीववारी की जो सजीवता है वही उसका प्रारण है । प्रारण का धारक होने से ही वह प्राणी कहलाता है । प्राण १० प्रकार के बतलाये गए है
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१. एकेन्द्रिय वल प्राण
२. वेइन्द्रिय बल प्रारण
३. तेइन्द्रिय वल प्रारण
४. चौइन्द्रिय वल प्राण
५. पचेन्द्रिय बल प्राण
६ मन-बल प्ररण
७. वचन-बल प्राण
८. कायान्वल प्राण
६. श्वासोच्छ्वास बल प्राण १०. प्रायुष्य वल प्राण
प्रर्थात् प्राणी एकेन्द्रिय ( पृथ्वी आदि) से लेकर पचेन्द्रिय (पशु, मनुष्य आदि ) तक अपनी इन्द्रिय धारकता से होते हैं । इन्ही प्राणियों मे काया सूक्ष्म या स्थूल सबके होती है तथा मन और वचन की शक्ति किन्हीं प्राणियों में होती है और किन्ही मे नही होती । श्वासोच्छ्वास और श्रायुष्य का सम्वन्ध सभी प्राणियों से होता है । तो अब देखना यह है कि प्राणो को क्लेगित करने का क्षेत्र कितना लम्बा-चौडा है और हिंसा से बचने का प्रयास करना कितनी साधना का काम होता है ?
पहली बात तो यह कि प्रारण सिर्फ मनुष्य या पशु-पक्षियों में ही वर्तमान नही हैं, जिनका खयाल ग्रासानी से रखा जा सकता है, किन्तु छोटेछोटे कीडे-मकोडे श्रौर वनस्पति, पानी आदि के लघुकाय जीवो के भी प्राणो को यदि किसी प्रकार से हमारी त्रियाओ द्वारा कष्ट हिंसा है। किसी भी प्राणी को मारना, काटना या
पहुँचता है तो वह
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मारकर मास सेवन
करना - ये तो बहुत मोटी बातें है और हिंसा की दृष्टि से इसे सब जल्दी ही
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SHREE JAIN JAWAHAR PUSTAKALAYA
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PIER) [
पहिचान जाते है किन्तु छोटे-छोटे प्राणियों को न मारना या क्लेशित न करना विवेक का काम है ।
मेन महिला औरउत्कृष्ट समानती H
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इसके बाद हिंसा की व्याख्या मे न सिर्फ प्राणियो की काया को कप्ट देना हो सम्मिलित है बल्कि उनके मन, वचन, श्वासोच्छ्वास व आयुष्प तक का व्याघात करना या कम करना भी हिसक कार्यों मे गभित है यह बहुत बारीक बात है कि किसी के मन और उसकी वाणी पर भी अपने त्रियाकलापों द्वारा किसी तरह का व्याघात न पहुँचाया जाए ।
हिंसा का क्षेत्र इतना व्यापक है कि अगर इससे पूरे तौर पर बचना चाहे तो सासारिक जीवन के निर्वाह मे कटिनाइयाँ उपस्थित हो जाएँगी । इसलिए जैनधर्म में इसके लिए दो प्रकार के धर्मो का उल्लेख किया है कि साधु तो सभी प्रकार की हिंसा से अपने प्रापको बचाए किन्तु श्रावक (गृहस्थ ) फो भी कम-से-कम स्थूल हिंसा के कार्यों से तो अलग रहना ही चाहिए । जहाँ साधु के पहले महाव्रत मे सभी प्रकार की हिंसा का त्याग होता है, वहाँ श्रावक के पहले श्रणुव्रत के निम्न प्रतिचार बताये गये है, - - १ क्रोधवश किसी भी सजीव ( एकेन्द्रिय के सिवाय सभी इस जीव होते है ) को कठिनतापूर्वक बांधा हो, २ उसे घायल किया हो, ३ उनका चर्म-छेदन किया हो, ४ उन पर अधिक भार लादा हो, ५ उनका अन्न-पानी 'छुडाया हो । प्रकार के हिंसक कार्य करना श्रावक के लिए वर्जित है तथा इनमें से कोई कार्य उसमे क्रोधवश, प्रमादवश या अन्य रीति मे हो जाए तो उसके लिए उसे प्रतिक्रमण के रूप में प्रायश्चित्त करना होता है ।
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यह स्पष्ट है कि एक जैन श्रावक को भी कम-से-कम अनावश्यक हिसा नहीं करनी चाहिए और धीरे-धीरे उससे भी अपने ग्रापको बचाते हुए साधु-धर्म ती श्रोर उन्मुख होना चाहिए । एक सद्गृहस्थ के नाते उसके पास जितने भी पशु या नौकर-चाकर हो, इन प्रतिचारो मे स्पष्ट हो जाता है कि उनके साथ उसका कितना नहृदय व्यवहार होना चाहिए। क्योकि श्रावक मी प्रपने मन, वचन व काया से भी किसी प्रकार उनके प्राणो को क्लेशित नही करना चाहिए । थाप इस बात पर ध्यान दे कि ग्रहिसा साधना की
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जन-सस्कृति का राजमार्ग
इस प्राथमिक श्रेणी का भी पालन आपको पूरे तौर पर करना हो तो पाप मे मानवता का कितना ऊँचा दृष्टिकोण विकसित होना चाहिए।
इसके अलावा यह जो कुछ मैने अभी बताया है, वह तो अहिह्मा का नकारात्मक पहलू मात्र है कि हिमा मत करो, किन्तु जैनवमं मे इसके स्वीकारात्मक पहलू का भी विशद वर्णन है ।
अहिसा, का स्वीकारात्मक पहलू है कि प्राणो का रक्षण करो। पहली मीढी तो यह सही है कि अपनी ओर से किन्ही भी प्राणो को कप्ट मत दो। लेकिन क्या ससार और समाज मे रहते हुए विवेकशील प्राणियो का इस नकारात्मक रुख से ही अपना कर्तव्य समाप्त हो जाता है ? नहीं होता, क्योकि विभिन्न इन्द्रियो के प्राणियो मे विवेक, सामर्थ्य वा शक्ति की दृष्टि से काफी विभेद होता है और कम विवेक व सामर्थ्य के प्राणियो को अधिक विवेक व सामर्थ्य के प्राणियो की सहायता की अपेक्षा होती है तथा समान विवेक व सामर्थ्य के प्राणियो को भी अपने जीवन-सरक्षण हेतु परस्पर सहायता की भी अपेक्षा होती है । आपके सासारिक जीवन को ही देखिए-एक हो व्यक्ति अपने जीवन-निर्वाह के सारे साधन स्वय नहीं रच सकता है । किसान धान पंदा करता है तो कोई उसे इधर-से-उधर पहुंचाता है और फिर वह रसोईघर मे विविव क्रियायो द्वारा खाद्य-योग्य बनता है। इसी प्रकार अन्य प्रदार्थों की भी अवस्था है । तात्पर्य यह कि समाज में सबके पारस्परिक सहयोग से प्रत्येक के जीवन का अनुपालन व सरक्षण होता है ।
तो इसी दृष्टिकोण की बारीकियो पर अहिसा का स्वीकारात्मक पहलू जाता है कि प्राणियो को उनके जीवन के अनुपालन व सरक्षण में सद्भाव से सहायता करो, जीगो और जीने दो। इस पहलू से सहानुभूति, दया, करुणा, सहयोग प्रादि सद्गुणो की जीवन मे पुष्टि होती है और इसी पुष्टि से मानवता का विकास होता है । हिमा के निवृत्ति-धर्म से भी अहिंसा का यह प्रत्ति-धर्म अधिक ऊँचा माना गया है । एक व्यक्ति ठ नहीं योलता है, उससे ही उसका काम पूरा नहीं हो जाता। यह तो उसका नकारात्मक काम हुना किन्तु सत्य की साधना उसकी स्वीकारात्मक तब होगी जबकि
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जंन अहित्ता और उत्कृष्ट समानता
वह मूठ न बोले और सत्य बोले । दोनो पहनुओ का पालन जरूरी होता है । अगर कोई झूठ तो न बोले लेकिन सत्य बोलने का अवसर पाए और मौन रह जाए तो उसको पाप क्या कहेगे ? सत्य के प्रतिपादन के समय कोई मौन रसे तो वह अव्यक्त तीर पर ही सही किन्तु असत्य का प्रतिपादन करने वाला ही कहलायगा । उसी प्रकार हिसा से तो कोई निवृत्ति ले ले किन्तु अहिंसा मे प्रवृत्ति न करे, जीवन-सरक्षण की ओर लक्ष्य न बनाए तो उसे भी हिसक नहीं कहा जा सकता । अहिसा की प्रवृत्ति ही अहिंसा के ममुज्ज्वल स्वरूप को, विशेष रूप से सामाजिक जीवन मे प्रकाशित कर सकती है । एक ओर अहिसा हिसा से निवृत्ति करना सिखाती है तो दूसरी घोर अन्याय, अत्याचार, शोपण, दमन और दुर्व्यवहार का प्रतिरोध करके असहाय प्राणो को रक्षा पर बल देती है और पहले से भी दूसरा कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। क्योंकि प्रारणो को आप न मरने दे-यह ठीक है लेकिन उनके अस्तिव मे यदि उन्हे सुग्वपूर्ण बनाने की श्रद्धा न बनाई जा सके तो वह अहिंसा का पालन होना नहीं कहलाएगा । प्रारणी वचे, उनकी रक्षा हो और उनके जीवन के समुन्नत बनने की स्थिति बन सके-ये सभी पतंव्य अहिसक के होने चाहिए।
अव अहिंसा के इन दोनो पहलयो के महत्त्व पर इस दृष्टि से विचार कीजिए कि किसी भी प्राण को कप्ट न दिया जाए, बल्कि उन प्रारणो को वहाँ तक वन सके अग्ना सरक्षण भी दिया जाए। अहिसा की इस साधना मे सापक क मन, वचन एव फाया तीनो शुद्धिपूर्वक नियोजित होने चाहिए । में किसी के मन, वचन व काया को कप्ट न दू-यह तो हुई एक बात, लेकिन मग जा अहिग धर्म का पालन हो, वह मेरे शुद्ध मन द्वारा, वचन द्वारा तथा कर्म के द्वारा पूर्ण होना चाहिए । कोई काम दिखावे के लिए कहा जा सकता है या किया जा सकता है लेकिन अहिसा की साधना दिखावे या लोक-व्यवहार ने ऊपर अन्तर्हदय मे पैठनी चाहिए क्योकि अन्तर की प्रेरणा व सद्भावना ने जो वचन कहा जाएगा या कर्म किया जाएगा, उसमे वास्तविकता हामी तथा वही कार्य मन, वचन व काया की शुद्धि पर आधारित होगा।
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जन-संस्कृति का राजमार्ग
अत अहिंसा की आराधना के लिए मन, वाणी और कर्म तीनो मे एक माथ शुद्धि की आवश्यकता है, या यो कहे कि इन तीनो मे अहिंसा वृत्ति के महज प्रवेश पर ही अहिमा धर्म का सुचारु रूप से पालन किया जा सकता है। कई भाइयो का जा यह कथन है कि शरीर से मारने पर ही हिंसा होती है और इसलिए वे कहते हैं कि
मन जाए तो जाने दे, मत जाने दे शरीर ।
न खेंचेगा कमान तो, फंसे लगेगा तीर ।। किन्तु जैसा ऊपर बताया जा चुका है - यह कयन केवल एकागी य बाह्य दृष्टिकोण को प्रकट करता है । जैन शास्त्रो का वचन है कि शरीर की हिंसा से भी मन की हिंसा वडी होती है, क्योकि शारीरिक हिना का आधार भी मानसिक हिंसा ही होती है । इसके लिए शास्त्रो मे एक उदाहरण पाया है कि मानसिक हिंसा से आत्मा का कितना पतन हो सकता है ।
उदाहरण यह है कि समुद्र मे एक विशालकाय मगरमच्छ था । उसका मुंह जव खुला रहता तो छोटे-बडे कई मच्छ उसमे घुसते व निकलते रहते घे । उस समय उस विशालकाय मगरमच्छ की आँख पर बैठा हुमा एक सदुल मच्छ जो चावल के दाने के बराबर होता है-सोचता है कि इस मगरमच्छ के मुख मे कितने छोटे-बडे मच्छ स्वत ही जा रहे है किन्तु यह कितना मूर्ख है कि उन्हे निगल नहीं जाता। यदि मेरी ऐसी दशा होती तो मैं इन सव मच्छो को किसी भी हालत मे अपने मुह से बाहर नहीं निकलने देता । इन्ही सकल्प-विकल्पो मे बहता हुआ तन्दुल मच्छ वहां उसी समय मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तो कहा गया है कि उसको गति सातवी नरक मे होती है । अभिप्राय यह है कि केवल मानसिक हिंसा के कारण उन छोटे से प्राणी की भी ऐसी गति हुई । इसी प्रकार वाणी का घाव भी त नवार फा पाव माना गया है । अत आप लोगो को गभीर चिन्तन करना चाहिए फी अपने पापको अहिंसा धर्म के साधक कहने के पहले अपने जीवन को कितनी अद्भुत तैयारी होनी चाहिए ।
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SHREE JAIN JAWAHAR PUSTAKALALA
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BHINASAR BIKANER) •
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अन महिंसा और उत्कृष्ट समानती"
अपने प्रार्यदेश भारत और उसमें भी राजस्थान, मध्यभारत आदि कितने ही अन्य प्रदेश हैं जहां जैन-सस्कारो के कारण काफी भाइयो मे इतनी दयालुता मिलेगी कि उनको कहा जाय कि अमुक धनराशि ले लो और बकरे को अपने हाथो से काट दो तो सभावना है कि वे ऐसा न कर सकेंगे, बल्कि छोटे-छोटे प्राणियो की भी वे करुणा से रक्षा करते हैं । इस प्रकार शारीरिक हिंसा की तरफ उनको अपने मातृसस्कार, कुल परम्परा आदि की वजह से घृणा है किन्तु जरा मानसिक एव वाचिक हिंसा की तरह भी वे अपना ध्यान वढाएं तो अहिंसा के आन्तरिक प्रानन्द का उनमे भाभास बढ सकेगा । जो भाई छोटे-छोटे जीवो को नही मारने की प्रवृत्ति मात्र से अपने को कृतकृत्य समझते हैं, जिससे मालूम होता है कि मनुष्य की तरफ उनका ध्यान ही नही जाता।
प्राज के प्राधिक युग मे जिस प्रकार से मनुष्य का शोषण और दमन होता है, वह भी एक दर्दनाक परिस्थिति है । अपने साथी मनुष्य का दिल दुखाना, उसके प्रति कटु व्यवहार करना कटुवचन कहना एवं मन से ईर्ष्या, देष एव प्रतिस्पर्धा के क्षेत्र मे कइयो के प्रति बुरा चिन्तन करना, ये सव भाज की ऐसी बुराइयाँ है जिनकी पोर अहिंसा के साधक का ध्यान सबसे पहले जाना चाहिए । अहिंसा के जो ये मार्ग हैं, उन पर चलकर ही आत्मा का विकास भली-भांति साधा जा सकता है।
प्रब कल्पना कीजिए ऐसे समाज और विश्व को, जिसमे व्यक्ति यदि चाहिसा की साधना जनदृष्टि जो कि मानवीय दृष्टि है, के अनुसार करने लगे पौर उसी रीति ने प्रपने पारस्परिक व्यवहार को ढालें तो सभव है कि यहां शोषण और दमन रह जाएं, व्यक्तियो और राष्ट्रो के बीच शत्रुता एव कटुता रह पाए ? बार इसका उत्तर है कि यह सनव नही है । अहिंसा का पथ राजपथ है जिन पर चलकर इहलोक और परलोक दोनो का भली-भांति निर्माण किया जा सकता है ।
हिमा का साधन वीरो का है । कायर तो नवते पहले मानसिक हिंसा से है प्रधिक पीडित है । ऐना व्यक्ति मानसिक हिंसा से दूसरो को तो गिरा
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग सके या नही, किन्तु अपने आपको तो बहुत गहरे अवश्य ही गिरा डालता है । साघु और श्रावक के भी अहिंसा व्रतो का जो ऊपर उल्लेख किया गया है उनका भी उद्देश्य यही है कि मन, वाणी और काया से अधिकाविक अहिंसा के दोनो पहलुप्रो का पालन किया जा सके।
इसलिए मेरा श्राप लोगो से कहना है कि यदि आप अपने आपको परमात्मा का वफादार सेवक बनाना चाहते हैं और इस सृष्टि मे उत्कृष्ट समानता का वातावरण बनाना चाहते हैं तो समग्न रूप से अहिंसा का पालन कीजिए । जैनदृष्टि सभी आत्माओं मे समानता की मान्यता रखती है क्योकि मूल रूप मे सवमे कोई भेद नहीं है-विकास की न्यूनाधिकता दूसरी बात है। तो प्रात्मानो की यह समानता अहिंसा की साधना से प्रत्यक्ष रूप से प्राप्त की जा सकती है। अहिंसा ही वह सशक्त साधन है जिसके द्वारा प्रात्मसमानता यानी परमात्मा-वृत्ति के साध्य को साधा जा सकता है ।
स्थान
अलवर (राजस्थान),
७-८-१९५१
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स्याद्वाद : सत्य का साक्षात्कार
आज प्राप लोगो के बीच यूरोप सड मे स्थित हगरी देश के प्रमुख विद्वान् डॉ० फेलिक्स वैली भी उपस्थित हैं । वैसे ये बौद्धधर्म के विशेषज्ञ है किन्तु जैन दर्शन के प्रति भी इनका प्रति आकर्षण व प्रादर है और उसी प्रेरणा से ये प्राज जैन सिद्धान्तो की विशेष जानकारी के लिए यहाँ आये हुए है ।
जैनधर्म श्रात्म-विजेताओ का महान् धर्म है । जिन्होने रागद्वेष श्रादि अपने श्रान्तरिक विकारो पर विजय प्राप्त करके सयम एव साधना द्वारा निर्मल ज्ञान प्राप्त कर अपनी आत्मा को उत्थान के मार्ग पर अग्रसर किया है, उन्हे हमारे यहाँ 'जिन' (विजेता) कहा गया है तथा इन विजेताओ द्वारा प्रेरित दर्शन का नामाकन जैन दर्शन के नाम से हुना । प्रत. यह दर्शन किसी व्यक्ति विशेष, वर्ग विशेष या शास्त्र - विशेष की उपज नही, बल्कि इसका विकास उन ग्रात्मानो द्वारा हुधा है, जिन्होंने सारे सांसारिक ( जातीय, देशीय सामाजिक, वर्गीय प्रादि) भेदभावो व यहाँ तक कि स्वपर को भी विसर्जित कर प्रपने जीवन को सत्य के लिए होम दिया । यही कारण है कि इसका यह स्वरूप इसकी महान् प्राध्यात्मिकता व व्यापक विश्व बन्धुत्व वा प्रतीक है |
जैनो का प्रधान साध्य सत्य का साक्षात्कार करना है, जिसके प्रकाश मे जीवन का कण-कण श्रालोकित होकर चरम विकास को प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए जैनदर्जन के सभी सिद्धान्त साधन रूप वनकर उक्त साध्य की कोर गमनशील बनाते है । इसमे भौतिकवादी दृष्टिकोण को प्रमुखता न देकर प्राध्यामिकताको विशिष्ट महत्व दिया गया है, क्योकि समस्त प्राणी समूह की सेवा के लिए यह प्रनिवार्य है कि सासारिक प्रलोभोको छोटकर प्रात्मवृत्तियो का शुद्धिकरण किया जाय, जिसके विना
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जैन-सस्कृति का राजमार्ग इस अनवरत संघर्षशील जगत् के बीच स्व-पर-कल्याण सम्पादित नहीं किया जा सकता । सक्षेप मे जैन-दर्शन विश्वशान्ति के साथ-साय व्यक्तिशान्ति का भी मार्ग प्रशस्त करता है।
तो मै यहाँ पर जैन दर्शन की मौलिक देन स्याद्वाद या अनेकान्तवाद पर कुछ विशेप रोशनी डालना चाहता हूँ। जिस प्रकार सत्य के साक्षात्कार मे हमारी अहिंसा स्वार्थ-सघर्षों को सुलझाती हुई आगे बढती है, उसी प्रकार यह स्याद्वाद जगत् के वैचारिक संघर्षों की अनोखी सुलझन प्रस्तुत करता है। श्राचार मे अहिंसा और विचार मे स्याद्वाद-यह जनदर्शन की सर्वोपरि मौलिकता कही है। स्याहाद को दूसरे शब्दो मे वाणी व विचार को अहिंसा के नाम से भी पुकारा जा सकता है।
स्यावाद जैनदर्शन के आधारभूत सिद्धान्तो मे से एक है। किसी भी वस्तु या तत्त्व के सत्य स्वरूप को समझने के लिए हमे इसी सिद्धान्त का आश्रय लेना होगा । एक ही वस्तु या तत्त्व को विभिन्न दृष्टिकोणो से देखा जा सकता है और इसलिए उसमे विभिन्न पक्ष भी हो जाते हैं। अतः उसके सारे पक्षो व दृष्टिकोणो को विभेद की नहीं, बल्कि समन्वय की दृष्टि से समझकर उसकी यथार्थ सत्यता का दर्शन करना इस सिद्धान्त के गहन चिन्तन के आधार पर ही सभव हो सकता है। आज के विज्ञान ने भी प्रव तो सिद्ध कर दिया है कि एक ही वस्तु की कई बाजुएं हो सकती हैं और उसमे भी ऐसी बाजुएँ अधिक होती हैं, जिनका स्वरूप अधिकतर प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष ही रहता है। अतः इन सारे प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष पक्षो को समझने के बाद ही किसी भी वस्तु के सत्य स्वरूप का अनुभव किया जा सकता है। ___इसलिए यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी वस्तु-विशेष के एक ही पक्ष या दृष्टिकोण को उसका सर्वांग स्वरूप समझकर उसे सत्य के नाम से पुकारना मिथ्यावाद या दुराग्रह का कारण बन जाता है। विभिन्न पक्षी या दृष्टिलोगो के प्रकाश मे जब तक एक वस्तु का स्पष्ट विश्लेपण न कर लिया जाय, तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि हमने उस वरतु का गर्वाग
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ITI
I
PUUTARA
GRINASIR BIKANER) • स्यावाद • सत्य का साक्षात्कार
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स्वरुप समझ लिया है । अतः किसी वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणो के आधार पर देखने, समझने व वरिणत करने से विज्ञान का नाम ही स्याद्वाद या अनेकान्तवाद या अपेक्षावाद (Science of Versatility or Relativity) कहा गया है।
जैनदर्शन का यह स्याद्वादी दृष्टिकोण किसी भी वस्तु के यथार्थ स्वरूप को हृदयगम करने के लिए परमावश्यक साधन है। इसके जरिये सारे दृढवादी या सढिवादी विचारो की समाप्ति हो जाती है तथा एक उदार दृष्टिकोण का जन्म होता है, जो सभी विचारो को पचा कर सत्य का दिव्य प्रकाश शोधने में सहायक वनता है। स्याद्वाद का यह सिद्धान्त हमारे सामने सारे विश्व की वैचारिक और तदुत्त्पन्न सार्वदेशिक एकता सुनहला चित्र प्रस्तुत करता है। मैं यह साहस के साथ कहना चाहूंगा कि यदि इस सिद्धान्त को विभिन्न क्षेत्रो मे रहे हुए ससार के विचारक समझने की चेष्टा करे तो कोई सन्देह नहीं कि वे अपनी सघर्षात्मक प्रवृत्ति को छोड़कर एक दूसरे के विचारो को उदारतापूर्वक समझकर उनका शान्तिपूर्ण समन्वय करने की श्रोर प्रागे वढ सकेगे।
इससे पूर्व कि स्याहाद के विशिष्ट महत्व को विस्तार से समझा जाय, जगत के वैचारिक संघर्ष की पृष्ठभूमि को पूर्णतया समझ लेना जरूरी है ।
मनुष्य एक विचारगील प्राणी है तथा उसका मस्तिष्क ही उसे सारे प्राणी समाज मे एक विशिष्ट व उच्च स्थान प्रदान करता है । मनुष्य सोचता है रवय हो और स्वतन्त्रतापूर्वक भी, प्रत उसका परिणाम स्पष्ट है कि विचारो को विभिन्न दृष्टियां ससार मे जन्म लेती हैं। एक ही वस्तु वे स्वस्प पर भी विभिन्न लोग अपनी-अपनी अलग-अलग दृप्पियो से सोचना शुरू करते हैं । यहाँ तक तो विचारो का क्रम ठीक रूप मे चलता है। किन्तु उमसे नागे क्या होता है कि एक ही वस्तु को विभिन्न हप्टियो मे सोचकर उनके रदरप को समन्वित करने की ओर से नहीं रुकते । जिसने एक वस्तु की जिस विशिष्ट दृष्टि को सोचा है, वह उसे ही वस्तु का सर्वाग स्वस्प घोपित कर अपना ही महत्त्व प्रदर्शित करना चाहता है । फल यह होता है कि एकान्तिक
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जन-संस्कृति का राजमार्ग दृष्टिकोण व हठधर्मिता का वातावरण मजबूत होने लगता है और वे ही विचार जो सत्य ज्ञान की ओर बढा सकते थे, पारस्परिक समन्वय के प्रभाव मे विद्वेषपूर्ण सघर्ष के जटिल कारणो के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं । तो हम देखते है कि एकांगी सत्य को लेकर जगत के विभिन्न विचारक व मतवादी उसे ही पूर्ण सत्य का नाम देकर संघर्ष को प्रचारित करने मे जुट पड़ते हैं । ऐसी परिस्थिति मे स्याहाद का सिद्धान्त उन्हे बताना चाहता है कि सत्य के टुकडो को पकडकर उन्हे ही आपस मे टकराम्रो नहीं, बल्कि उन्हे तरकीब से जोड़कर पूर्ण सत्य के दर्शन की ओर सामूहिक रूप से जुट पडो। अगर विचारो को जोडकर देखने की वृनि पैदा नहीं होती व एकांगी सत्य के साय ही हठ को बांध दिया जाता है तो यही नतीजा, होगा कि वह एकांगी सत्य भी सत्य न रहकर मिथ्या मे बदल जायगा। क्योकि पूर्ण सत्य को न समझने का हठ करना सत्य का नकारा करना है। अत यह आवश्यक है कि अपने दृष्टि विन्दु को सत्य समझते हुए भी अन्य दृष्टि विन्दुओ पर उदारतापूर्वक मनन किया जाय तथा उनमे रहे हुए सत्य को जोडकर वस्तु के स्वरूप को व्यापक दृप्टियो से देखने की कोशिश की जाय । यही जगत के वैचारिक संघर्ष को मिटाकर उन विचारो को प्रादर्श सिद्धान्तो का जनक बनाने की सुन्दर राह है।
सर्व साधारण को स्याद्वाद की सूक्ष्मता का स्पष्ट ज्ञान कराने के लिए मैं एक दृष्टान्त प्रस्तुत कर रहा हूँ।
एक ही व्यक्ति अपने अलग-अलग के रिश्तो के कारण पिता, पुत्र, फाका, भतीजा, मामा, भानजा प्रादि हो सकता है। वह अपने पुत्र की दृष्टि से पिता है तो इसी तरह अपने पिता की दृष्टि से पुत्र भी । ऐमे भी अन्य सम्बन्धी के व्यवहारिक उदाहरण प्राप अपने चारो ओर देखते है । इन रिश्तो की तरह ही एक व्यक्ति मे विभिन्न गुणो का विकास भी होता है। अतः यही दृष्टि वस्तु के स्वरूप मे लागू होती है कि वह भी एक साथ सतअसत, नश्वरअनवर, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, क्रियाशील-प्रक्रियाशील नित्य-अनित्य गुणो वाली हो सकती है। जैसे एक ही व्यक्ति मे पुत्रत्त्व व पितृत्त्व दो विरोधी गुणों का
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स्यावाद सत्य का साक्षात्कार
सद्भाव सभव है, क्योकि उन गुणो को हम विभिन्न दृष्टियो से देख रहे हैं। उसी प्रकार एक ही वस्तु विभिन्न अपेक्षानो से नित्य भी हो सकती है तथा अनित्य भी। जब स्थूल सासारिक व्यवस्था भी सापेक्ष दृष्टि पर टिकी हुई है तो वस्तु के सूक्ष्म स्वरूप को हठ मे जकड़कर एकान्तिक बताना कभी सत्य नही हो सकता । यह ठीक वैसा ही होगा कि एक ही व्यक्ति को अगर पुत्र माना जाता है तो वह पिता कहला नहीं सकता और इसकी असत्यता प्रत्यक्षत सिद्ध है । चाहे तो यह सासारिक व्यवस्था ले लीजिए या सिद्धातो को स्वरुप विवेचना-सव सापेक्ष दृष्टि पर अवलम्बित है। अगर इस दृष्टि को न माना जायगा व सवन्धित सारे पक्षो के आधार पर वस्तु के स्वरूप को न समझा जायगा तो एक क्षण मे ही जागतिक व्यवस्था मिट सी जायगी। शाचर्य यही है कि स्थूल रूप से जिस सापेक्ष दृष्टि को अपने चारो ओर सासारिक व्यवहार मे वेचा जाता है, उसी सापेक्ष दृष्टि को वैचारिक सूक्ष्मता के क्षेत्र मे भुला दिया जाता है और फलस्वरूप व्यर्थ के विवाद उत्पन्न किये जाते है । एक क्षण के लिए सोचिये कि अगर एक व्यक्ति को 'एकान्त रूप से' पिता ही समझा जाय तो यह कथन कितना वेहूदा होगा कि वह पिता ही है यानी सबका पिता है, आपके पिता का भी पिता है। घत साफ है कि एकान्त दृष्टिकोण को सामने रखकर उसके सम्बन्धित अन्य दृष्टिकोणो को न समझने का हठ करना भी ठीक इसी तरह वेहूदा कहा जायगा । एकान्त दृष्टिकोण एक तरह से सत्य ज्ञान को विशृखलित करने वाला है।
__ यहाँ यह शका की जा सकती है कि एक ही वस्तु मे दो विरोधी धर्म एक साथ कैसे रह सकते हैं ? शकराचार्य ने यह आपत्ति उठाई थी कि एक हा पदार्थ एक साथ नित्य और अनित्य नही हो सकता जैसे कि शीत और जण गुण एक साथ नही पाए जाते किन्तु शका ठीक नही है । विरोध की पका तो तव उठाई जा सकती है जबकि एक ही दृष्टिकोण-अपेक्षा से वस्तु को नित्य भी माना जाय और अनित्य भी। जिस दृष्टिकोण से वस्तु को ए माना गय, उसी दृष्टिकोण से यदि उसे अनित्य भी माना जाय तव
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जैन-सस्कृति का राजमार्ग
तो श्रवश्य ही विरोध होता है, परन्तु भिन्न-भिन्न दृष्टियो की आज्ञा से भिन्नभिन्न गुण मानने मे कोई विरोध नही श्राता, जैसे एक व्यक्ति उसके पुत्र की अपेक्षा से पिता माना जाता है व पिता की अपेक्षा से पुत्र, तब पितृत्व व पुत्रत्व के दो विरोधी धर्म एक ही व्यक्ति मे अपेक्षा भेद से रह सकते हैं, उसमे कोई विरोध नही होता । विरोध तो तव हो जब हम उसे जिसका पिता माना है, उसी का पुत्र भी माने। इसी तरह भिन्न-भिन्न प्रपेक्षा से भिन्नभिन्न धर्म मानने मे कोई विरोध नही होता। मैं यहाँ किसी एक ही दिशा मे बैठा हुआ हूँ | लेकिन मेरे सामने श्राप लोग अलग-अलग दिशाओ मे मुख किए बैठे हैं श्रोर श्रतः श्राप लोग अपनी-अपनी अपेक्षा से मुझे अलग-अलग दिशा मे बैठा हुआ बतला सकते है । जो मेरे सामने बैठे हैं, उनकी अपेक्षा से मैं पूर्व मे बैठा हुआ हूँ और पीछे वालो की अपेक्षा से परिचय मे तथा इसी तरह दायें और बायें बैठे वालो की अपेक्षा से दक्षिण व उत्तर मे । इस तरह अपेक्षा भेद से मुझे अलग-अलग दिशा मे बैठा हुआ बतलाने मे कोई विरोध पैदा नही होता । एक ही वस्तु छोटी झोर बडी दोनो हो सकती हैं परन्तु उनसे वडी व छोटी वस्तु की अपेक्षा से । अतः विरोध की शका प्रकट करने मे शकराचार्य ने स्याद्वाद के सिद्धान्त को सम्यक् प्रकार से समझने का प्रयास नही किया प्रतीत होता है । तात्पर्य यह है कि स्याद्वाद न तो विरुद्ध धर्मवाद है और न सशयवाद । वह तो वस्तु के सत्य स्वरूप को प्रकट करने वाला यथार्थवाद है ।
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जैनदर्शन की मान्यता के अनुसार प्रत्येक पदार्थ उत्पन्न होने वाला व नष्ट होने वाला और फिर भी स्थिर रहने वाला बताया गया है । " उत्पादयवदभौव्य युक्तं सत्" यह पदार्थ के स्वरूप की व्याख्या है | श्राश्चर्यं मालूम होता है कि नष्ट होने वाली वस्तु भला स्थिर कैसे रह सकती है, किन्तु स्याद्वाद ही इसको सुलझना देता है । ये तीनो पर्याये सापेक्ष दृष्टि से कही गई है । एक दूसरे के बिना एक दूसरे की स्थिति बनी नही रह सकती है । उदाहरण स्वरूप समझ लीजिये कि एक सोने का कडा है और उसे तुडा कर जंजीर बनाली गई तो वह सोना कड़े की अपेक्षा से नष्ट हो गया एक
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स्यावाद : सत्य का साक्षात्कार
जजीर की अपेक्षा से उत्पन्न हो गया, किन्तु स्वर्णत्व की अपेक्षा से वह पहले भी था और अब भी है, वह उसकी स्थिर स्थिति हुई। पदार्थ की पर्याय बदलती है। उसमे पूर्व पर्याय का विनाश व उत्तर पर्याय की उत्पत्ति होती रहने पर भी पदार्थ का द्रव्य स्वरूप उसमे कायम रहता है। इस तरह पर्यायाथिक नय (दशा परिवर्तन ) की अपेक्षा से पदार्थ अनित्य है और द्रव्यापिक नय (स्थिर स्थिति ) की अपेक्षा से नित्य भी है। यही स्याद्वाद का मार्मिक म्दरूप है।
स्याहाद का यह स्वरूप एक ओर जैसे सभी दार्शनिक विवादो को समाप्त कर देता है, उसी तरह दूसरी ओर जगत के समस्त वैचारिक सघर्षों का भी समन्वयात्मक समाधान प्रस्तुत करता है। आज जब कि भीषण ग्वतपात, वैर-विरोध, घृणा, हिंसा, वर्ग-विद्वेष, साम्प्रदायिकता व स्वार्थपरता के लम्बे युग के अत्याचारो से विश्व मे भयकर अगान्ति फैली हुई है, मनुप्यो के मस्तिष्को का शान्तिपूर्वक एकीकरण विश्व शान्ति का सबसे बड़ा योगदान साबित हो सकता है। दो दो विश्व-युद्धो के वीभत्स तांडवकारी दृश्य प्राज भी सबकी खिो के सामने घूम जाते है-वह भुखमरी, वह बर्बरता और सबसे बटा हिरोशिमा (जापान) पर फेंके गये उस अणुबम का विन्गशक पडाका । परन्तु प्रारचर्य कि भले ही ऊपर से शान्तिवार्ताएं चल रही हैं, युद्ध समाप्ति के नारे लगाये जा रहे हैं, किन्तु अणुवम से भी भयकर उद्जन वमो व नत्रजन बमो का उत्पादन किया जा रहा है और उस समय के महाविनापा की कल्पना तक नहीं की जा सकती, जब कभी दुर्भाग्य से ऐसे दाम्य. पाम गे लाये जाएंगे।
दूसरे अब जो घन्दर-ही-अन्दर प्रशान्ति की ज्वाला बढ़ती जा रही है, उसे एक तरह से दिमागो या विचारो के युद्ध का ही नाम दिया जा सकता है। यह युद्धो का नया तरीका है और सबसे अधिक खतरनाक तरीका भी। जद तया विचारो की लडाई समाप्त नहीं होगी, तब तक इस बात की शंका कतई नहीं मिट सकती कि दुनिया के पटल पर ने युद्धो का गौरव भी रात्म हो सकता है। विचारो की कहामका समाप्त होने पर ही मानद
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जैन-सस्कृति का राजमार्ग समाज का मस्तिष्क सन्तुलित व समन्वित हो सकेगा और तभी वह अपनी वर्वरता के पिछले इतिहास को हमेशा के लिए भला सकेगा।
अाज इस तथ्य मे कोई सन्देह नहीं कि विचारो की हिंसक प्रतिद्वन्द्विता के कुपरिणामो को ससार अनुभव भी करने लगा है और उसके फलस्वरूप चाहे नेता लोग न चाहते हुए भी बोल रहे हो, पर कहा जा रहा है कि साम्यवाद व पूंजीवाद दोनो विचार प्रणालियां शान्तिपूर्वक एक साथ चलकर अपनी-अपनी व्यवस्थाएं कायम रख सकती है। यह अनुभूति इस सत्य की ज्वलन्त प्रतीक है कि अव मनुष्य विचारो के दुखद संघर्ष को सहन करते रहने की स्थिति में नही है और इसलिए मानव समाज को अब स्याद्वाद के समन्वयवादी व अपेक्षावादी सिद्धान्त की ओर झुकना ही होगा । यही सत्य को साक्षात करने का रास्ता है और इसी मे मानव जाति के शान्तिपूर्ण 'विकास का रहस्य छिपा हुआ है ।
स्याद्वाद के सिद्धान्त को जैनदर्शन का हृदय कहा जाता है । जैसे हृदय शुद्ध किया गया सभी अंगो मे समान रूप से सचारित करता न रह सके तो शरीर का टिकना कठिन ही होगा। उसी तरह स्याद्वाद सभी सिद्धान्तो को समझने में समन्वय की उदार भावना की बराबर प्रेरणा देता रहता है। जैनदर्शन की सबसे बडी विशेषता तो यहां है कि वह अपनी मान्यता के प्रति भी हठवादी (दुर्नयी) नही है। वहीं तो सत्य से प्रेम किया जाता है और निरन्तर अपने स्वरूप को सत्य के रग मे रगा रखने मे परम सन्तोप की पनुभूति की जाती है । सत्य की प्राराधना जैनदर्शन का प्राण है। वह न अपनी मान्यता के विषय मे दुराग्रही है और न दूसरो की मान्यताप्रो का किसी भी रूप मे तिरस्कार करना चाहता है। वह तो केवल यह चाहता है कि समस्त विश्व पूर्ण सत्य के स्वरूप को समझने के सही राह पर ही आगे बढे।
स्यादाद एक तरह से ससार के समस्त विचारको व दार्शनिको का आह्वान करता है कि सब अपने प्रापसी हठवाद व एकागी दृष्टिकोणो के शलह को त्याग कर एक साथ बैठो तथा एक दूसरे की विचारधाराओ को
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स्याद्वाद सत्य का साक्षात्कार
स्पष्ट रूप से प्रादान-प्रदान करो। इस तरह जब सामूहिक रूप से व शुद्ध जिज्ञासा व निर्णय बुद्धि से सम्मिलित विचारविमर्श किया जायगा, उनका मन्यन होने लगेगा तो जरूर ही छाछ छाछ पदे मे रह जायगी श्रौर साररूप मक्खन ऊपर तैर कर था जायगा । तब स्याद्वाद का सन्देश है कि उन विचारधाराप्रो के समूह मे से असत्य प्रशो को निकाल कर अलग कर दो, हठवाद, एकान्तवाद चोर अपने ही विचारो मे पूर्ण सत्य मानने की दुराग्रही वृत्तियो को पूरे तौर पर तिलाजलि दे दो । इसके बाद सबको मस्तिष्क और हृदय की शक्तियो के सम्मिलित सहयोग से सत्य के भिन्न-भिन्न खडो का चयन करो उन्हें जोड़ कर पूर्ण सत्य के दर्शन को श्रोर उन्मुख होश्रो । सूंढ हो हाथी है, पांव ही हाथी है या पीठ ही हाथी है, मान सकते रहने से कभी भी हाथी का असली स्वरूप समझ मे नही प्रायगा बल्कि ऐसा हठाग्रह करने पर तो ऐसा मानना एकागी सत्य होने पर भी हाथी के पूर्ण स्वरूप की दृष्टि से प्रनत्य ही कहलाया । श्रत सिद्धान्तो घोर विचारो के क्षेत्र मे इसे गभीरतापूर्वक समझने व सुलझाने की जरूरत है कि सूंड ही हाथो नही है । पांव हापी नही है या पीठ ही हाथी नहीं है, बल्कि ये सब अलग-अलग हिस्से मिलकर पूरा हाथी बनाते हैं । श्राज उन ग्रघो की तरह हाथी देखने की मनोवृत्ति चल रही है - दया तो दार्शनिक क्षेत्र में घोर क्या वैचारिक क्षेत्र में उसे इस स्याद्वाद के प्रकाश मे सुष्ठु बना देने का श्राज महान् उत्तरदायित्व आा पड़ा है । क्योकि अगर वर्तमान में फैला हुआ विचार सघर्ष और अधिकाधिक जटिलता का जामा पहनता गया तो ग्राश्चर्य नही कि एक दिन पिछले युद्धों से भी अधिक खौफनाक युद्ध ससार व मानव जाति को विकसित विचारणीय सरकृति को बुरी तरह तहस-नहस कर डालेगा |
विश्व शान्ति का प्रश्न धर्म, सभ्यता व संस्कृति के विकास तथा समस्त राशियों के हित का प्रश्न है । कोई भी व्यक्ति चाहे किसी भी क्षेत्र मे कार्य कर रहा हो, इस प्रश्न से प्रदश्य ही सम्बन्धित है । इस प्रश्न की सही सुलभन पर ही मानवता को वास्तविक प्रगति का मूल्याकन किया जा सकता है रवि गान्ति की नीव को मजबूत करने का श्राज की परिस्थितियो में
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जैन - संस्कृति का राजमार्ग
सबसे प्रमुख यही उपाय है कि चारो ओर फैला हुआ विचारो का विषैला विभेद शान्त किया जाय और एक दूसरे को समझने के उदार दृष्टिकोण का प्रसार हो सके ऐसे व्यापक वातावरण का सर्जन जैनदर्शन के स्याद्वाद सिद्धान्त की सुदृढ प्राधारशिला पर ही किया जा सकता है । यदि प्रत्येक व्यक्ति व सामूहिक रूप से विभिन्न राष्ट्र व समाज इस स्याद्वाद दृष्टि को अपने वैचारिक क्रम मे स्थान देने लगे तो विश्व शान्ति की कठिन पहेली सहन ही मे शान्ति व सद्भावना से हल की जा सकती है । इस महान् सिद्धान्त के रूप मे जैनधर्मं विश्व की बहुत बडी सेवा बजाने मे समर्थ है, क्योकि अन्य दर्शनो की तरह जैनधर्म कभी भी साम्प्रदायिकता के बन्धनो मे नही वधा और इसलिए अपनी व्यापकता व विशालता को निभाता हुआ विश्व के समस्त प्राणियो के हितसम्पादन का महान् सन्देश गुजायमान करता रह सका | जैनदर्शन के अन्य सिद्धान्तो की विवेचना अन्यत्र की गई है, किन्तु यदि हृदय स्वरूप इस एक सिद्धान्त पर ही पूरा-पूरा ध्यान दिया जाय तो कई विषय समस्याएं सुलझ जायेंगी और तब मानवता के विकास का मार्ग निष्कंटक हो सकेगा ।
उपसंहार रूप मे मुझे यही कहना है, जो कि इस शास्त्रवाक्य मे कहा गया है- "थि सत्येण परेण परं, नत्थि असत्य परेण परं"
सत्य का साक्षात्कार ही जीवन का चरम साध्य है । जीवन उन श्रनुभवो व विभिन्न प्रयोगो का कर्मस्थल है, जहाँ हम उनके ज़रिये सत्य की साधना करते हैं, क्योकि सत्य ही मुक्ति है, ईश्वरत्व की प्राप्ति है । जीवन के आचार-विचार की सुघडता व सत्यता मे व्यक्ति, समाज व विश्व की गाति रही हुई है तथा इसी चन्द्रमुखी शान्ति के शुभ्र वातावरण मे ऊँचे-से-ऊँचा श्राध्यात्मिक विकास भी सबके लिए सरल वन सकता है । श्रत विचारों की उदारता, पवित्रता शान्तिपूर्ण प्रेरणा की जागरुकता के लिए श्राज स्याद्वाद के सिद्धान्त को वडी वारीकी से समझने, परखने व ग्रमन मे लाने की विशेष श्रावश्यकता था पड़ी है, जिसके लिए मैं भाशा करूँ कि सब तरफ से उचित प्रयास अवश्य किये जायेंगे । - महावीर भवन, बारादरी, चांदनी चौक, दिल्ली
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कर्मवाद का अन्तर्रहस्थ
"सुविधि जिनेश्वर वदिये हो, चन्दत पाप पुलाय..... "
मनुष्य स्वय ही अपने व समाज के भाग्य का निर्माता है-इस तथ्य को जब-जब उससे भुला देने की कोशिश की गई, तब-तब मानव समाज मे शिथिलता व अकर्मण्यता का वातावरण फैला । किसी अन्य पर अपने निर्माण को प्राश्रित बनाकर विकास करने का उत्साह मनुष्य मे नही बन पड़ता, चाहे वैसा पाश्रय खुद ईश्वर को ही सौपा गया हो । मनुप्य गतिशील प्राणी है और जहाँ भी उसे गतिहीन बनाने का प्रयास किया गया कि उसका विकास रुक गया। मनुष्य स्वय ही पर आश्रित रह सकता है, किसी अन्य पर उसे प्राश्रित दताकर उसको गतिशील नही बनाया जा सकता है।
सुविधि जिनेश्वर को की गई पर्युक्त प्रार्थना मे भी इसी तथ्य को प्रकाशित किया गया है कि रवय प्रात्मा ही अपने पुरुषार्थ से विकास करता हुमा परमात्म पद को प्राप्त करता है। ईश्वरत्व कोई ऐसा अलग पद नहीं है, जहाँ कभी भी प्रात्मा की पहुँच न हो या ईश्वर ही धरती पर अवतार लेकर महापुरुष के रूप मे जगदुद्धार करता है तथा साधारण प्रात्मा को वह राती नहीं, ऐसी मान्यता जैनधर्म नहीं रखता। वह तो हर प्रात्मा पी महान शक्ति में विश्वास करता है । जैन दृष्टि के अनुमार अात्मा ही परमात्मा बन जाता है, भवत रदय भगवान बन कर दिव्य स्थिति को प्राप्त पार लेता है घोर पाराधका एक दिन प्राराध्य के रूप में अपने उच्चतम विरप को ब्रहण फारता है और जनधर्म के इस प्रगतिशील विकासवाद का मूलाधार तिसान है, वर्मवाद का सिरान्त ।
भारत की नैयायिक, वनेपि, नाग्य, पौराणिक, योग प्रादि अन्य नभी दानि परम्प ए मा गैर परमात्मा के बीमौलिक भेद को ती"- बरती जानना है कि पात्मा विकास करता है, निवारण
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग भी प्राप्त करता है और ईश्वर के स्थान में प्रवेश भी करता है, किन्तु स्वय ईश्वर नही बनता । वह सिर्फ ईश्वरीय प्रश बनकर ही निवास करता है। उनके इस कथन की पृष्ठभूमि यह है कि ईश्वर तो सिर्फ एक है व एक ही रहेगा। परन्तु जैनधर्म इस दृष्टि को स्वीकार नहीं करता और उसका कारण ईश्वर को मानने के मूलरूप मे विभेद का अस्तित्व है। ईश्वर एक है व एक रहेगा, ऐसा अन्य दर्शन मानते हुए यह बताते है कि ईश्वर मृष्टि का रचयिता भी है । अतः ईश्वर अनेक मानने मे आपत्ति पड़ती है। लेकिन जैनधर्म शुद्ध मानव-विकासवाद की आधारशिला पर स्थित है और इसलिए वह ईश्वर के सृष्टि कर्तृत्व को नही मानता । परिणामस्वरूप जनदर्शन मे ईश्वरत्व एक पद माना गया है जो प्रात्मा के चरम विकास का सुफल है और इसलिए मुक्तात्मा ही ईश्वर है । उसके समान ही सभी मुक्तात्माएं भी शुद्ध, बुद्ध. निरजन, निर्विकल्प रूप ग्रहण कर लेती हैं। प्रात्म-द्रव्य की मौलिक अवस्था की अपेक्षा श्रात्मा और परमात्मा मे कोई भेद नहीं। सिद्ध और ससारी जीवो के बीच का भेद वास्तविक नही, सिर्फ कर्ममूलक है और इस भेद को साधना की शुद्धता से पाटा जा सकता है।
श्रतः कर्मवाद का सिद्धान्त इम सत्य का प्रतीक है कि प्रासी के लिए कोई भी विकास, चाहे वह चरम विकास के रूप मे ईश्वरत्व की प्राप्ति ही क्यो न हो, असभव नही। वह स्वय कर्ता है और फल भोक्ता है । अब इस कर्मवाद की व्यवस्था का विश्लेषण किया जाय, उससे पूर्व प्रात्मा के स्वरूप व उसमे होने वाले अन्तर को इस जगत-क्रम की पाश्वभूमि मे समझ लेना पावश्यक है।
जैनदर्शन का यह मतव्य है कि प्रात्मा का मूलम्बम्प परम विगुद्ध अनन्त ज्ञान-दर्शन सुख एव शक्तिनय तथा निरजन, निर्विकल्प, मुक्त और स्वतंत्र है। अपने मूलरूप मे प्रात्मा सूर्य के समान प्रकागमान है किन्तु जीवात्मा के अपने कर्तव्यो के दादल एकत्रित हो-हो कर पात्मा को ढरते रहते हैं। यह क्रम सृष्टि मे चलता रहता है, जिसकी कोई प्रादि नहीं । जैनधर्म का मानना है कि सृष्टि का श्रम प्रादि व अन्त विहीन है और
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कमवाद का अन्तर्रहत्य इसलिए ईश्वर की रचना नहीं। सृष्टि तो स्वत. परिणमनशील है । जीव प्रोर जड के संयोग से इसकी गति चलती रहती है और यह सयोग ही विभिन्न कर्तव्याकर्त्तव्य का कारण तथा तदनुसार फलाफल का परिणाम होता है। तो इस सृष्टि की गति मे प्रात्मा पर प्रावरण चढता जाता है और उसी आवरण को धीरे-धीरे साधना के बल पर जब काटना शुरू किया जाता है तो एक दिन वही प्रात्मा अपनी विशुद्ध स्थिति में पहुंच जाता है एव वही विशुद्ध स्थिति मुक्त या ईश्वरत्व की स्थिति है। ___तो हमने देखा कि संसार मे गति करते हुए जीवात्मा अपने विशुद्ध स्वरूप मे हका हुआ रहकर उससे विस्मृत व विशृखलित-सा बन जाता है और उसकी इस विशृखलता की स्थिति के साथ ईश्वर का कोई सम्बन्ध नही होता । श्रत यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि उस विशृखलता को बनाने और मिटाने दाली कौन शक्ति है ? दास्तव मे वह शक्ति तो चेतन ही है किन्तु उस दिग्वलता का लेखा-जोखा बनाये रखने वाले जड़ कमपुद्गल होते हैं, जिनके शाधार पर जीवो को उनके कार्यों का यथावत् परिणाम मिलता रहता है। इस तरह यह कर्मवाद का सिद्धान्त चेतन को कर्मण्यता व प्रात्म-निष्ठा की प्रोर सजग रखता है किन्तु उसके साथ ही कर्मपुद्गलो के बन्ध का विश्लेपण वारके उसकी मजगता को स्थायी बनाये रखना चाहता है । अपना प्रकर्तव्य कभी भी मिट नही जायगा, बल्कि प्रावरण की एक परत वनकर श्रात्मा के गुर स्वर प को घेरता रहेगा और जब तक एक-एक करके वे प्रावरण की सब परतें न कट जायेंगी, प्रात्मा अपने विशुद्ध स्वरूप मे नही पहुंच सना, ऐसी विचारणा ने व्यक्ति के प्रपने कागें मे एक पोर जहां मन्तुतन व सयमन भाता है, वहां उसी मात्रा मे कर्मण्यता का उत्साह व पुरुषार्थ पी प्रदीपता भी छा जाती है।
फर्मवाद की विचारणा के छे जो मजबूती है, वह स्वतः प्रेरित पल्वाद की धारणा है। मगर फलवाद का कार्य ईश्वर पर छोडा जाय,
सा वि अन्य दर्शन मानते है तो दही प्राधित अवस्था पैदा हो जाने पर मनुष्य में से रवाध्य का भाव जाता रहेगा और तदुपरान्त प्रगति की भोर
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जन-संस्कृति का राजमार्ग
मढने की वैसी लक्ष्यसाधित विचारणा उसमे बनी न रह सकेगी । अन्य सभी दर्शन कर्म व फल की परम्परा को स्वीकार करते है किन्तु " मा फलेषु कदाचन" के साथ । कर्म जीव कर सकता है किन्तु फल तो ईश्वर के हाथ है, उसी की प्रेरणा से सब कुछ चुकता है । जीव अपने सुख-दुख मे स्वतत्र नही है
अज्ञो जन्तुरनीशः स्यादात्मनः सुख-दुःख यो । ईश्वरः प्रेरितो गच्छेत् स्वर्गं वा श्वभ्रयेव वा ॥
तो इस फलवाद की दृष्टि को गम्भीरतापूर्वक पहले समझ लेना जरूरी है क्योकि इसकी समझ के बिना कर्मवाद का वास्तविक स्वरूप ठीक समझ मे नही आ सकता ।
जैनधर्म कर्म - फलदाता के रूप मे ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नही करता । जैसे ईश्वर सृष्टि रचना के पचड़े मे नही, उसी तरह उसकी गति के पचड़े मे भी नही । जिस प्रकार जीव कर्म करने मे स्वतंत्र है उसी तरह फल प्राप्त करने मे भी । वही शुभाशुभ कर्म करता है और उनका शुभाशुभ - फल पाता है । जीव सम्वद्ध कर्म में ही यह स्वभाव है कि वह अपने कर्ता को उसके यथावत् फल से प्रभावित कर देता है । यह बात में दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट कर दूं । मनुष्य चेतन है श्रोर मदिरा जड है, किन्तु जब एक मनुष्य मदिरा का पान कर लेता है तो मनुष्य से वह सम्बन्ध होने के कारण इतनी शक्तिशाली वन जाती है कि मनुष्य नशा न श्राने देने को कोशिश भी करे किन्तु नशा लाएगी ही । किन्तु इसमे यह मानने की जरूरत नहीं पडती कि मनुष्य मदिरा पीता है, ठीक है परन्तु उसे नशा देने के लिए श्रर्थात् मदिरा पीने का फल प्राप्त करने के लिए किसी अन्य शक्ति की श्रावश्यक्ता पडेगी । जिस तरह मदिरा स्वयं अपने पीने वाले को फल भुगता देती है, उसी तरह कार्य करने के साथ उस स्वभाव के कर्मपुद्गल, जो जीव के साथ भुगता देते है । अतः जैनधर्म ईश्वर प्रदत्त फलवाद को न मानकर स्वत कर्मफलवाद विश्वास रखता है ।
एक बात और कही जाती है कि चूंकि प्राणी अच्छे और बुरे दोनो
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४६ कर्मवाद का अन्तर्रहस्य तरह के कार्य करता है किन्तु वह बुरे कर्मों का फल भोगना नही चाहता, प्रत ईश्वर न्यायाधीश के समान उसे उचित फल देता है और न्यायव्यवस्था को कायम रखता है। किन्तु इस तर्क मे भी कोई बल नही है । क्योकि यदिरा पीना तो मनुष्य के हाथ था, किन्तु पीने के बाद उसके प्रभाव को भुगतना पडता है । तेल मर्दन किया हुआ व्यक्ति वालूकणो मे न बैठे तब तक उसके वश की बात पर बैठने के बाद तो वे करण चिपक ही जायेंगे। उसी तरह कर्म करने मे प्रात्मा स्वतन्त्र है किन्तु स्वत. चालित प्रणाली हारा यदि निकाचित् कर्मबन्ध हो जाय तो उसके फल को न रोका या निकचित् की अपेक्षा वदला ही जा सकता है। अपने आप काम करने वाली तौलने की मगीन मे 'पाप इकन्नी डाल देंगे तो वाद मे तो तोल का टिकट बाहर निकल ही जायगा, उसे रोका नहीं जा सकता । इकन्नी न डालना वह दूसरी बात थी, लेकिन डालने के बाद तो उस डालने वाले का भी कोई वया नही रहता, उसमे से टिकट निकल ही पडेगा । अतः कर्म करने के बाद प्राणी को 'Sclf reguleter' की तरह जो किया है, उसका यथावत् फल पाना ही पडेगा। परन्तु जिस तरह अपने आप काम करने वाली तोलने पी मशीन पर किसी मगीनमैन को बिठाने की ज़रूरत नही रहती, वह तो अपने पाप ही काम कर लेती है, उसी प्रकार जब स्वतःप्रेरित व्यवस्था से पाणी को अनिवार्य रूप से अपने कर्मो का यथावत् फल प्राप्त हो जाता है तो न्यायाधीश का रूप लेकर ईश्वर को बीच मे पाने की कोई आवश्यकता नही रहती । कर्मफल के इस व्यवस्थाक्रम मे जीव और जडकर्म के अतिरिक्त सौर किसी की भी अपेक्षा नहीं है ।
स सम्बन्ध गे एक और का उठाई जाती है कि कर्म तो पोद्गलिक , जर , नगे फल देने की भक्ति कहाँ से प्राई ? उसके लिए तो चेतन राग्ति चाहिए प्रौर एसलिए फलदान का प्राधार ईश्वर को ही मानना पगा।लकाका सगाधान भी ऊपर हो के विश्लेपण से हो जाता है। कार्ग च्य जर है, यह सही है किन्तु जब उन। सम्पर्क जीव के साथ होता
तो ना सम्पनी ऐनी नक्ति पैदा हो जाती है जिसके कारण वे
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जैन-संस्कृति का राजनार्ग जीव पर अच्छा बुरा प्रभाव डाल सकते हैं। जैसे नेगेटिव और पोजिटिव तत्व जब तक अलग-अलग रहते हैं तब तक उनसे विजली पैदा नहीं होती, किन्तु जब ये दोनो तत्व मिल जाते हैं तो एक शक्ति-विजली पैदा हो जाती है। आज के विज्ञान ने तो इस तथ्य को एक नही कई प्रयोगो से सिद्ध कर दिया है। जड़ स्वय गतिशील नहीं होता किन्तु चेतन द्वारा सम्बन्धित होने पर प्रभावशील हो जाता है। एक मदिरा की बोतल भरी है पर उस रूप मे वह मनुष्य पर कोई असर नही कर सकती, किन्तु ज्यो ही मनुष्य उसे पी जाय, उसका असर साफ होने लगेगा और आपको मदिरा की शक्ति स्पष्ट दीखने लगेगी। किन्तु यह ध्यान मे रखने की कोई चीज़ है कि उस शक्ति को उत्पत्ति मदिरा और मनुष्य के सम्पर्क से हुई। प्रतः कर्मफल का चुनाव जीव और कर्म पुद्गल के सम्पर्क का ही परिणाम है, उसके बीच ईश्वर को डालना तो उसको ईश्वरत्व से छुटाकर सासारिकता के पचडे मे डालना है। क्योकि अगर ईश्वर को फलदाता माना जाय तो उसे सारे सासारिक मनोविकारो मे पाना पड़ेगा, कारण कि सृप्टा भी तो वही माना जाता है। वही शेर को भी पैदा करे और बकरी को और उसी की प्रेरणा से गेर अपने शिकार को ढूंढता चलता हुप्रा बकरी के पास पहुंचा जाय और फिर उसी की प्रेरणा से वह उसे खा जाय, तब फिर ईश्वर खडा होकर शेर को बकरी की हत्या का कुफल दें, ऐसा व्यवस्थाक्रम समझ में न आने लायक ही क्रम प्रतीत होता है । ईश्वर का स्वरूप रागद्वेप रहित, विकारहीन, परम दयालु, सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान माना गया है, परन्तु अगर उभे अनुग्रह, निग्रह करने वाला, ऊंच-नीच पैदा करने वाला व उन्हे कर्तव्याकर्तव्य दोनो की प्रेरणा देने वाला और फिर उनके लिए ही दड-विधान करने वाला माना जायगा तो इस सृष्टि के सारे दुखो, सारे पापो और सारे विकारो का उत्तरदायित्त्व उसके ही मत्थे मढा जाना चाहिए । यही नही किन्तु अपनी ही रचना का फल निर्दोष प्राणियो को भुगनाने की एवज मे उसे क्रूर भी कहा जाना चाहिए। दूसरे अगर ईश्वर भी कर्मानुसार ही फल देता है तो कर्मों का प्राधान्य ही हुआ, ईश्वर का ईश्वरत्व ही क्या ? किन्तु वास्तव
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TARALH EHINASAR (BIKANER) - ' . -1 कर्मवाद का अन्तर्रहस्य मे ऐसा व्यवस्थाक्रम है नही और ईश्वर फलदाता के रूप मे समझा नहीं जाना चाहिए । जीव स्वय कर्मों का कर्ता है और स्वय फल का भोवता है, यही सुलगत सिद्धान्त है । कहा भी है
स्वय कृत फर्म यदात्मना पुरा, फल तदीय लभते शुभाशुभम् । परेग दत्त यदि लभ्यते स्फुट,
स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तरा॥ अर्थात् जीव स्वय जो पहले कर्म करता है, उसी का शुभाशुभ फल प्राप्त होता है । यदि दूसरे के द्वारा दिया गया शुभ या अशुभ फल उसे मिले तो उसके किये हुए कर्म निरर्थक हो जाते हैं।
यहां एक शका की जा सकती है कि जब शुभ कर्म का फल शुभ ही तथा अगभ कर्म का फल प्रगुभ ही होता है फिर कई लोग शुभ कर्म करते हए शुभ फल भोगते वयो देखे जाते हैं व इससे विपरीत भी । इसका समाधान यह है कि तीनो कालो की पारस्परिक सगति पर कर्मवाद अवलम्बित है। वर्तमान का निर्माण भूत के प्राधार पर व भविष्य का वर्तमान के श्राधार पर होता है। अतः शुभ कर्म का फल अगुभ व इसके विपरीत प्ररथा मे यह मानना चाहिए गि वह फल उसके पूर्वजन्मकृत कर्मों का मिल रहा है । जो अभी दिया जा रहा है, उससे उनके भविष्य का निर्माण होगा ।
पब जन दर्शन की मान्यतानुसार वर्ग के स्वरूप पर मैं आपके मामने मुर रोदानी चालना चाहूंगा।
प्रमुखतया वर्ग के दो रप माने गये है- (1) भावार्म और (६) यव । भादवम प्रात्मगत समार-विपयो की उपग है जैसे मोह ६ गगोप यादि जो मान के कारण घात्मा की नावित अवस्था के सोलक ने है। जिनको देवान्त मे माया, मान में प्रकृति, बौद्ध में वामना, नमामिद ने मानदि नामों में कहा गया है। इन भावकों के द्वारा
मापने पास-पान हे माहिम परमाणुमो को प्राप्ट वरता है
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग और उन्हे विशिष्ट रूप देता है, जिन्हे द्रव्यकर्म या कामणि शरीर कहा जाता है। जीव की रागद्वेष रूप जैसी परिणति उस समय होती है, उसके अनुसार उन भौतिक सूक्ष्म परमाणुप्रो मे कर्मफल देने वाली शक्ति उसी प्रकार पैदा होती है जिस तरह संघर्षण से विद्युत । ऐसी कर्मफल शक्ति युक्त कामरिण वर्गणा को 'कर्म' कहते हैं । प्रात्मा इन सूक्ष्म परमाणुओ को अपनी
ओर उसी तरह आकृष्ट करता है जिस प्रकार ब्रॉडकाटिसा स्टेशन पर बोले गये शब्दो को बिजली के जरिये फेंके जाने से वे सारे वायुमण्डल से सम्बद्र हो जाते हैं। प्रत्येक क्रिया का उसके आसपास के वातावरण मे असर होता है जीव भी जब मन, वचन या काया से कोई क्रिया करता है तो उसके समीपवर्ती वातावरण मे हलचल मचती है और कामणि वर्गणो के सूक्ष्म परमाणु आत्मा की ओर आकर्षित होते है। इस तरह यह कर्मवाद की प्रक्रिया का क्रम चलता है।
इस प्रक्रिया द्वारा जो पुद्गल प्रात्मा से सम्बद्ध हो जाते हैं, वे ही जीव को शुभाशुभ फल का सवेदन कराते हैं तथा जब तक ये सम्बद्ध रहते हैं, श्रात्मा को मुक्ति की ओर प्रयाण करने से रोकते हैं । एक योनि से दूसरी योनि मे भी प्रात्मा को ये ही भटकाते हैं तथा ये ही बादल बनकर प्रात्मा के सूर्य को आच्छादित किये रहते हैं।
कर्मवाद का यह सूक्ष्म विवेचन जैन दर्शन की ही मौलिक देन है । अन्य दर्शनी मे जन्मजन्मान्तर की परम्परानो का वर्णन है किन्तु कार्मण शरीर की सूक्ष्म मान्यता अन्यत्र नहीं मिलती। हां, वेदान्त मे माना गया लिंग शरीर व न्याय वैशेषिक परम्परा का अणु रूप मन इमी मान्यता की प्रस्पष्ट छाया अवश्य है । जैन साहित्य मे कर्म प्रवृत्ति की प्रमुफ काल तक फल देने की शक्ति, फल देने की तीव्रता या मन्दता और यात्मा के साय बंधने वाले कर्म परमाणुप्रो का प्रमाण जिन्हे पारिभाषिक शब्दो मे प्रकृति बघ, स्थिति बंध, अनुभाग वध और प्रदेश वध कहते है श्रादि का बडा ही गहग विशद् वर्णन विया गया है, जिन्हे समझने के लिए काफी विस्तार की आवश्यक्ता होगी।
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कर्मवाद का अन्तरंहस्य
कर्म के विभिन्न भेदो को समझने के पूर्व यह समझना जरूरी है कि वे भेद कसे पैदा होते है, जब कि कार्मण वर्गणा के पुद्गल तो एक-से ही होते है ?
जिस प्रकार भोजन प्राभाशय मे जाकर पाचन क्रिया द्वारा विभिन्न रूपो मे बदल जाता है, उसी प्रकार जीवन की भावना के अनुसार इन कामण पुद्गलो मे भी विभिन्न प्रकार की शक्ति पैदा हो जाती है और वे विविध शक्तियां अत्मा की विभिन्न शक्तियो को आच्छादित कर देती है। प्रत' प्रात्मा की विभिन्न शक्तियो, गुगो को प्राच्छादित करने के कारण उन गुणो के आधार पर कर्मों का वर्गीकरण किया गया है। इस तरह कर्मो के भेद पाठ माने गये हैं
(१) ज्ञानावरणीय कर्म-जो कर्म सर्व पदार्थो को स्पष्टतया जानने की प्रात्मा की शक्ति को हक लेता है तथा इस प्राच्छादन के गाढेपन के अनुसार ही प्रात्मा की ज्ञानशवित न्यूनाधिक हो जाती है। ज्यो-ज्यो प्रावरणो की परते पटती जायंगी, ज्ञानशक्ति अधिकाधिक प्रकाशित होती जायगी।
(२) दर्शनादरणीय फर्म-यह प्रात्मा की दर्शन शक्ति का निरोधक है पोर उस द्वारपाल की तरह है जो इच्छक को राजा के दर्शन करने से रोक देता है।
(३) वेदनीय कर्म-मात्मा के प्रवाध सुख को ढंककर यह उसे वेदना (सुख दुःखकर) मा अनुभव बराता है । यह वर्म गत से सनी हुई छुरी को जीभ से चाटने के समान बताया गया है ।
(४) मोहनीय धर्म-मदिरापान की तरह इसके द्वारा प्रात्मा की विवेक रावित ढंक जाती है अर्थात् प्रात्मा-परमात्मा के विषय में तथा जड. चेतन के भेद विज्ञान को व तदनुसार सम्यक प्राचार स्प विवेक को पाच्छादित करता है और वह दिवारो द वषायो मे फंस जाता है। यह प्रात्मा को अपने वास्तविक स्वरूप से ही विस्मृत कर देता है, अतः यह यात्म विकास पासव से जारी है। ज्योही यह पूर्णतया वटेगा, मात्मा अपने मूलरूप.
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग परमात्मरुप मे पहुंच जायगा।
(५) श्रायुकर्म-यह प्रात्मा को जीवन की सीमाप्रो मे बांधता है और बेडी की तरह उसके स्वातत्र्य गुण पर प्राघात करता है ।
(६) नामकर्म-प्रात्मा के अमूर्त गुण को घात करके यह चित्रकार की तरह नाना शरीरो के रूप बनाता है और उन्हे विभिन्न रूपो मे रगमच पर लाता है।
(७) गोत्र कर्म-प्रात्मा की समान शक्ति को विषम बनाने का काम यह कर्म करता है । बाह्य रूप से देश, जाति, गोत्र गत भेदो को यही पैदा करता है।
(८) अन्तराय कर्म-मात्मा के असीम पौरुप का यह कर्म अवरोध किये रहता है । मन्त्रबद्ध सर्प की तरह इस कर्म के वश मे प्रात्मा अपने पराक्रम को प्रकट करने मे अशक्त बना रहता है ।
उपरोक्त कर्मो मे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्म ये चार प्रात्मा के मूलगुणो का घात करने से घाती तथा शेष चार अघाति कर्म कहलाते हैं।
रक्त मे फैले हुए रोग कीटाणुमो को नष्ट करने के लिए जैसे उसके सफेद करणो को पुष्ट किया जाता है, उसी तरह जो आत्माएं अपने पौरुप व सयम की धवलता एकत्रित करते हैं, उस शक्ति द्वारा कर्मों की शक्ति को विनष्ट कर देते है और ज्यो-ज्यो कर्मों की शक्ति नष्ट होती चली जाती हैं, प्रात्मा के वे गुरण अधिकाधिक स्पप्टता से प्रकट होते चले जाते हैं। म प्रकार कर्म-जाल को पूरी तरह काट देने पर प्रात्माएं सिद्ध, वुद्ध, युक्त और अजर-अमर हो जाती है।
यहां यह समझ लिया जाय कि प्रात्मा एक बार पूर्ण सूत्र मे होने के बाद फिर से कम से सम्बद्ध नहीं हो सकती, क्योकि मुक्त अवस्था मे उसकी क्रियाएं समाप्त हो जाती है। फिर कारण के अभाव मे कमंबन्ध के कार्य का होना भी सभव नही माना जा सकता। जैन धर्म अवतारवाद में विश्वास नहीं करता, जिसके अनुसार मुक्त भी पुन अवतार धारण कर ससार
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कर्मवाद का अन्तरंहस्य में प्राता है। प्रत कर्म और प्रात्मा का सम्बन्ध अनादि है क्योकि उसके प्रारम्भ की जानकारी ज्ञान सीमा के बाहर की बात भी है, लेकिन इनका सम्बन्ध शान्त है अर्थात् एक दिन दोनो का सम्बन्ध समाप्त होकर प्रात्मा अपने मूल रूप में पहुंच सकता है। अनादि चीज अनन्त ही हो, शान्त नहीं, ऐनी का व्यर्थ है क्योकि भूगर्भ मे सोना और मिट्टी युगो से साथ रहने पर भी एक दिन खोदकर अलग कर दिये जाते हैं, इसी तरह विकास के प्रयलो मे पररपर सम्बद्ध चेतन व जड़ भी पृषक हो सकते हैं।
कर्मवन्धन के प्रधान कारणो का उल्लेख करते हुए जैन शास्त्रों मे कहा गया है कि मोह, अनान या मिथ्यात्व, यही सब से बडा कारण है नयोकि इसी के कारण रागद्वेष का जन्म होता है व तज्जन्य विविध विकारो से प्रात्मा कर्म से लिप्त हो जाती है । तत्त्वार्थ सूत्र मे कर्मवन्ध के कारण पर पहा गया है
सिपापाय त्याज्जीव. फर्मरणो योन्यान् पुद्गलानादन्ते स बन्धः।"
रागषात्मक कापाय परिगति से प्रात्मा कर्मयोग्य पुद्गलो को नव पहरण करता है तो वही दन्ध है तथा इसके कारण मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, पपाय और योग दताये गये हैं। यह उल्लेनीय स्यिति है कि कर्मवन्ध का मुख्य कारण गहर की प्रियाएं उतनी नही, जितनी प्रान्तरिक गावनाएँ मानी गई है । गरीर पर घाव करने की बाह्य क्रिया एक-सी होते हए भी छुरेवाज हत्यारे व सर्जन टॉक्टर के अध्यवसायो का जो अन्तर है, वही पार्मबन्ध घी मूल भित्ति है । "मन. एव मनुष्याणां कारण बन्धमोक्षयोः ।" श्रत धर्मवन्धन से बचने के लिए भावनानी की विगुद्धि की पोर सर्वप्रयम tणन दिया जाना चाहिए । रियानो मे अनासक्त भाव का प्रावत्य बनाने रे दिवारी का प्रभाव नहीं पड़ता। गैलेपी नामकी क्रिया मे तो अनासक्ति मण, मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों का सम्पूर्ण निरोष ही कर लिया लता है।
यामंदद से नर्दधा मुक्त होने के लिए नये पाने वाले कर्मो को रोकना करता है। इस रोपने वो नंबर तथा जिन योतो से कर्म पाते हैं, उन्हें ।
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग कहा गया है । प्रास्रव का निरोध सवर है । सम्यक् जान, दर्शन व चारित्र्य की शक्तियो से प्रात्मा के विकार-कर्मों को दूर करना चाहिए ताकि आत्मा कर्म मुक्त होकर अपने मूल रूप की ओर गति कर सके।
इस तरह जैन धर्म का कर्मवाद सिद्धान्त मानव को अपना निज का भाग्य स्वतः ही निर्माण करने की प्रेरणा देने के साथ ही उसे जीवन की ऊंची-नीची परिस्थितियो मे शान्ति, उत्साह, सहनशीलता और कर्मठता का जागरूक पाठ पढाता है। अपने पर छा जाने वाली आपत्तियो के बीच भी वह उन्हे अपना ही कर्मफल समझकर शान्तिपूर्वक सहन करने की क्षमता पैदा करता है तथा उज्जल भविष्य के निर्माण हित सद्प्रयत्नो मे प्रवृत्त हो जाने पर दृढ़ निश्चय कर लेता है। कर्मवीर को मानकर वह पूर्वकृत कर्मो के फल को अपने कर्ज चुकने की तरह स्वीकार करता है । कर्मवाद के जरिये मनुष्य मे स्वावलवन व प्रात्म विश्वास के सुदृढ भाव जागृत होते हैं और यह इस सिद्धान्त का सब से बडा व्यवहारिक मूल्य है।
कर्मवाद का यही सन्देश है कि जो स्वरूप परमात्मा का है, वही प्रत्येक प्रात्मा का है, किन्तु उसे प्रकटाने के लिए विजातीय-भौतिक पदार्थों से मोह हटाकर सजातीय आत्मिक शक्तियो को प्रकाशित करना होगा। सुविधिनाय की प्रार्थना का यही सार है कि अपने चरम सजातीय परमात्मा से प्रेम करके एक दिन यह प्रात्मा भी कर्मबन्ध से विमुक्त होकर उनके सदृश स्वरूप ग्रहण कर ले। स्थानदिल्ली
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अपरिग्रहवाद थाने स्वामित्व का विसर्जन
मनायें कैसे प्राज महादीर
शान्ति क्रान्ति कर धीर । ध्रुव० भगवान् महावीर वर्तमान जैन गासन के नायक हैं । यद्यपि २३ तीर्थदर महावीर से पहले हो चुके हैं और महावीर २४ वे तीर्थङ्कर थे। फिर उन २३ तीर्थरो का देश-काल पृथक् था। अाज जो उपदेश प्रसारित व जैन शासन चल रहा है, वह भगवान् महावीर द्वारा आदेशित कहलाता है। यह भी सही है कि अन्य तीर्थर व भगवान् महावीर के उपदेशो मे कोई प्राधारगत भेद नहीं है किन्तु फिर भी देश-काल की परिवर्तित परिस्थितियों के अनुसार सचेल-अचेल, चार महाव्रत-पाँच महाव्रत प्रादि मे अन्तर पाया। समयानुसार भगवान् महावीर ने उन पर नवीन प्रकाश भी डाला, जिनमे में प्राज अपरिग्रहवाद पर प्रापको जैन दृष्टिकोण समझाना चाहता हूं।
वैसे प्राज महावीर जयन्ती मना रहे हैं और श्वेताम्बर दिगम्बर की सरप्रदायिक दीदारे तोड कर सोचा जाय तो सभी महावीर के समान उपासका है। यह प्राज जो सामूहिक कार्यत्रम बनाया गया है उसे मैं जागृत ही वाहूंगा।
जयन्ती समारोह तो अच्छा है किन्तु इस अवसर पर दो वातें आप लोग सोचे । पहली तो यह कि महावीर ने किन प्रमुख सिद्धान्तो को प्रतिपादित विया घोर उनका सत्य स्वरूप क्या है ? यह अध्ययन, उपदेश धवरण व पटनपाठन का विषय है । जिस मोर मापकी प्रवृत्ति नजग होनी चाहिए ताकि पहले तो माप रदय अपने सिद्धान्तो का ममं समझ सकें और ग्राप उन्हें सग ग वर दूसरों को भी समझावें । विदोप प्रचार के प्रभाव मे अच्छे शिक्षित संग में भी जन-धर्म के प्रति नई ब्रान्त धारणाएं है। उसे कोई कहते है कि ऊन तो वैदिक धर्म की एक सामान है किन्तु यह गलत है .
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग ग़लतियाँ तभी मिटेंगी जब माप लोग जैन सिद्धान्तो का विशिष्ट प्रचार करके उनके सही स्वरूप को लोगो के सामने प्रकाशित करोगे । जयन्ती समारोह के 'दिन इस समस्या को विशेष रूप से दिल मे उतार कर समाधान निकालना • चाहिए।
यह एक निरी आस्था की बात नहीं, ऐतिहासिक चक्र की गति है कि जब-जब चारो ओर विकृतियां फैलती हैं, समाज में गिरावट फलती है तो उसके विरुद्ध एक क्रान्ति भी भडकती है और वही क्रान्ति घनीभूत होकर युग पुरुष की रचना करती है । "यदा यदाहि · " का एक दृष्टि से यही रहस्य है । भगवान महावीर के जन्म के पहले की स्थितियां भी कुछ ऐसी ही 'विकृति हो चली थी। ब्राह्मणो का जीवन ऐश्वर्य से विलासी हो गया था,
"वैदिकी हिंसा हिसा न भवति" का नारा लगाकर धर्म के मूल गुणो को "भूल रहे थे तब एक क्रान्ति के रूप मे महावीर अवतरित हुए। हमने अभी 'प्रार्थना की-''शान्ति क्रान्ति कर धीर" के अनुसार उन्होने शान्ति क्रान्ति करके समाज मे एक परिवर्तन पैदा किया और एक तरह से ब्राह्मण वर्ग के स्वयंभू दमन के विरुद्ध उन्होने जन-जन की आत्मा को जगाया कि आत्मा ही अपने सुख दुःख का कर्म है, वही अपना मित्र और शत्रु है
अप्पा कत्ता विफत्ताय, दुहारण्य सुहागय ।
अप्पा मित्त ममित्तं च, दुप्पडियो सुघड़ियो । उस युग मे कुछ लोगो के ऐश्वर्य एवं विलासिता तथा बहुजन के दुख को देखकर महावीर विकल हो उठे। उन्होने अपने कल्याण के लिए दूसरो की दासता छोड़कर अपनी ही आत्मा को जागृत करने और बलवती बनाने की प्रेरणा दी।
जैनधर्म को महावीर ने जो स्वरूप दिया, वह मुख्यत. प्रवृत्ति-कारक नहीं होकर, निवृत्तिवादी था । उन्होने बताया कि जीवन नश्वर है और इस नश्वर जीवन मे यदि कोई वृत्ति समस्त दुःखो का मूल है तो वह है ममत्त्व वृत्ति, गृह दृष्टि । जीवन मे यदि पैनी दृष्टि से देखा जाय तो परिस्थितियां या कि पदार्थ सुख या दुख नही देते बल्कि सुख-दुख देती है वह दृष्टि जो उन
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मपरिग्रहवाद याने स्वामित्व का विसर्जन
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लोग
परिस्थितियो और पदार्थो के सम्बन्ध मे बना ली जाती है । उदाहरण के लिए यदि एक मकान श्रापके स्वामित्त्व का है और श्रापके सामने कुछ प्राकर उसे गिराने लगे तो आप कितने परेशान हो उठेगे ? आप विरोध करेंगे, भागेगे धौर आवश्यक कार्यवाही करायेगे । तो उस मकान के साथ चूंकि प्रापका अपना स्वामित्त्व अपना ममत्त्व लगा हुआ है इसलिए उसकी सर्वाधिक चिन्ता श्रापको होती है । कल्पना कीजिये कि ऐसी ही स्थिति किसी दूसरे के मकान के साथ गुजरती है तो उसके साथ श्रापका ममत्त्व नही होने से प्रापको वह पीडा नही होगी। इसके विपरीत श्राप अपने निज के मकान
हे या कि वैसे ही सुख सुविधा वाले किराये के मकान मे रहे तो भी सुखानुभव मे काफी अन्तर होगा । तो मूल मे पदार्थ नही, उनका ममत्व ही आपके सुख श्रीर दुख का कारण बनता है ।
इसीलिए हमारे यहाँ परिग्रह की व्याख्या की गई है, "मूर्छा परिग्रह ।" पदार्थो को नाम परिग्रह नही, उनमे ममत्त्व रखकर श्रात्म ज्ञान ते सज्ञा शून्य हो जाना परिग्रह कहा गया है जब जड पदार्थों मे गृद्धि बढ़ती है और प्राणी अपने चेतन तत्व को भूलता है तब उसको परिग्रही कहा । तो यह स्पष्ट है कि परिग्रह पाप का मूल है और परिग्रह की मूल भावना स्वामित्व की भावना मे छिपी हुई है । मैं श्रमुक घनराशि का स्वामी हूँ या कि प्रमुक सम्पत्ति मेरे स्वामित्व में है । यह ममत्त्व जब मनुष्य के मन मे जागता है तो धात्मा को कलुषित करने वाले मैकडो दुर्गुण उसमे प्रवेश करने लगते है ।
समत्व से जागता है राग और द्वेप । श्रपनी सम्पत्ति के प्रति राग कि यह प्रोर उसकी रक्षा की जाय और राग जितना गाढा होता जायगा, उस सम्पत्ति की वृद्धि व रक्षा मे वह उचित श्रनुचित कार्य - प्रकार्यं सब कुछ बेहिचक परने लग जायगा । इसके साथ ही दूसरो की सम्पत्ति से उसके मन मे हे जागेगा और वह उस सम्पत्ति के प्रति विनाश को बात मोचेगा । इस राग और द्वेष को वृत्तियो के साथ मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, ग्रन्याय की हुई उपय मानद मन मे प्रवेश करती जायगी तथा इन बुराइयों की फैना
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जैन-सस्कृति का राजमार्ग
वट मे दुनिया का स्वरूप कैसा " त्राहि माम् त्राहि माम्" हो जाता है उसका अनुभव मैं समझता हूँ वर्तमान व्यवस्था मे श्रापको हो रहा होगा ।
इसीलिए भगवान महावीर ने अपरिग्रहवाद के सिद्धान्त पर विशेष प्रकाश डाला और निवृत्ति प्रधान मार्ग की प्रेरणा दी। उन्होने साधु व गृहस्थ घर्मो के जो नियम बताये वे इस दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं ।
साधु के लिए तो उन्होने परिग्रह का सर्वथा ही निषेध किया, उसे निर्ग्रय कहा | पंचम महाव्रत से साधु अपने पास कोई द्रव्य नही रख सकता तथा वस्त्रादि जो भी रखता है वह भी केवल शरीर रक्षा की दृष्टि से याकि लोक व्यवहार से, वरना उसमे वह जरा भी ममत्त्व नही रखे । साबु को इसीलिए कुछ पदार्थ रखते हुए अपरिग्रही कहा है कि उसका उनमे ममत्त्व नही होता और ममत्त्व क्यो नही होता कि उन पदार्थों पर वह अपना स्वामित्व नही मानता । वे पदार्थ वह भिक्षा द्वारा प्राप्त करता है । साधु के लिए तो भगवान ने कहा कि उसको अपने शरीर मे भी ममत्त्व नही होना चाहिए इसीलिए जैन साधु का जीवन जितना सादा, जितना कठोर श्रीर जितना त्यागमय वतलाया गया है । उसकी समता अन्यत्र कठिनता से देखने मे आवेगी ।
तो भगवान महावीर ने साधु जीवन को कतई परिग्रह से मुक्त रखा ताकि वे गृहस्थो मे फैले परिग्रह के ममत्व को घटाते रहे ।
किन्तु गृहस्थों के लिए जो १२ व्रत उन्होंने निर्धारित किये उनमे परिग्रह नियंत्रण पर विशेष जोर दिया गया है । सिर्फ श्रपरिग्रहवाद की पुष्टि के लिए पांचवा श्रणुव्रत स्थूल परिग्रह विरमण व्रत तथा सातवा उपभोग परिभोग परिमाण विरमरण व्रत, दो व्रत रखे गये है । अन्य किसी विषय पर इतना जोर नही दिया गया है जितना कि परिग्रह से दूर हटने के विषय पर और इसका स्पष्ट कारण है कि परिग्रह याने मूर्च्छा रूप स्वामित्व ही नये-नये पाप कर्मों की रचना करता है और समाज मे विकृतियाँ व अन्याय गत प्रवृत्तियाँ फैलाता है ।
मैं सामाजिक व सयम जीवन पर अपरिग्रहवाद के शुभ प्रभाव को
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अपरिग्रहवाद याने स्वामित्त्व का विसर्जन स्पष्ट करूं उससे पहले गृहस्थो के ५वे अणुव्रत व ६वें शिक्षावत पर कुछ रोगनी डाल दूं।
गृहस्पो-घावको के ५वे अणुव्रत मे पांच प्रकार के परिग्रह को सीमित करने व उनमे यधागक्य दूर हटते जाने के सम्बन्ध मे प्रतिमाएं की जाती है(१) खेत घर प्रादि का परिमाण-जिसमे मुस्यतः समस्त अचल
सम्पत्ति का समावेग हो जाता है । (२) स्प्यक रवर्ण का परिमाण-इसमे धातु व मुद्रा सम्बन्धी
सम्पत्ति का समावेश किया गया है। (३) धन प्रौर धान्य का परिमाण-इसमे धातु व मुद्रा के अलावा
तथा घर विखरी सामग्री के सिवाय समस्त चल सम्पत्ति को
ले लिया गया है। (४) दुपद व चोपद का परिमाण-इसमे नौकर-चाकर व पशुप्रो
पा पग्मिाण करने की बात रखी गई है। (५) घर बिखरी का परिमाण-पर नामग्री को इस प्रतिचार में
शामिल किया गया है। इन पांचो प्रतिचारों में करीब-गारीव सभी प्रकार की सम्पत्ति का मावेश हो जाता है, किसी प्रकार की सम्पत्ति हटती नहीं। अब थावक को इस व्रत का प्रत्येक प्रकार की सम्पत्ति के विषय में मर्यादाएं निर्धारित पर लेनी चाहिए कि मुकगुरु परिणाम में ही समुक-अमुक प्रकार की सम्पनि का रामिद वह रोगा वरना उस मर्यादा से उपर प्राप्त होने वाती सम्पत्तिको विजित कर देगा।
मारकाएं निरित - द प्रनिनाएँ दर तो हो र
ही है। एक तोह कि दिन गत ir: रातो मतो के र नो -
बन्ध कमी प्रकार रोना
निनार में पांचव द्रन वा
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग उल्लेख पायगा तो उसे सोचना होगा कि पिछले समय में इन पांचो प्रतिनायो मे से कही वह चूक तो नहीं गया है, कही उसने निर्धारित मर्यादा से अधिक किसी भी प्रकार की सम्पत्ति तो नही बढा ली है। यह रोज रोज की नियत्रण उसकी तृष्णा को नियंत्रित कर देता है और सम्पत्ति के स्वामित्त्वममत्त्व से उसको मुक्त करता जाता है।
उसका दूसरा कर्तव्य यह होगा कि जब-जब भी उसे अपरिग्रही निग्रंथ साधुग्रो का समागम होगा तो उसकी ममत्त्ववृत्ति अधिकाधिक घटती जाय, इस प्रोर उसे ध्यान देना होगा। परिणाम यह होगा कि वह अपने निर्वारित परिणाम को घटाता जायगा। कल्पना कीजिये कि उसने धन-धान्य में दस हजार की सीमा बनाई तो वह धीरे-धीरे पांच और दो की ओर चलता जायगा। इस क्रम का असर यह होगा कि एक ओर तो उसका प्रपच कम होगा, उसका आत्मा अधिकाधिक विकास की ओर उन्मुख होगा और दूसरी ओर समाज मे सम्पत्ति का सचय घटकर विकेन्द्रीकरण वटता जायगा। ___भगवान महावीर ने गृहस्थ के लिए इतनी ही सीमा बनाकर सन्तोष नही किया वरन उन्होने उपभोग-परिभोग खाने-पीने में काम आने वाली वस्तुप्रो पर भी मर्यादा बनाने का उल्लेख किया व श्रावक के धन्धो के सम्बन्ध मे भी १५ कर्मादान से प्रतिबन्ध लगाएं जिनका उल्लेख ७वे अगुव्रत में किया गया है।
सातवा व्रत है-उपभोग, परिभोग, परिमाण, व्रत । इसके २६ बोल आपको इसलिए गिनाना चाहता हूँ कि आप अपरिग्रहवाद की सूक्ष्मता तक उतर कर इन मर्यादाग्रो मे छिपे गभीर सामाजिक व आत्मिक महत्व को यथाविधि समझ सके । इस व्रत के २६ बोल इस प्रकार है-(१) उल्लरिणयाविहं- अगोडा टवाल आदि के प्रकार और माया की मर्यादा करना (२) दन्तण विह-दांतुन करने की सामग्री की मर्यादा करना (३) फलविहं-फल के प्रावाना आदि फल की मर्यादा करना (४) अन्नगराविहतैलादि की मालिश करने के लिए मर्यादा करना (५) उवाविहंउवटन की ( पीठी ग्रादि ) मालिश की मर्यादा करना (६) मजरणविह
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अपरिग्रहवाद याने स्वामित्व का विसर्जन स्नान के लिए पानी का परिमारण करना (७)वत्यविहं-वस्त्रो की मर्यादा करना (८) बिलेवगविह-शरीर पर लगाये जाने वाले चन्दन केसर आदि को मर्यादा करना (8) पुफ्फविह-फूलो की व फूलमाला की मर्यादा करना (१०) भामरणविह-लकार प्राभूषण की मर्यादा करना (११) धूपविह-धूप दीपादि सामग्री की मर्यादा करना (१२) पेजविहं-पीने की वस्तुत्रो की मर्यादा करना (१३) मवखरणविहं-घेवर प्रादि पक्वान्न की मर्यादा करना (१४) प्रोदरणविहं-रधे हुए चावल थूली यादि की मर्यादा कान्ना (१५) सूपव्हि-मूंग प्रादि दालो की मर्यादा करना (१६) विगयविह-घी, तेल, दूध, दही प्रादि को मर्यादा करना (१७) सागविहंबमा प्रादि शाम की मर्यादा करना (१८) माहुरविहं-मधुर फलो की मर्यादा करना (१६) जीमगविह-बडा, पकौड़ी प्रादि जीमने के द्रव्यो की मर्यादा पारना (२०) पारिणयविह-पीने के पानी की मर्यादा करना (२१) पुष्पमालविरलोग, इलायची प्रादि दातुनो की मर्यादा करना (२२) दाहगमिरयान, वन, साथी, घोडे प्रादि की मर्यादा कारग (२३) पादित-च्या पन्नग प्रादि की मर्यादा करना (२४) पहिबिहजरे, मोजे श्रादि की मर्यादा करना (२५) सचितमिचिन वग्नुप्रो की गर्याका घरमा तथा (६६) दादर-माने-पीने के पान में पाने वाले चितषित पदार्थों की जो पर नियगो से बने हुए है उनकी मर्यादा पन्ना, उप मोग--एक. दार भोगने में माने जाने उल दिलचा परि. भोग-कार-बार जोगने में जाने वाले कापत मादि पवाघों की दस प्राय पो गर्यादा वाचली होती. मी नारा के समय इनके रसाद में निम्न प्रकार ने प्रतिचार को लेना पनी होती है
(३) गदा स्परात तरिक्त का हा- बिना हो, ( लिटर (ति का वितात करके) का
___ हा किला हो, (३) १५-६ तार किया हो (१) रातार
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जिन-संस्कृति का राजमार्ग (५) तुच्छ औषधियो का भक्षण किया हो या ऐसे पदार्थों का उपयोग
किया हो जिसमे थोडा खाया जाय व ज्यादा फेकना पडे-तो
मैं प्रायश्चित करना चाहता हूं। इसी व्रत मे भोजन के अलावा घघे के सम्बन्ध मे १५ कर्मादानो का भी उल्लेख किया गया है कि निम्न प्रकार के धचे जिनमे एक पोर तो हिंसा की मात्रा अधिक होती है और दूसरी ओर जो परिग्रह का भयकर गति से संचय बढाते हैं-श्रावक को नहीं करने चाहिए(१) इंगालकम्मे-कोयले बनाना आदि जिसमे अग्नि का महारम्भ
करना पड़े। (२) वरणकम्मे-जगलात के ठेके लेना, लकडी कटवाना प्रादि । (३) भाडीकम्मे-यान या वाहनो को किराये पर चलाने का वधा
करना । इसमे वर्तमान यातायात का व्यापार आ जाता है। (४) फोडीकम्मे-जमीन फोडने-खान खदान का काम करना। (५) दन्तवाणिज्जे-दांत-हाथीदांत वगैरा का व्यापार करना । (६) लक्खवाणिज्जे-अनेक जीवो की हिंसा से बनी हुई लाखादि
धातुप्रो का व्यापार करना । (७) रसवारिणज्जे-मादक रस-शराब आदि का व्यापार करना । (८) केसवारि ज्जे-सुन्दर केश वाली स्त्रियो का अर्थात् दासियो
का क्रय-विक्रय करना। (६) विषवारिणज्जे -विभिन्न प्रकार विष-जहर का व्यापार करना । (१०) जन्तपिल्लण कम्मे-यत्रो द्वारा पीलने का काम कराना,
इसमे मिल कारखानो का समावेश हो जाता है । (११) निल्लंछण कम्मे-घोडे, साड यादि को सम्मी करने का व्यापार (१२) दवग्गिदावरण्या--जगल आदि मे आग लगाने का कार्य (१३) सरहदतलावपरिपोपण्या-सरोवर तालाब आदि को साली
कराकर सुवाना। (१४) असईजनपोपण्या-आजीविका के लिए हिंसक पशु व
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परिवाद याने स्वामित्व का विसर्जन
दुराचारी का पोषरण करना ।
(१५) ·
यह एक समूचा चित्र मैंने रखा है कि श्रावक को भी परिग्रह को परिमित करने के लिए भगवान ने प्रतिवन्धित किया है— साधु तो पूर्णतया प्रतित है ही । श्रादक पर भी जो वारिक मर्यादाएँ ऊपर बताई गई है, उनको महत्व पर विचार करना जरूरी है ।
भगवान महावीर के प्रपरिग्रहवाद की गहराई मे घुसकर देखा जाय ती प्रतीत होगा कि वहां व्यक्ति और समाज दोनो को सन्तुलित करने का विचार दिया गया है । गमाज मे विषमता, घोषण एव धन्याय की जननि बुद्धि है जो दूसरी तरफ व्यक्ति के चरित्र और प्रध्यात्म को भी नीचे पिगती है। जिन समाजवादी सिद्धान्त की कल्पना की जाती है, वह भी क्या है - एक तरह ने नमाज मे सम्पत्ति, धनधान्य एव उपभोग परिभोग की श्रीमान गप से मर्यादा दधने की ही तो बात है जो महावीर निर्देश पर गये है ।
यह है कि जब साधन सामग्री का नियमन क्रिया जाय तो निचित है कि उनका कम हाथो मे नह नहीं होगा बल्कि वही सम्पत्ति सामी हाथो मे विसर जायगी। जीवन निर्वाह के लिए घोकायता नही होती है, वह तो होती है सग्रह के लिए । इसलिए ही समाज मे सारी बुराइयों पैदा करता है - एक और तो गका पर दूसरी और जोगीं मोरटी की दरिद्रता देश और दमता की उप इससे सबने बड़ी हदे व्यक्ति जो यानी कुटिल रहते हैं,
सेही
दिदर हमारी हो ज देवी
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ही वर्षे रा
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A
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जैन- संस्कृति का राजमार्ग
जहाँ हम व्यक्ति का चरित्र ऊँचा उठाना चाहते हैं, उसे नीतिमान् व संभवशील बनाना चाहते हैं, वहीं इस व्यवस्था में वह सभी प्रकार से श्रनंतिक और असमी बनने के रास्ते पर दोडने लगता है तब भगवान महावीर की गृहस्थों के लिए नियोजित श्रणुव्रत व्यवस्था की उपयुक्तता एव सत्यता और अधिक स्पष्टता से निखर उठती है । महावीर ने मूल रोग ममत्व को पकड़ा और यदि ममत्त्व को इस प्रकार मर्यादित कर दिया जाय व इसे निरन्तर घटाते रहने का क्रम बनाया जाय तो निश्चित रूप से समाज मे एक कुटुम्ब का सा भ्रातृत्त्व व समता का भाव फैलेगा तथा धर्म के क्षेत्र मे निष्काम निवृत्तिवाद का प्रसार होगा जिसका उपदेश भगवान महावीर ने दिया । इसलिए सम्पत्ति पर स्वामित्त्व घटे और हटे, तभी शुद्ध मानो में जाकर ममत्त्व बुद्धि का सफाया हो सकता है । साधु जीवन एक तरह उस आदर्श का चित्र है जहाँ किसी भी प्रकार को सम्पत्ति पर उसका किसी भी रूप मे स्वामित्व नहीं होता और इसीलिए उसके लिए किसी भी पदार्थ पर ममत्त्व रखना वर्ज्य है बल्कि स्वय हो स्वामित्त्व के अभाव मे ममत्त्व बुद्धि के श्राने का रास्ता ही बन्द हो जाता है । यह तो दुनिया मे चारो और देखा जाता है कि सम्पत्ति पर व्यक्ति का स्वामित्त्व होने से सेकडो प्रकार से कलह एव झगडो की उत्पत्ति होती रहती है । सम्पत्ति के नाम पर भाइयो का वैमनस्य देखा जाता है, भागीदारो से कलह पैदा होते है और पडोसियो से झगड़े होते रहते हैं । कभी-कभी तो एक-एक इच भूमि के लिए निकटस्थो के सर फूटते देखे जाते है । सारा समाज एक कुटुम्ब क्या बने, उनका एक छोटा-सा घटक, श्राज का कुटुम्ब भी इस व्यवस्था मे सयुक्त और सशान्ति नही रह पाता । इस सारी विषमता और कलुपितता से त्राण पाने का एवं समाज सुव्यवस्था के साथ श्रात्मा की उन्नति करने का अबाध मार्ग है । भगवान महावीर का अपरिग्रहवाद जिसकी ओर श्राप लोगो का ध्यान जाये और उस मार्ग पर चलें तथा इसका प्रकाश सारे ससार मे फैलाएँ । यह
भाज युग की माँग हो गई है ।
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"अहिंसा परमोधमं का पालन भी विना अपरिग्रह के स्वस्थ रीति
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अपरिप्रहबाद याने स्वामित्व का विसर्जन से करना संभव नहीं हो सकता । भगवान महावीर ने भी जब दीक्षा ली तो उन्होने मारे वस्त्राभरण त्याग कर अपने गरीर पर एक मात्र वस्त्र ही रखा पा, उसे भी बाद मे त्याग दिया । क्या भगवान महावीर प्रापसे कम सुकोमल थे? अरे, वे तो राज्य के महान् वैभव मे अपार सुख-सुविधाम्रो के बीच रहने वाले राजकुमार धे, फिर भी कोई ममत्त्व उन्हे बाँध नही सका और प्राप पाहते हैं कि 'हमारा निभाव सम्पत्ति के बिना कैसे हो ?" पर मैं पूछता हैं कि क्या वहिने मोती के हार पहने विना जीवित नहीं रह सकती, जो
काटो घोघो को मारकर प्राप्त किये जाते हैं ? रेदामी और सुन्दर वस्त्रो की जगह यदि खादी पहनी जाय तो क्या गरीर क्षय हो जायगा ? बडे-बडे बगलो की बजाय भोपटी का प्रानन्द लिया जाय तो वह निराला होगा। प्राप एक पोर बडी बढी नपत्याएं करते है और दूसरी घोर परिग्रह के पीछे पढे पहने हैं । वया यह उप तपग्या को लज्जित करना नहीं है ? नियरियही महावीर के अन्यायी गरीबो का खून चूसते रहे । यह स्वर महावीर को लज्जित का ने जैगा कार्य है ।
श्रापको गम्भीरता से कहना चाहता है कि प्राप अधिक न बन सब तो कम-से-कम यह प्रतिज्ञा नो प्राज के दिन प्रदाय करे कि पाप किसी पर मुकद्दमा नहीं करेंगे और अोली सम्पनि के गारण अपने मात्यो के पोन मे पलह का बीज कतई नहीं बोएंगे। मैं प्रापरे पूत, राम दा नाम क्यो प्रसिद्ध ? गया वे दशरथ के पुत्र नलिए? नहीं, उनमें दी बात की उन्होने अपने जीवन में कि वे अपने भाई के लिए साग गर मान वर वन में ले गये । महावीर और राग जैसे महापुरपो को अपनी नमागेह मनाना तमा राफल माना जा सकता है, वहन महापुरपो के जीवन के प्रादों को पाने जीवन में उतारे वरना व समारोह वगैरानादाद नाकम्प माना जायगा पौरनरी प्रपनी पात्मा में कोई जागररा पैदा नहीं होगी।
पाये गाम्यवाद समाजवाद परिह निशान के ही पान्तर है। यदि त् परिगहना निपारद र जीभीपने जीवन में उतारे तो वे पने जीवन में तो शानद दा अनुभव कसे ही-सा ही हारा दुनिया में
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग जहाँ हम व्यक्ति का चरित्र ऊंचा उठाना चाहते हैं, उसे नीतिमान् व संभवशील बनाना चाहते है, वहीं इस व्यवस्था मे वह सभी प्रकार से अनतिक और प्रसयमी बनने के रास्ते पर दौडने लगता है तब भगवान महावीर की गृहस्थो के लिए नियोजित प्रण व्रत व्यवस्था की उपयुक्तता एव सत्यता और अधिक स्पष्टता से निखर उठती है । महावीर ने मूल रोग ममत्व को पकडा और यदि ममत्त्व को इस प्रकार मर्यादित कर दिया जाय व इसे निरन्तर घटाते रहने का क्रम बनाया जाय तो निश्चित रूप से ममाज मे एक कुटुम्ब का सा भ्रातृत्त्व व समता का भाव फैलेगा तथा धर्म के क्षेत्र मे निष्काम निवृत्तिवाद का प्रसार होगा जिसका उपदेश भगवान महावीर ने दिया ।
इसलिए सम्पत्ति पर स्वामित्त्व घटे और हटे, तभी शुद्ध मानो में जाकर ममत्त्व बुद्धि का सफाया हो सकता है। साधु जीवन एक तरह उस आदर्श का चित्र है जहां किसी भी प्रकार की सम्पत्ति पर उसका किसी भी रूप मे स्वामित्त्व नहीं होता और इसीलिए उसके लिए किसी भी पदार्थ पर ममत्त्व रखना वयं है बल्कि स्वय ही स्वामित्त्व के अभाव मे ममत्त्व बुद्धि के पाने का रास्ता ही बन्द हो जाता है । यह तो दुनिया मे चारो और देखा जाता है कि सम्पत्ति पर व्यक्ति का स्वामित्त्व होने से सैकडो प्रकार से कलह एव झगडो की उत्पत्ति होती रहती है। सम्पत्ति के नाम पर भाइयो का वैमनस्य देखा जाता है, भागीदारो से कलह पैदा होते है और पडोसियो से झगडे हाते रहते हैं। कभी-कभी तो एक-एक इच भूमि के लिए निकटस्थो के सर फूटते देखे जाते है । सारा समाज एक कुटुम्ब क्या बने, उसका एक छोटा-सा घटक, आज का कुटुम्ब भी इस व्यवस्था मे सयुक्त और सशान्ति नही रह पाता। इस सारी विषमता और कलुपितता से प्राण पाने का एवं समाज सुव्यवस्था के साथ प्रात्मा की उन्नति करने का अबाध मार्ग है। भगवान महावीर का अपरिग्रहवाद जिसकी ओर आप लोगो का ध्यान जाये और उस मार्ग पर चलें तथा इसका प्रकाश सारे संसार मे फैलाएँ । यह माज युग की मांग हो गई है। .
"अहिंसा परमोधर्म" का पालन भी बिना अपरिग्रह के स्वस्थ रीति
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अपरिग्रहवाद याने स्वामित्त्व का विसर्जन से करना सभव नहीं हो सकता। भगवान महावीर ने भी जब दीक्षा ली तो उन्होने सारे वस्त्राभरण त्याग कर अपने शरीर पर एक मात्र वस्त्र ही रखा था, उसे भी बाद मे त्याग दिया । क्या भगवान महावीर आपसे कम सुकोमल थे? अरे, वे तो राज्य के महान् वैभव मे अपार सुख-सुविधाओं के बीच रहने वाले राजकुमार थे, फिर भी कोई ममत्त्व उन्हे बाँध नहीं सका और
आप कहते हैं कि 'हमारा निभाव सम्पत्ति के बिना कैसे हो?" पर मैं पूछता हूं कि क्या वहिने मोती के हार पहने विना जीवित नहीं रह सकती, जो सैकडो घोघो को मारकर प्राप्त किये जाते है ? रेशमी और सुन्दर वस्त्रो को जगह यदि खादी पहनी जाय तो क्या शरीर क्षय हो जायगा ? बडे-बडे बंगलो की बजाय झोपडी का प्रानन्द लिया जाय तो वह निराला होगा। प्राप एक ओर बडी बडी तपस्याएँ करते हैं और दूसरी ओर परिग्रह के पीछे पडे रहते हैं । क्या यह उस तपस्या को लज्जित करना नहीं है ? निष्परिग्रही महावीर के अनुयायी गरीबो का खून चूसते रहे । यह स्वय महावीर को लज्जित करने जैसा कार्य है।
मैं प्रापको गम्भीरता से कहना चाहता हूँ कि आप अधिक न बन सकें तो कम-से-कम यह प्रतिज्ञा तो आज के दिन अवश्य करें कि आप किसी पर मुकद्दमा नही करेंगे और भोछी सम्पत्ति के कारण अपने भाइयो के बीच मे कलह का बीज कतई नही बोएंगे। मैं आपसे पूछू, राम का नाम क्यो प्रसिद्ध है ? क्या वे दशरथ के पुत्र थे इसलिए ? नही, उससे बड़ी बात की उन्होने अपने जीवन मे कि वे अपने भाई के लिए सारा राज्य त्याग कर वन मे चले गये । महावीर और राम जैसे महापुरुषो की जयन्ती समारोह मनाना तभी सफल माना जा सकता है, जब उन महापुरुषो के जीवन के प्रादर्शो को अपने जीवन मे उतारें वरना ये समारोह वगैरा मनाना सव नाटक रूप माना जायगा और इनसे अपनी आत्मा मे कोई जागरण पैदा नही होगी।
प्राज के साम्यवाद, समाजवाद अपरिग्रह सिद्धान्त के ही रूपान्तर हैं। यदि चेत् अपरिग्रह का क्रियात्मक रूप जैनी भी अपने जीवन मे उतारें तो वे अपने जीवन मे तो मानन्द का अनुभव करेगे ही-साथ ही सारा दुनिया में
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग
एक नई रोशनी, नया प्रादर्श भी उपस्थित कर सकेंगे, क्योकि अपरिग्रह का सिद्धान्त साम्यवाद व समाजमाद के लक्ष्यो की तो पूर्ति कर देगा किन्तु उनकी बुराइयो को भी चरित्र एव सयम की प्राचारशिला पर नागरिको को खड़ा करके पनपने नही देगा।
इसलिए मे आपसे कहता हूं कि आप अपरिग्रही बनिये और महावीर के गौरवान्वित नाम के गौरव को और अधिक बढाइये । यह बाहर का वैभव बाहर और अन्दर दोनो को डुबाने वाला है प्रत. अन्दर के वैभव को बढाइये भौर उसको समृद्ध करिये। भगवान महावीर ने भी अपने पहले फैले हुए असत्य, हिंसा के प्रवाह, एकान्ती विचार एव परिग्रही ममत्त्व के अंधेरे को अपने ज्ञान के प्रालोक से विनष्ट किया, उसी रोशनी की मसाल को आप फिर से ऊपर उठाइये घोर आप देखेंगे कि आपकी उन्नति का निष्कटक पथ स्पष्ट दिखाई दे रहा है ।
लोदी रोड, दिल्ली
दि. १५-४-५१
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शास्त्रों के चार अनुयोग
मानव का उद्देश्य अन्धकार से प्रकाश की घोर वढते जाना है और चरम विकास के रूप मे एक दिन स्वय के जीवन को परम प्रकाशमय बना लेना है । जीवन के अन्धकार का आकाशदीप या प्रकाशस्तभ निर्मल ज्ञान है, क्योकि सम्यक् ज्ञान ही की दृष्टि से अपने विकास पथ का यथार्थतया श्रवलोकन किया जा सकता है । जिन महापुरुषो ने अपने जीवन मे उच्चतम विकास प्राप्त किया, उन्होने अपने ज्ञान और अनुभव के सफल सयोग से उत्थान की जो ठोस बाते बताई, वे हो घाज हमारे सामने शास्त्रोक्त सिद्धान्तो के रूप में उपस्थित है । शास्त्रों की पूर्ण प्रामाणिकता, वास्तविकता एव वैज्ञानिकता मे घटल व अटूट विश्वास करने का यही कारण है कि इनके निर्माता का ज्ञान व अनुभव उतना ही विशाल, सजग एवं सुदृढ था । इसलिए हजारो वर्ष बाद भी वह शास्त्रोक्त ज्ञान हमे हमारे घनान्धकार से प्रकाश की भोर उन्मुख करने मे ज्योतिर्मय प्रेरणा प्रदान करता है |
तो यहाँ में भापके सामने श्रापकी प्रदर्शित इच्छा के अनुसार यह बताने जा रहा हूँ कि जैन शास्त्रों में चरम विकास की क्या स्थिति है, उसकी पूर्व भूमिकाएं क्या हैं तथा किन-किन सीढियो से शास्त्रोक्त ज्ञान विकास की मजिल की ओर धागे बढाता है ?
प्रधानतया धार्मिक सिद्धान्तो का लक्ष्य मात्मविकास करना होता है। इसलिए ज्ञान, वैराग्य, तप श्रादि वैयक्ति साधना के साधनो का इनमे सविस्तार वर्णन भी होता है । इन सिद्धान्तो की कसोटी भी यही है कि कौन सिद्धान्त विकास के लिए कितनी बलवती प्रेरणा दे सकता है और पतन के समय उसे जागृत कर सत्य मार्ग पर ले घाता है ? इस दृष्टि मे कहना चाहूँगा कि जैन सिद्धान्त व्यक्ति के हृदयपटल की सूक्ष्म गहराइयो मे प्रवेश करते हैं और उसे अपने पतन से सावधान करते हुए उत्थान की प्रोर अग्रसर
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग बनाते हैं। इन विकासोन्मुखी परिस्थितियों का जैन शास्त्रो मे बड़ी ही सुन्दर रीति से विवेचन किया गया है। यहाँ मैं आप लोगो को थोडा उपालम दूं कि पाप ऊँचा-से-ऊंचा व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, बी० ए०, एम० ए० या डॉक्टर आदि बन जाते हैं किन्तु प्रात्मविकासक ज्ञान सीखने की ओर खास ध्यान नहीं देते । कोरे अर्जन करने की कला सीखते हैं, पर अन्धकार से प्रकाश की ओर बढ़ने की कला से अगर बिलकुल अनभिज्ञ रह गये तो पाप ही सोचिये कि जीवन को सफल बनाने के लिए केवल अन्धकार
आपकी कैसी सहायता कर सकेगा। आज आप लोगो का कर्तव्य है कि जैन सिद्धान्तो की सूक्ष्मता को स्वयं समझे, मनन करे और उन्हे नवीन रूप मे जगत् के सामने रखें। सिद्धान्तो के इस तरह के अत्यल्प प्रचार को देखकर मुझे दुःख होता है कि पाप जैन विद्वानो के समक्ष भी जैन सिद्धान्तों का प्रारभिक रूप मुझे बताना पडे । मैं प्राशा करूं कि वर्तमान प्रशान्त अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियो मे जैन सिद्धान्तो का वास्तविक मूल्याकन कर उन्हे ठीक रूप में प्रचारित करने का लक्ष्य बनाया जायगा। मेरे सामने काफी अजैन विद्वान् भी बैठे हुए हैं और मेरा उनसे भी यही कथन है कि अब साम्प्रदायिकता का वह युग नहीं, अब तो शुद्ध सैद्धान्तिक भूमि पर विभिन्न दर्शनो के विभिन्न सिद्धान्तो को गम्भीरतापूर्वक समझना चाहिए और उनमे से जिन सिद्धान्तो द्वारा व्यापक सर्वहित सम्पादित करना सभव दीख पडे, उन्हे प्रसारित व प्रचारित करने में अपना योग देना चाहिए । 'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्' जैसी जहरीली वातो का तो आज कोई भी सभ्य श्रादमी चर्चा तक नहीं कर सकता । सत्य चाहे जहाँ मिले, जिज्ञासु वहीं चला ही जायगा। अपना ही सत्य पौर दूसरो का सब असत्य-ऐसी मनोवृत्ति को फैला कर अपने अनुयायियो को विस्तृत ज्ञान सम्पादन से रोकना भी मैं तो अपनी ही कमजोरी का एक कारण समझता हूँ।
हां तो जैन शास्त्रो का विषय परिचय कराने के लिए इन्हे चार भागो मे विभक्त किया जा सकता है
१. प्रथम-प्रथमानुयोग या धर्मकयानुयोग
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शास्त्रों के चार अनुयोग
२. द्वितीय-गणितानुयोग | ३ तृतीय-चरणकररणानुयोग ४. चतुर्थ-द्रव्यानुयोग
अनुयोग का अर्थ है व्याख्यान या विवेचन । जैन समाज का कोई भी सम्प्रदाय हो, उनके समस्त ग्रन्यो मे इन्हीं विषय प्रणालियो से विवेचन किया गया है, क्योकि सारे साम्प्रदायिक भेद तो भगवान महावीर के भी अनेक वर्षों के बाद उत्पन्न हुए हैं ।
प्रथमानुयोग का अर्थ कथा-साहित्य के व्याख्यान से है। जैनग्रन्थो मे तात्त्विक एव विकासकारी बातो को समझाने के लिए स्थान-स्थान पर कपात्रो का उल्लेख किया गया है । कथाओ की प्रणाली ही सिद्धान्तों को इतना लोकप्रिय बना सकी है, क्योकि इसके द्वारा उक्त सिद्धान्त की जानकारी प्रत्यन्त ज्ञान व समझ वाले को भी आसानी से कराई जा सकती है। इसलिए जन-शास्त्रो से कयायो द्वारा प्रात्मा, परमात्मा, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष प्रादि गूढ तत्वो का भी ज्ञान बडी सरलतापूर्वक हो जाता है। दूसरे कथाम्रो की प्रणाली मे एक तरह की सरसता व प्रेरणाशीलता भी होती है। महापुरुषो को जीवगाथानो से जीवन मे सन्मार्ग पर प्रवृत्त होने की एक वलवती प्रेरणा मिलती है। उनके जीवन के उत्थान-पतन के संघर्ष और प्रगति की निष्ठा कथानो के रूप मे श्रोता के हृदय पर अत्यधिक प्रभाव छोडती है। इस तरह हमारे शास्त्रीय दृष्टान्त पतन मे जागरण व उत्थान मे विचारणा प्रदान करते है ।
जैन धर्म का कथा-साहित्य, जो कि वास्तव मे साहित्यिक क्षेत्र मे अभी तक पूर्ण रूप से प्रकाश मे नही लाया गया है, विश्व के कथा-साहित्य में अनुपम है। जैन-कथानक की यह सबसे बडी विशेषता रही है कि इनमे पणार्य व प्रादर्श का मिश्रित स्प का इस सुन्दरता से चित्रण किया गया है कि पाठक को पतन से जागृत करते हुए इसमे उसे विकास का प्रेरणास्रोत मिलता है। कथानक कही भी असगत व अस्वाभाविक नही होता। अधिकतर धार्मिक काथानको मे काफी प्रत्युक्तियां व काल्पनिक वर्णन पाया
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जैन-संस्कृति का राजमार्म जाता है, लेकिन वह दोष जैन-कथानकों मे नही है। दूसरे, इन कथानकों मे स्वाभाविक रूप से मर्यादा का भी निर्वाह किया गया है । इस सम्बन्ध में एक उदाहरण दूं कि तुलसीकृत रामायण मे सीताहरण के समय राम को स्वर्ण-मृग मे लुब्ध बन कर भागने का उल्लेख है, जो वास्तव मे राम की मर्यादा को भग करने जैसी वस्तुस्थिति है। राम जैसा महापुरुप स्वर्ण-मग की सुन्दरता मे लुब्ध बन कर या अपनी पत्नी के कथन से वास्तविकता को भूलकर एक निर्दोष प्राणी को मारने दोडे, यह वर्णन स्वाभाविक नही कहा जा सकता। जैन रामायण मे सीताहरण के उल्लेत मे यह वर्णन है कि उस समय लक्ष्मण खरदूपण राक्षसो से युद्ध करने गये हुए थे और वहां एक राक्षस ने लक्ष्मण की आवाज़ मे जोरो से 'राम-राम' पुकारा तो उस करुण ध्वनि को सुनकर सीता ने राम को जाने के लिए आग्रह किया कि अवश्य ही लक्ष्मण पर कोई विपत्ति आ गई है। यह वर्णन महापुरुषो की अहिंसा व उच्चवृत्ति के अनुकूल पूर्णतया स्वाभाविक कहलायगा। निर्दोष पशुप्रो की महापुरुष द्वारा शिकार करने के तथ्य को प्रचारित कर क्या गाज भी प्राणी अहित का उत्तेजना नही मिलती? कई बार राजपूतो के सामने मैं शिकार का त्याग करने की बात कहता हूँ तो वे कह उठते है कि महाराज, शिकार तो क्षत्रियो का धर्म है, राम ने भी तो किया था। आप सोचते होगे कि मैं एक ऐतिहासिक कथा को असत्य सिद्ध करने की कोशिश कर रहा हूँ, पर धर्म कथा साहित्य ही वह है, जिससे सत्य व सर्व-कल्याण का ही बोध हो । राजा दशरथ के पुत्र हुए, सीताहरण हुआ, वे न्यायी व मर्यादापुरुषोत्तम थे, यह सब ठीक, किन्तु मैं आपको बताता हूँ कि मान्यता मे विभेद कहां और कैसे पडता है ? राम सीता की एक-सी ही मूर्तियो को गुजरात, दक्षिण, राजस्थान व बगाल मे अपने-अपने प्रचलित वेश के अनुमार ही अलग-अलग पोशाकें पहनाई जाती है, किन्तु वे असल पोशाकें तो नही क्योकि असल का ज्ञान तो उस समय की देशकाल की परिस्थिति के अनुमार ही होगा। वाकी लोगो ने अपनी कल्पना के मुताविक पोशाको की रचना
ल , उसी प्रकार शिकार या ऐसे मर्यादा निर्वाह के अन्य विषयो के सम्बन्य
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शास्त्रो के चार अनुयोग
मे भी विवेकपूर्वक समझना चाहिए कि ये महापुरुप "प्रात्मवत् सर्वभूतेषु' सिद्धान्त के महान् प्रचारक थे, वे कैसे निर्दोष प्राणियो के क्रूर हनन का विचार तक भी कर सकते हैं ? अस्तु मेरा तात्पर्य यह है कि जैन कथानको मे स्वाभाविकता व सैद्धान्तिकता का पूरा-पूरा निर्वाह किया गया है |
जैन कथा - साहित्य की एक-एक कथा जीवन विकास का ज्वलन्त रत्न है । गजसुकुमार मुनि के मस्तक पर धधकते हुए श्रगारे रख दिये जाने पर भी जिस शान्ति व रखने वाले सोमिल ब्राह्मण के प्रति सद्भावना का उल्लेख है, वह निश्चय पाठक के हृदय में भी महान् क्षमा व सहनशीलता का भाव भरता है । हजार से ऊपर मनुष्यो को अपनी गदा से मोत के घाट उतारने वाला अर्जुन माली जब सुदर्शन की दिव्य श्रात्म-शक्ति के समक्ष पनी श्रात्म चेतना को सजग बना लेता है तो वह दृश्य किसे प्रपने भारीसे-भारी पतन से भी उठने की प्रेरणा न देगा ? चेड़ा महाराज व्रतधारी होते हुए भी प्रन्याय का प्रतिकार करने के लिए महान् सग्राम मे जू प हैं, यह कथानक कायरता को कहाँ स्थान देता है । इसी प्रकार श्रानन्द, आदि सद्गृहस्थो की व्यवहारिक प्रादर्शों भरी कथाएँ जीवन मे प्रगतिकारी क्रान्ति को जन्म देती है । सक्षेप में यही कहना है कि जैन कथाएँ जैनसरकृति को अपने यथार्थ रूप में पर अत्यन्त सरलतापूर्वक प्रदर्शित करती हैं । दूसरा अनुयोग है गणितानुयोग, जिसमे स्वर्ग, नरक, द्वीप, समुद्र आदि से सयुक्त चौदह राजू के विशाल लोक का विवरण है । गणित के इनके कठो को समझने के लिए आज हमारे में वह जानकारी न रही हो व मापतौल के भी पैमाने बदल गये हो वह दूसरी बात है, किन्तु जिस वारीक व विस्तार से सारे खगोल व भूगोल का ग्रांकडोपूर्वक वह प्राश्चर्य का विषय है । गणितानुयोग को कई बातें जगत् मे प्रकाश मे भाई हैं घोर जव तक ग्रन्य वातें सके, तब तक उनमे श्रविश्वास जाहिर करना थपने ही ज्ञान का प्रभाव साबित करना है | जैसे हमारे यहाँ उल्लेख है कि शब्द तीव्र गति वाले होते है । ध्वनि जो एक ने उच्चरित की है, वह सारे लोक मे फैलकर प्रतिध्वनित
वर्णन किया गया है, तो आज भी वैज्ञानिक
सत्य सिद्ध न की जा
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जन-संस्कृति का राजमार्ग होती हुई पुन उसी के कानो मे गिरती है। वैसे इस बात की हंसी उडाई जा सकती थी, किन्तु वर्तमान विज्ञान की इस सम्बन्ध मे सफल खोजो के बाद यह स्थिति नही रही । वैज्ञानिको ने ध्वनि को तीव्र गति वाली साबित कर दी है, बल्कि रेडियो द्वारा उसे नियन्त्रित रूप से सर्वत्र पहुंचाया भी जा रहा है। इसी तरह अन्य कई तथ्य हैं, जिन्हे "जैन सिद्धातो मे वैज्ञानिक तत्त्व" शीर्षक के नीचे ही विस्तार से समझाया जा सकता है । इनमे अणुविज्ञान, वनस्पति विज्ञान प्रादि कई तत्त्व हैं।
जन जिसे चौदह 'राजु' लोक कहते है, वैष्णव उसे चौदह लोक और -मुसलमान चौदह तलव बताते हैं । इसी प्रकार अन्य कई बाते हैं इस गरिणतानुयोग की-जो दूसरो की मान्यताप्रो से भी मेल खाती हैं। ग्राज स्वर्ग व नरक के लम्बे वर्णनो से नवयुवको मे अश्रद्धा उत्पन्न होती है, किन्तु वे प्रकृति के व्यवस्थाबद्ध क्रम को नहीं समझना चाहते । प्रापके लोकिक व्यवहार मे भी तो कुछ ही सैकडो मे जो किसी मनुष्य की हत्या कर डालता है, उसे फल कितना लम्बा भुगताया जाता है-आजीवन कारावास । अगर यहा भी यह व्यवस्था है तो प्रकृति के कार्यों मे कोई इसके लिये व्यवस्था नहीं। दूसरे स्वर्ग, नरक का वर्णन उनके वर्णन मात्र की दृष्टि से 'प्रमुख नही, बल्कि जिस तरह आज के न्याय-दण्ड का एक लक्ष्य उदाहरणात्मक होता है उसी तरह इनके वर्णनो से प्रात्मा यह सोचने का प्रयास करे कि हत्या करने पर यह सजा होगी और धोखादेही के मामले मे अमुक दफा लगेगी तथा उसके बाद अपने आपको वह दुष्कर्मों से बचा सके । इसके विपरीत स्वर्ग का वर्णन उसे सत्कर्मों की घोर प्रेरित करता है। जैसे वायु के उतार-चढाव व दवाव को मापने का पैमाना दूसरा होता है और सोना-चादी तोलने का दूसरा-एक ही कांटे से दोनो का माप-तौल नहीं लिया जा सकता, उसी तरह विज्ञान की अभी भी अपूर्ण स्थिति मे इन तथ्यो मे अविश्वास पैदा कर लेना उचित नही कहला सकता। यह सुनिश्चित है कि यह सारी गरिणत भी गणित के लिए नहीं बनी है, बल्कि उसका मूल उद्देश्य भी जीवन-विकास में सहयोग देना ही है। अत इस गणितानुयोग का भी उसा
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शास्त्रो के चार अनुयोग
दृष्टि से ही मूल्याकन करना चाहिए ।
तीसरे चरण करणानुयोग मे जैनागमो मे विस्तार पूर्वक चरित्र चित्ररण का व्याख्यान किया गया है। ज्ञान की महत्ता चारित्र्य के साथ ही कही गई है। बिना चारित्र्य के ज्ञानी की उपमा शास्त्रो मे चन्दन के भार को वहन करता हुधा भी गधा जैसे उसकी सुगन्ध को नही समझता, वह तो उसे भार की तरह ही उठाये फिरता है, उसी तरह श्राचरणहीन ज्ञान भी भार रूप ही है । ज्ञान प्रोर चारित्र्य के सगम से ही मनुष्य अपने अन्तिम ध्येय तक पहुँच सकता है | ज्ञान के बिना चारित्र्य अन्धा है और चारित्र्य के बिना ज्ञान लंगडा, अत अन्धे प्रोर लंगडे के सहयोग करने से ही दोनो का धारण हो सकता है । प्राचरणहीन ज्ञान की तरह ही शास्त्रो मे ज्ञानहीत आचरण को भी महत्त्व नही दिया गया है। बिना सम्यक् ज्ञान के की जाने वाली कठोरतम क्रियाएं भी चारित्रिक विकास का कारण नही बन सकती । लोभी व्यक्ति भी अपने धनार्जन के लिए साधु की तरह शीत, ऊष्ण वर्षा के कष्ट सह सकता है, पर उनका कोई महत्त्व नही । जैसे बिना सुवास के पुष्प का मोल ही क्या ? उसी तरह प्रात्म-भावना विना तपादिक की कियाएँ श्रात्म-विकास मे सहायक नही हो सकती । दशवैकालिक सूत्र मे स्पष्ट कहा है कि तपस्यादि श्राचार का पालन न तो इस लोक मे प्रगता प्राप्त करने के हेतु करे, न परलोक के सुख की प्राप्ति के लिए । किन्तु केवल अपने ग्रात्म विकास के लिए पूर्ण निष्काम भाव से ही करे ।
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जैन शास्त्रो मे ऐसी किसी भी क्रिया का विधान चारित्र्य की श्रेणी मे नही किया गया है, जिससे किसी भी रूप में मानसिक, वाचिक या कायिक हिंसा होती हो । यज्ञ, द्रव्य पूजा प्रादि का तो भगवान् महावीर ने खण्डन किया है | भाव-यज्ञ घोर भाव-पूजा का ही विधान सर्वत्र पाया जाता है । श्रात्म-विकास हित गति करने की विभिन्न श्रेणियां हमारे यहाँ कायम की गई हैं और तदनुसार ही चारित्र्य पालन की श्रेणियों का ही विवेचन किया गया है । सारे सासारिक व्यामोहो को छोडकर पूर्ण रूप से स्वपर कल्या रहित प्रगमन करने वाले पथिको के लिए साधु चारित्र्य या श्रपगार
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग धर्म का वर्णन है, किन्तु उन लोगो के लिए जो सासारिक क्षेत्र मे रहते और भोगते हुए भी अपने जीवन को मर्यादाशील बनाना चाहते है । श्रावक-चारित्र्य या प्रागार-धमं का वर्णन किया गया है ।
श्रमण या साधु चारित्र्य मे हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन व परिग्रह का मन, वचन व काया से सर्वथा परित्याग किया जाता है, बल्कि इन कार्यों के करवाने व अनुमोदन तक करने का भी निषेध किया गया है। ये इनके पाच महावत कहलाते हैं। इसी तरह श्रावक-गृहस्थ के लिये अपने नैतिक जीवन को सन्तुलित बनाये रखने के लिए बारह व्रतो का विधान है जिनमे पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत व चार शिक्षावत कहलाते है। इनका अति सक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है५ अणुव्रत-१ निरपराध जीवो को उनके प्राणनाश करने के सकल्प से
न मारना व न त्रास देना। अपने प्राश्रित मनुष्य या पशु को भूखा रखना या उनकी शक्ति से अधिक काम लेना भी हिंसा मे ही सम्मिलित किया गया है । परन्तु अपराधी व सूक्ष्म जीवो का त्याग गृहस्थ को अशक्य होता है । २ सामाजिक दृष्टि से निन्दनीय या दूसरो को कष्ट पहुंचावे
इस प्रकार भाषण नहीं करना । झूठी गवाह, झूठे दस्तावेज
या अन्य रूप मे मोटा झूठ बोलने का त्याग । ३. राजा या कानून दड दे या लोक निन्दा हो ऐसी चोरी न करना तथा बिना आज्ञा किसी भी चीज़ को उठाने का
त्याग । ४. स्वस्त्री के सिवाय अन्य स्त्री के साथ अनुचित सम्बन्धों
का त्याग अर्थात् मर्यादित ब्रह्मचर्य का विधान । ५. गुहस्थी की आवश्यकतानुसार धन, धान्य, सोना, चांदी,
भूमि श्रादि व व्यापार आदि से प्राप्त लाभ तक को भी ___ सीमित एव मर्यादित करना। । । पांच अणुव्रतो की रक्षा के लिए ही शिक्षा व गुणवतो का विधान
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शास्त्रो के चार अनुयोग
७७ है। साधु व श्रावक के ये पांचो व्रत एक ही है, सिर्फ त्याग की न्यूनाधिकता के कारण 'महा' व 'प्रण' विशेषण लगाये गये हैं। इन बारह व्रतो का स्वरूप इस तरह बनाया गया है कि इनका पालन समुचित रूप से एक राष्ट्रपति भी कर सकता है तथा एक अति साधारण गृहस्थ भी। चेडा महाराजा ने भयकर संग्राम करते हुए भी अपने वारह व्रत्तो को पूरी तरह निभाया पा। आज के नैतिक विशृंखलता के युग मे इन व्रतो के सम्यक् पालन से न सिर्फ योग्य एव नीति सम्पन्न नागरिको का ही निर्माण किया जा सकता है, वल्कि समाज की विभिन्न जटिल समस्याएँ भी बड़ी आसानी से इनके द्वारा सुलझाई जा सकती है।
कई लोग जैनो द्वारा वरिणत चारित्र्य धर्म को सिर्फ निवृत्ति व प्रवृत्तिफा ही रूप बताते है किन्तु जैन धर्म निवृत्ति व प्रवृत्ति-उभय रूपक है । प्रवृत्ति के बिना निवृत्ति का कोई अर्थ ही नहीं होता । प्रसत् से निवृत्ति करने के लिए सत् मे प्रवृत्ति करनी ही पड़ेगी । जैनागमो मे जहां बुराई के त्याग का वर्णन है, वही अच्छाई के प्राचरण का भी। 'कु' को 'सु' में बदल देना ही सच्चा माचरण है । जैन दर्शन मे सहजिक योगसुमति का वर्णन है, जिसका अर्थ ही है कि सम्यक् प्रकार से गति करना ।
इस तरह चरणकरणानुयोग मे दान, शील, तप, भावना रूप चारित्र्य का भी सागोपाग विस्तृत वर्णन किया गया है । वरिणत पार्चरण के अनुसार जो अपने जीवन को ढाल लेता है, उस प्रात्मा का चरम विकास सुनिश्चित बताया गया है । इस सारे पाचरण का मूल हमारे यहाँ विनय को कहा गया है-"विरगयो एम्नस्त मूलं"। इसका स्पष्टीकरण करने के लिए क्षमा, सन्तोप, नग्रता, सरलता, सयम प्रादि दश भेद बताये हैं। तप मे भी पराभ्यन्तर तप अर्थात् प्रायश्चित, विनय, ध्यान, सेवा, कायोत्सर्ग और स्वाध्याय छः भेद तथा वाय-यनगन, ऊनोदरी, भिक्षाचरा, रस-परित्याग, कायालेग द प्रतिमलीनता-छः नेद बनाये गये हैं । इन सबके पाचरण से मात्मा का सुव्यवसिात दिलान सम्पादित होता है ।
मन्तिम चाया पनुयोग द्रव्यानुयोग है । द्रव्य का लक्षण है-"उत्पाद..
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जैन-सस्कृति का राजमार्ग व्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" । जो उत्पन्न होने व नष्ट होने के बावजूद भी ध्रौव्य (स्थिर) है, वह द्रव्य है। द्रव्य छ. वताये गये हैं। (१) धर्मास्तिकाय (२) अधर्मास्तिकाय व (३) श्राकाशास्तिकाय-ये तीन द्रव्य अरूपी हैं तथा क्रमश: गति, स्थिति एव अवकाश प्राप्त कराने में सहायक होते हैं । गति व स्थिति मे सहायक तत्त्वो के सम्बन्ध मे तो विज्ञान भी अब मानने लगा है । (४) काल द्रव्य-वस्तुतः कोई द्रव्य नहीं है किन्तु प्रौपचारिक रूप से माना गया है। क्योकि भूतकाल बीत चुका, वर्तमान हमारे सामने है व भविष्य उत्पन्न होगा, अतः इसमे द्रव्य का लक्षण घटित नहीं होता। (५) जीव व (६) पुद्गल द्रव्य हैं ।
जीव या प्रात्म द्रव्य का वर्णन जैन दर्शन मे प्रतिस्पष्ट एव असंदिग्ध रूप से किया गया है। जीव की पर्याय अवस्थाएं बदलती रहती हैं अतः उसका पूर्व पर्याय की दृष्टि से विनाश होता है व नवीन पर्याय की दृष्टि से विनाश होता है व नवीन पर्याय की दृष्टि से नई उत्पत्ति, परन्तु इन पर्यायो के परिवर्तन के बावजूद भी अपने रूप मे प्रात्मा ध्रौव्य रूप मे रहता है। जैसे एक सोने के कडे को तुडवाकर हार बनवाया तो सोना कडे रूप पर्याय से नप्ट हुअा वह हार रूप पर्याय मे उत्पन्न , परन्तु स्वर्णत्त्व की दृष्टि से वह ध्रौव्य रहा । पर्यायो मे प्राकृति का रूपान्तर होता है, मूत स्वरूप मे तो एकता ही विद्यमान रहती है। दूसरे वेदान्त मान्यता की तरह हमारे यहां प्रात्मा एक नही मानी गई है, किन्तु प्रत्येक प्राणी मे स्वतय प्रात्मा है तथा स्वतत्र ही उसकी अपनी अनुभूतियां भी होती है। यही कारण है कि प्रत्येक प्राणी अलग-अलग दुख या सुख का अनुभव करता है।
इसके सिवाय प्रात्मा मे अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख व अनन्त शक्ति का अपार तेज रहा हुआ है, किन्तु यह तेज उसी तरह ढका हुप्रा है जिस प्रकार काले बादलो से ढक जाने पर सूर्य का ज्वलत प्रकाश भी छिप-सा जाता है। आत्मा की इन तेजमयी शक्तियो पर कर्म मैल की परतें चढी हुई हैं। ये कर्म मुख्य रूप से पाठ माने गये है। ये कर्म निल्य नहीं हैं। प्रात्मा जैसे कार्य करता है, तदनुरूप ही कर्मों का बन्ध होता है।
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शास्त्रो के चार अनुयोग
७६पूर्व कर्मो की निर्जरा व नये कर्मों के बन्ध होने का यह क्रम इस सृष्टि मे चलता ही रहता है, जब तक सारे कर्म खपाकर आगे के बन्ध को रोककर प्रात्मा का सर्वोच्च उत्थान प्राप्त नहीं कर लिया जाता। कर्मों के विभिन्न फलाफल के अनुसार ही जीव विभिन्न गतियो मे भ्रमण करता रहता है। जैन दर्शन में पृथ्वी, पानी, वनस्पति, हवा व प्राग मे भी एकेन्द्रिय जीव माने गये हैं, जिन्हे केवल स्पर्श की अनुभूति होती है। ये प्राणी भी उच्चतम विकास करते हुए मनुष्य, देव प्रादि योनियो तक पहुँच सकते है । मनुष्य और देव भी अघम कार्य करता हुश्रा एकेन्द्रियो के रूप मे अपने आपको पहुँचा सकता है। यहां तो अपने कर्म के अनुसार गति की ऊंची नीची दिशा का निर्माण होना माना गया है । सर्वोच्च विकास मे नीचा आत्मा भी शुद्ध बुद्ध रूप हो सकता है, जिसे सिद्ध या परमात्मा करते हैं । हमारे यहाँ ईश्वर का नियन्ता ल्प नही माना गया है ।
ससार का यह गतिचक्र जीव व पुद्गल के सयोग से चलता है, जिसे समझने के लिए जैनागमो मे 'नव तत्त्व' का उल्लेख किया गया है। पुद्गल वर्ण, गध, रस व स्पर्श युक्त है, जो जीव के साथ सम्बन्धित होकर ससार की बहुरूपा माया की रचना करता है।
इसी द्रव्यानुयोग मे छः लेश्यानो अर्थात् प्राणी के विभिन्न भावो की स्थिति का भी दिग्दर्शन कराया गया है तथा इसी तरह चौदह गुण स्थानों का भी वर्णन है, जो प्रात्मा विकास की श्रेणियो के रूप मे दिखाये गये है।
जैनधर्म मे किसी भी पदार्थ या तत्त्व के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए नयवाद व स्याद्वाद की दृष्टि से देखना होता है, क्योकि इनकी सहायता के दिना उसके विभिन्न पहलू नज़र नहीं पावेंगे तथा प्राप्त ज्ञान सिर्फ एकान्तिक दृष्टिकोण वाला होगा।
जैन दर्शन ज्ञान का एक विशाल भडार है, उसकी मैं आपको सिर्फ एक झलक मात्र दिखा सका हूँ और इसके बाद में प्रागा करूं कि आप विद्वान् लोग इसके गह्न अध्ययन और तत्त्व चिन्तन की घोर अपना ध्यान केन्द्रित करेंगे। सब्जी मण्डी, दिल्ली
ता० १-२-५॥
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जेन दुर्शन का तत्त्ववाद
"सुज्ञानी जीवा भज ले रे जिन इकोसवां .." यह २१ वे तीर्थकर भगवान् नेमिनाय की प्रार्थना है। इसमें परमात्मा के भजन पर जोर दिया गया है और वह भी करने के लिए सुज्ञानी जीवो को सम्बोधित किया गया है ।
जैन दर्शन की स्पष्ट मान्यता है कि परमात्मा पद कोई अलग वस्तुस्थिति नही बल्कि उसका स्वरूप प्रात्मा के ही परमोत्कृष्ट रूप मे जाज्वल्वमान होता है । यात्मा पर लगा हुआ कर्म का कलुष ज्यो-ज्यो धुलता जाय, गुण स्थान की सीढियो पर चढता जाय, चरम स्थिति होती है कि वही परमात्मा पर पहुँच जाता है। प्रात्मा से परमात्मा की गतिक्रम रेखा है, एक ही मार्ग के दो सिरे हैं जिनमे कर्म स्वरूप भेद हैं, मूल भेद नही । हमारी यह मान्यता नहीं कि ईश्वर इस जगत् या कि जगद्वर्ती प्रात्मानो से प्रारम्भ ही मे विलग रहा है और उसका जगत् की रचना से कोई सम्बन्व हो। जगत् का क्रम कर्मानुवर्ती माना गया है और उसी अनुवर्तन मे पुद्गल तमा -आत्माएं प्रेरित वा अनुप्रेरित होते हैं और चक्कर लगाते रहते हैं। प्रात्माएं फर्म चक्र मे फंसती है और धर्म बह प्राधारशिला है जिस पर चढकर वे इस चक्र से निकलने का पराक्रम भी करती है। इसी पराक्रम को सफलता का अन्तिम विन्दु परमात्मा पद है।
इस दृष्टिकोण से परमात्मा को भनने का अव्यक्त अभिप्राय भी श्रात्मा को समझना, संवारना और साधना पथ पर अग्रगामी बनना हो मूलतः माना जायगा। इसीलिए इस प्रार्थना मे सुज्ञानी जीवो को सम्बोधित किया गया है। जो जीव अज्ञानी हैं, उनमे तो पहले ज्ञान की ज्योति जगानी होगी कि वे प्रात्मा से लेकर परमात्मा के विकास क्रम को जाने पर उसमें पास्था वनाएं। क्योकि इस जानकारी के बाद में ही साधना पथ पर गति
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जैन-दर्शन का तत्त्ववाद करना प्रारम्भ किया जा सकता है। जिन्हे यह जानकारी भी नही, उनको प्रज्ञानी कहा गया है और इसीलिए वे ज्ञान को कार्यान्वित करने में सक्षम नही माने गये है क्योकि परमात्मा को भजने की पूर्व स्थिति उनमे उत्पन्न नही हुई है। जिस प्रकार से सिंहनी के दूध को यदि स्वर्ण पात्र के अलावा अन्य धातु के पात्र मे ले लो तो पात्र टूक-टूक हो जायगा। स्वर्णपात्र मे ही यह क्षमता है कि उस दूध को टिका सके। उसी प्रकार सुज्ञानी जीव ही क्षमता रखते है कि वे परमात्मा के भजन मे अपने आपको योग्यतापूर्वक नियोजित कर सके।
अब प्रश्न उठता है कि सुज्ञानी जीव कौन कहे जावें ? आत्मा से परमात्मा तक के विकास क्रम का जिन्होने ज्ञान प्राप्त किया है और ज्ञानी होकर उसमे अपनी धास्था जुटाई है, उन्हे सुज्ञानी कहा जायगा । धर्म और उसके दर्शन की जो धुरी है वह है प्रात्माका परमोत्कृष्ट विकास, इसलिए इस विकास का मूल है प्रात्मा! कैसी प्रात्मा ? जो कि इस संसार के गतिचक्र मे भ्रमण कर रही है अर्थात् जड़ पुद्गलो के संयोग से जन्म-मरण करती हुई रन्धानुबन्ध करती रहती है। तो उस प्रात्मा का विकास कैसे हो? कौन से कार्य है, जिनसे प्रात्मा की भूमिका मे उठान पैदा होगी और वह उठान ऊपर-से-ऊपर चढती हुई सासारिक सकट की जड़ को ही काट डालेगी, जड़ और चेतन का सम्बन्ध समाप्त हो जायगा।
यह जो समस्त ज्ञान है वही प्रात्मा की विकास गति को पूर्णतया स्पष्ट करता है और यही प्राधारगत ज्ञान है, जिसकी रोशनी मे अन्य सारी विचार सरणिया विश्लेषित होती हैं। इसीलिए जैन-दर्शन मे इस ज्ञान को विशिष्ट महत्त्व दिया गया है उसे तत्त्वज्ञान कहते हैं और यही तत्त्वज्ञान सुज्ञानी का लक्षण है।
जैन शास्त्रो मे इस तत्त्ववाद का बडा विशद् विवरण है और उसमे विस्तार ने बनाया गया है कि इन तत्त्वो पर ही प्रात्मा, परमात्मा और ससार की धुरी घूमती रहती है । यह तत्त्वज्ञान ससार के मूत से लेकर मुक्ति के मुख तक समाहित माना गया है।
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग इस समूचे तत्त्ववाद को नो भागो मे विभक्त किया गया है । यद्यपि अन्य दर्शनो मे कई तत्त्व माने गये है, किन्तु जैन दर्शन इन्ही नौ तत्त्वो को सम्पूर्ण सृष्टि का आधार मानता है, इसलिए परमात्मा के भजन को हम सिर्फ नाम-स्मरण मे ही समाप्त नही मानकर तत्त्व-विचारणा तक ले जाते हैं । इन्ही तत्त्वो का मनन और चिन्तन करते हुए सुनानी जीव इस ससार के भ्रमण चक्र से निकल कर परमात्मा की स्थिति में परिवर्तमान होते हैं, जीवन का चरम लक्ष्य प्राप्त करते हैं।
अतः मैं आपको नी तत्त्वो का स्वरूप सक्षेप मे स्पष्ट करना चाहूँगा कि इस तत्त्वज्ञान की सीढी से हम भी प्रात्म विकास की दिशा मे अग्रगामी हो।
ये नौ तत्त्व इस प्रकार हैं-१. जीव, २. अजीब, ३ बन्ध, ४ पाप ५ पुण्य, ६. श्राश्रव ७. सवर ८ निर्जरा, ६. मोक्ष ।
मुख्यतया इन मे से दो तत्त्व प्रधान व महत्त्वपूर्ण हैं और वे हैं जीव व अजीव, जिन्हे अलग-अलग मतो मे जड चेतन, ब्रह्म माया अथवा प्रकृति-पुरुष नामो से पुकारा गया है। इन दोनो तत्त्वो मे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के पदार्थों का समावेश हो जाता है।
हाँ, भौतिकवादी इन तत्त्वो के बारे मे अपना मतभेद प्रकट करते हुए वहते हैं कि जीव जैसा कोई तत्त्व नहीं होता। सिर्फ परमाणु अर्थात् जड होता है, वही विकास की सीढियां चढ़ता हुआ विभिन्न रूप धारण करता रहता है। यही परमाणु विकास करते-करते जीवारण बनते हैं, जन्तुप्रो के श्राकार प्रकारो मे ढलते हैं और वानर से लेकर मानब तक का रूप बदलता रहता है और ये ही जीव-जन्तु व मानव मृत्यु की गोद में जाते हुए पुनः जड-पुद्गल रूप मे बदल जाते हैं। इस प्रकार भौतिकवादी आत्मा जैसी किसी शक्ति को नही मानना चाहते, उनका मानना है कि जैसे प्रापकी शक्ति से रेलगाडी चलती है, बिजली से मशीनें चलती हैं, उसी प्रकार विभिन्न
परमारणुप्रो के सम्मिलन मे जीव-जन्तु शक्ति प्राप्त करते हैं और अपना __ . जीवन प्रदर्शित करते हैं किन्तु जब वे परमाणु फिर से विलग हो जाते हैं तो
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जैन दर्शन का तत्त्वद
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जीवन समाप्त हो जाता है उसी प्रकार जिस प्रकार की भाप सत्म हो जाने पर इजिन ठप हो जाना है । वे जड को ही महत्व देते है ।
किन्तु जैन दर्शन ऐसी विचाररणा को मिथ्या मानता है । चेतन जड़ से विकसित नही होता, बल्कि एक अलग शक्ति होती है निराकार जो जड के साथ मिलकर ससार के विविध रूपो का निर्माण करती है । जङ से जडपरमाणु का विकास हो सकता है, चैतन्य का उससे कतई विकास नही हो सकता, क्योकि जिस पदार्थ मे जो सत्ता है ही नहीं, वह उसमे किसी कदर उत्पन्न नही हो सकती । रेल का इजिन जड है तो उसमे चेतन शक्ति न तो कभी उत्पन्न हो सकती है, न उसकी जड शक्ति कभी भी विकसित होकर चेतन में बदल सकती है । भोतिकवादियो की ऐसी धारणा न तो वास्तविक है, न बुद्धिगम्य ही । क्योकि रजकणों को जीवन पर्यन्त भी पेलते रहो तो भी कभी उनसे तेल नहीं निकल सकता, कारण कि तेल की सत्ता भर्थात् स्निग्धता का सद्भाव तिलो मे है किन्तु रजकरणो मे नही है तो उसमे से वह सत्ता कभी भी प्रादुर्भूत नही हो सकती । श्रतः जैन दर्शन को मान्यता सत्य है कि चैतन्य शक्ति का विकास चैतन्य शक्ति से ही होता है तथा जड का सम्बन्ध छूट जाने पर चैतन्य शक्ति पुन. अपने मौलिक स्वरूप निखिल नभ्यता में प्रज्वलित हो उठती है ।
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तो हम विचार करें कि जीवतत्व की परिभाषा क्या ? जीव शब्द का पर्यायवाची है सच्चिदानन्द जिसमें तीन शब्द मिले हुए है, सत्त्रिन् ओर श्रानन्द 1 सत् का अर्थ है – “कालत्रय तिष्ठति इति सत्" अर्थात् जो तीनो काल मे स्थायी रहता है वह सत् है । नत् को यह भी व्युत्पत्ति है कि - "उत्पादव्ययांच्य षत सत्", जो पर्याय बदलने की दृष्टि से पैदा हो, नष्ट हो जाय किन्तु द्रव्य रूप से नित्य व शाश्वत रहे वह सत् होता है। हमारे लिए यह मत है कि हम भूतकाल मे थे, वर्तमान मे हैं थोर भविष्य मे रहेंगे । इसमे तीनो वागो मे द्रव्य रूप से आत्मा नित्य बना रहता है जो कि पर्याप्त से एक ही जीवन मे बाल, युवा, वृद्धत्त्व की प्रवस्याएं बदलती हैं श्रीर एक जीवन के बाद दूसरा जीवन भ्रात्मा धारण करता रहता है । तो जव
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जन-संस्कृति का राजमार्ग
बाल्यकाल हो या कि वृद्धावस्था प्रथवा एक जीवन हो या कि दूमरा जीवन, इन सब सवस्थाघो मे जिस एक रूप चैतन्य की अनुभूति होनी रहती है, वही आत्मा का रूप है, जीव की शक्ति है । शारीरिक दशाश्रो मे श्रयवा जन्म-मरण की योनियो मे परिवर्तन होता रहता है किन्तु प्रात्मा नही पलटता है । जैसे कि गीता मे भी कहा हैवासासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||
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देह मे रहने वाला देह का अधिष्ठाता देह के बाल, युवा, व वृद्ध रूप मे पलटने पर भी स्वय नही पलटता है । शरीर की तो व्याख्या ही यह की गई है कि जो शनैः-शनं क्षरण होता रहता है, क्षीरगत्व को प्राप्त करता रहता है लेकिन उसमे व्याप्त, उसका दृष्टा श्रात्मा सदा काल शाश्वत रहता है | अतः उसे सत् माना गया है। इसमे भा एक तर्क उत्पन्न होता है कि क्या सत् उसे माना जाय जो त्रिकाल मे स्थायी बना रहता है प्रोर वह सत् चैतन्य होता है तो सिर्फ यही व्याख्या शकास्पद हो सकती है क्योकि जड भी त्रिकाल मे बना रहता है तो क्या वह भी सत् होकर चैतन्य हो गया ।
किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। चैतन्य का रूप जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, सत् चित् नौर श्रानन्द तीनो गुणो मे पूर्णतया प्रकट होता है । जड़ में इस तरह सत गुरण तो हैं किन्तु अन्य गुण तो नही है इसलिए वह चेतन नही कहला सकता ।
प्रकाशित होने की शक्ति
चेतन का दूसरा गुरण है चित् श्रर्थात् जो ग्रुपने से ऊपर साधन की अपेक्षा न रखते हुए स्वयं ही प्रकाशमान होकर दूसरो को भी प्रकाशित करता है । जैसे कार मे रखे हुए घटपटादि को कोई व्यक्ति देखने लगे तो वह उन्हे देख नही सकेगा क्योकि घट-पट मे नही, उन्हे बाहर के प्रकाश की अपेक्षा रहती है । अगर वह व्यक्ति दीपक लेकर वहां जावे तो उन घटपटादि को देख सकेगा । प्रत जिस प्रकार घटपटादि को देखने के लिए दीपक की श्रावश्कयता होती है किन्तु स्वयं दीपक को देखने के लिए दूसरे दीपक की आवश्यकता नही होती क्योकि दीपक स्वयं
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जन दर्शन का तत्त्ववाद प्रकाशित होता है उसी प्रकार मात्मा स्वय प्रकाशमान होता है तथा दूसरों को भी प्रकाशित करता है । हमे अनिष्ट पदार्थ से दुख उत्पन्न होता है, इप्ट से सुब मिलता है तो यह जो अनुभव होता है कि दुख प्रिय है और सुग्व प्रिय है, वह प्रात्मा स्वय करता है और उसी अपने अनुभव को वह दूसरो पर प्रकट भी करता है तब वही अनुभव दूसरो के लिए भी ज्ञान का रूप धारण कर लेता है एव यह अनुभव और ज्ञान की सृष्टि का सवाहक तया सचालक बनता है।
। जैसे व्याख्यान मे वहिने बैठी हुई है वे जब अपने रसोईघर मे पकवान वनाती हैं तो उस समय उन्हे चख भी लेती हैं यह मालूम करने के लिए कि उनका स्वाद ठीक तो बन पड़ा है। वह स्वाद जब उन्हे सुरुचिकर लगता है तो वे यह समझ लेती हैं और सही समझ लेती है कि वही स्वाद दूसरे खाने वाले मी अनुभव करेंगे, क्योकि वे स्वयं प्रकाशित होकर दूसरो को भी प्रकाशित कर रही है । यही शक्ति चैतन्य शक्ति है । क्या यह ज्ञान और अनुभूति जड में हो सकती है ? सत् होते हुए भी चित् जड़ मे नही है ।
चेतन का तीसरा गुण प्रानन्द है। हम हैं और हम अनुभव करते हैं उसका परिणाम जो निकलता है वह प्रानन्द है। जब इन्द्रिय जन्म इष्ट विषयो का भी संयोग इन्द्रियो के साप होता है तो उससे चाहे वह क्षणिक हो किन्तु जो एक विभोरावस्था पैदा होती है वह भी जिस प्रकार मानन्द लगता है और प्रानन्द विभोर होकर नाचने-कूदने की अवस्था पैदा होती है तो जद प्रात्मा ज्ञान मे रमण करता है, अपने पराक्रम का अनुभव करता है तो उसमे जिस घलौकिकता का भाव जागता है वही चेतन का तीसरा गुण प्रानन्द है। इन्द्रिय-जन्य प्रानन्द को मानन्दामास कहा है क्योकि वह प्रानन्द क्षणिक होता है और धात्मा को प्रानन्दमय नही बनाता । उसका परिणाम कटु होता है इसलिए यात्मिक ग्रानन्द वही है जो प्रात्मिक गुणो की परिवृद्धि के फलस्वरूप उत्पन्न होता है और परिदद्ध होता रहता है।
धमे मानव घानन्द की अनुभूति तीन दगामो में ररता है-जागति, सुषप्ति एव स्वप्निल । जागते हुए इन्द्रिय-जन्य मुखो वा उपभोग किया जाता
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जन-संस्कृति का राजमान है और उसके परिणाम भी स्पष्ट अनुभव आते हैं । स्वप्नावस्था में इन्द्रियाँ सो जाती हैं लेकिन मन जागता रहता है और वही अपनी कल्पना के अनुरूप स्वप्निल सृष्टि की रचना करता रहता है। तीसरी सुपुप्ति अवस्था हैइसमे इन्द्रियाँ और मन सब सो जाते हैं अर्थात् प्रगाढ निद्रा आ जाती है जो अवस्था निरोगी व्यक्ति द्वारा आनन्दित व उपभोगित होती है। इस समय आत्मा 'प्रपूर्व सुख का अनुभव करता है । यद्यपि यह प्रानन्द अव्यक्त रहता है किन्तु उसकी अनुभूति फिर भी अत्यन्त सुखकर प्रतीत होती है। गहरी नीद के बाद शरीर हल्का और बुद्धि सतेज मालूम देती है । मन और मस्तिष्क से यह प्रानन्द बडा ही निराला लगता है।
तो यह मानन्द कब भोगा जा सकता है जब इन्द्रियां व मन का व्यापार वन्द होकर केवल प्रात्मा सजग रहता है वह भी सिर्फ अनुभूति की दृष्टि से । तो कल्पना कीजिये कि पात्मा की यह एकाग्रता यदि जागृत अवस्था मे बनने लगे, मन और इन्द्रियो की गुलामी छूटकर जीवन का क्रम आत्मा की अान्तरिक आवाज़ का अनुकरण करने लगे तो वह मानन्द वास्तव मे विशिष्ट अानन्द होगा और उसी प्रानन्द की निरन्तर बढती हुई अनुभूति मे आत्मा का पावन स्वरूप निखरता जायगा।
जब तक यह प्रानन्द देश, काल और वस्तु को परिधियो मे बन्द रहेगा तब तक वह प्रानन्द न होकर प्रानन्दाभास मात्र रहेगा। क्योकि देश की अपेक्षा मे पाप सोचते हैं कि ग्रीष्मकाल में नैनीताल या नीलगिरी गीत प्रदेश होने से प्रानन्ददायक होते है किन्तु वे ही प्रदेश शीतकाल मे श्रापको प्रानन्ददायक नहीं हो सकते। इसी प्रकार काल और बाह का भी हाल है। वह श्रानन्द एक समय में होगा, एक प्रदेश मे होगा अथवा कि एक पदार्थ मे होगा किन्तु दूसरे ही समय, प्रदेश या पदार्थ की उपलब्धि होते ही वह नष्ट हो जायगा।।
अत. यह पात्मिक प्रानन्द देश काल वस्तु से रहिन वर्णादिक भाव शून्य प्रात्मा मे ही निहित है और उसी मे रमरण करता हुया पात्मा पर मानन्द को प्राप्त होता है । इस प्रकार सत्-चित् और प्रानन्द के गुणो वाला
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जैन दर्शन का तत्त्ववाद जीव तत्त्व ही मोक्ष का मूल है। यह जीव तत्त्व की परिभाषा है और सक्षेप कहा जाय तो "उपयोग लक्षणो जीवः" अर्थात् उपयोग लक्षण वाला जीव है।
यह जीव तत्त्व जब अजीव तत्त्व के साथ मेल करता है तो ससार की सृष्टि होती है। प्रात्मा जीव है किन्तु शरीर के पुद्गल जड है और जब ये दोनो सम्बन्ध जोडते हैं तब चलता-फिरता गरीर नकर पाता है। सारे संसार मे या तो जीव और अजीव के सम्बन्धो के श्राकार प्रकार हैं अथवा इस सम्बन्ध से रचित पोद्गलिक पदार्थ । ये सब मिलकर सारे दृश्य जगत् का ढांचा बनाये हुए हैं।
मजीव तत्व याने जड-पुद्गल का स्वभाव सहना, गलना, बदलना और नित्य प्रति इसकी पर्याएं बदलती है। शरीर को ही देखिये बालक का अनहाय शरीर युवक के सुगठित शरीर मे उदलता है किन्तु एक दिन वही सुगठित शरीर वृद्धावस्था के नखदन्तहीन जर्जर शरीर मे बदल जाता है और त्रात्मा के निकलते ही श्मशान मे जलाने योग्य हेय हो जाता है। यही अवरथा अन्य सारे पुद्गतो की है जो नष्ट-भ्रष्ट होते रहते हैं।
और जीद व अजीव को बांधने वाले तत्व का नाम है वध तत्व । इस शक्ति के द्वारा पुद्गल प्रात्मा के साथ सम्वन्वित होते रहते हैं और जीव और अजीव तत्व का मेल कराके उन्हे ससार मे परिभ्रमण शील बनाये
यह बंध होता है नात्मा के साथ कार्माण वर्गणा के पुद्गलो का। जैसे कोई तेल मालिश करके रेती पर लेट जाय तो अजीव होते हुए भी रेत करण उसके शरीर से चिपक जाएंगे उसी प्रकार से जव अात्मा अशुभ व शुभ भावनायो मे वहता है और उससे प्रेरित होकर वैसे ही कार्य करता है तो रेल करणो की तरह वारिण वर्गरणा के अशुभ या शुभ पुद्गल आत्मा के साथ बलग्न होते है-इन्हे ही पाप या पुण्य कर्म कहा गया है ।
पाप और पुण्य तत्त्व वध के फलस्वरूप सामने प्राते हैं और दोनो शशुभ या शुभ फलदायक होते है। इन्ही तत्वो के कारण प्रात्मा जगत् मे (रिभ्रमण करता हुआ सासारिक सुखो या दुःखो का अनुभव करता रहता
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग
है । अशुभ कर्मों से पाप का बंध होता है और दुःखदायक परिणाम देता है । उसी तरह शुभ कार्यों से पुण्य का बघ होता है और वह सुग्वद फन्त देता है तथा पुण्यानुवन्धी पुण्य प्रकृति मे श्रात्मिक साधना मे भी सहायक होती हुई वीतराग प्रवस्था के गुण स्थानो में भी रहती है लेकिन मोक्ष की दृष्टि से वह पुण्य प्रकृति भी त्यागनी पड़ती है और पापानुवन्वी पुण्य प्रकृति मे संसार बढाने में सहायक होती है । इनके चक्कर से श्रात्मा जड़ से सम्बन्धित ही रहती है, जड से छूटकर मुक्ति की मंजिल तक नही पहुँच सकती ।
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अशुभ लगावट श्रात्मा के साथ होती है उसे श्राश्रव तत्व कहा है श्राश्रव तत्व से श्रात्मा की मलिनता बढती रहती है और वह ससार के कीचड़ मे अधिक से अधिक दुर्दशाग्रस्त होकर फँसता रहता है। शुभ योग तथा योग निरोध को संवर कहा है । यद्यपि सवर तत्व आत्मोत्यान में सहायक होता है किन्तु उसी तरह जिस तरह नाव नदी को पार करने में सहायक होती है । शुभ कर्मों से शुभ संयोग मिलते हैं और श्रात्मा को ज्ञान उद्बोध मिलता है तथा उसमे मुक्ति हित पराक्रम करने की भावना जागती है लेकिन आत्मा को मोक्ष प्राप्ति तभी होगा जब शुभ योग (पुण्य) भी श्रात्मा छुटकारा प्राप्त कर लेगी। क्योकि नदी नाव से जरूर पार होगी किन्तु पार करके किनारे पर पहुंचने के लिए नाव का सहारा भी छोड़ देना पड़ेगा । उसी तरह पुण्यतत्त्व मुमुक्षु श्रात्मा को ससार से वैराग्य लाने में सहायता करेगा किन्तु मुक्ति मे पहुँचाने के लिए आत्मा को पुण्य का श्राश्रव भी छोड़ना ही पड़ेगा ।
संलग्न कर्म पुद्गलो से श्रात्मा को छुटाने वाला तत्व है निर्जरा तत्व । निर्जरा का अर्थ है कर्म क्षय। जहां पिछले तत्व शुभ व श्रशुभ कर्मों की उत्पत्ति करते हैं वहाँ इस तत्व द्वारा कर्मों का नष्ट करना है । जब साधना श्रीर त्याग की उत्कृष्ट सरणियों मे श्रात्मा विहार करता है एव सासारिकता की गृहिणो से बहुत ऊपर उठकर अपने मूल स्वरूप सत् चित् श्रोर श्रानन्द मे तल्लीन हो जाता है तो सभी के प्रकार कर्म क्षय होने लगते हैं अर्थात्
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जैन दर्शन का तत्त्ववाद
जीव के साथ सजीव का सम्बन्ध क्रमशः टूटता जाता है और चेतन तत्व विशेष से सविशेष रूप प्रकटित होता जाता है ।
प्रौर एक दिन जब श्रात्मा जड की लगावट को पूरे तौर पर खत्म, कर देता है और शरीर के अन्तिम बन्धन से जब वह छूट जाता है तो उसकी मुक्ति हो जाती है। इसे ही मोक्षतत्व कहा गया है। तब श्रात्मा निर्विकार, निराकार रूपी हो जाता है और नित्य व शाश्वत रूप से ससार से विलग हो जाता है ।
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इस प्रकार जैन दर्शन के ये वो तत्त्व-समूचा तत्ववाद सांसारिक प्रात्मा से मुक्त प्रात्मा की प्रक्रिया का दर्शन हे या यो कहे कि ग्रात्मा के चरम विकास का गति चक्र है ।
इसलिए मैं फिर दोहराऊं कि परमात्मा का भजन करो इसका ग्र है कि आत्मा के स्वरूप को समझो भोर आत्मा के स्वरूप का ज्ञान तभी स्पष्ट हो सकेगा जब इस 'तत्ववाद को हम हृदयगम कर लेगे । तत्ववाद से ही हम जान सकेंगे कि धात्मा कैसे गिरता है और कैसे उठता है ? वे कौनसी जड शक्तियाँ है जा झात्मा को मलिन बनाती हैं और उनसे छुटकारा पाने की कौनसी साधना है जिससे मात्मा ऊपर से ऊपर उठती जायगी ? प्रत. इस तत्त्ववाद का चिन्तन, मनन कीजिये ताकि हम भी अपनी श्रात्मास्थिति का उत्पान करके एक दिन घन्तिम तत्व की प्राप्ति कर सके । ॐ शान्ति शान्ति शान्ति ।
अलवर
ता० २४-३-१६५०
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सर्वोदय-भावना का विस्तार
जय जय जगत् शिरोमणि'.. . परमात्मा और जगत् का किसी-न-किसी रूप में सदैव सम्बन्ध रहा करता है। पहले तो जगत् के इस विशाल प्रागण मे ही परमात्मयन की मिद्धि के लिए कठोर साधना करनी पड़ती है, जबकि वह साधक आत्मा भी अन्य सासारिक प्रात्माओ की ही तरह विकार-मल से कलुपित होता है। दूसरे जब मुक्त होने पर वह साधक प्रात्मा ईश्वरत्व को प्राप्त कर लेता है तो चाहे उसका जगत् से सम्बन्ध नही रहता, किन्तु जगत् का मुक्त आत्मा से विशिष्ट सम्बन्ध हो जाता है, क्योकि अन्य सासारिक प्राणियो के विकास हित वह मुक्तात्मा एक अनुकरणीय श्रादर्श के रूप में उपस्थित हो जाता है। इसोलिए कवि प्रार्थना करते हैं कि "हे प्रभु ! आपकी जय हो, क्योकि प्राप जगत् रूपी शरीर के सिर मे जडी हुई मरिण के समान हो ।!" प्रभु की 'पूजा इसलिए है कि 'नर से नारायण' बनने मे जो उन्होने अत्युत्तम विकास किया है, वह विकास विजय का चिह्न है और इसलिए माननीय है। उनके विकास के रास्ते को देखकर हमारे हृदय में एक अद्भुत प्रेरणा जागृत होती है और वही प्रेरणा आत्मोत्थान के लिए प्रति श्रावश्यक होती है। यह नहीं है कि सासारिक प्राणियो के चरम विकास से परे ही कोई 'ईश्वरत्व' है, जिसका स्वरूप अनादि काल से ही वैसा ही था। ऐसा 'ईश्वर' प्रगति के लिए कदापि प्रेरणा का स्त्रोत हो नहीं सकता। मनुष्य मे परम ईश्वर तक पहुंचने की जिज्ञासा तभी उत्पन्न होती है, जब वह यह देखता है कि उसमें भी वह व्यापक शक्ति समाई हुई है, जो ईश्वर मे होती है किन्तु वह अविकसित होने की अवस्था में प्रकाशित नहीं होती तो उसमे कर्मण्यता के भाव पैदा होना सहज स्वभाविक है । इस प्रकार परमात्मा और जगत् का साध्य-साधन के रूप में बना हुआ सम्बन्ध ही प्रगति की रूपरेखा को सदैव
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सर्वोदय -भावना का विस्तार
हरा-भरा रखता है |
यहाँ कवि ने परमात्मा की जय का जो नारा लगाया है, उसमे न केवल परमात्मा की ही जय उद्घोषित होती है, किन्तु परमात्मा के साथसाथ सारे संसार की ही जय का नारा उठता है । लोक रूपी शरीर मे सिद्धात्माएँ गिरोमणियां स्वरूप हैं, क्योकि जिनके ज्ञान रूपी प्रकाश मे सारा "हस्तामलकवत् " प्रतिभासित होता है । जहाँ मस्तिष्क की जय है, वहाँ सारे शरीर की भी जय हो ही जाती है, क्योकि मस्तिष्क की जय मे भी तो मारे नरीर के कार्य का सहयोग छिपा है तथा छिपी है मस्तिष्क से स्वसचालन के हेतु शरीर को प्राप्त होने वाली राजग प्रेरणा अर्थात् दोनो किसीन-किसी रूप मे है और दोनो पहिले - बाद सही किन्तु एक दूसरे के
सहायक है ।
यतः जिस प्रकार भारत की विजय मे केवल उस पर शासन करने वाली सरकार की ही विजय नही होती, किन्तु उसके समस्त निवासियो की विजय होती है उसी प्रकार परमात्मा की जय मे सतार के सभी प्राणियों की जय है, चाहे उन प्राणियों में जंन हिन्दू-मुस्लिम हो या पूंजीपति मजदूर हो या मित्र-शत्रु व मानव-पशु हो । इस भावना का नाम ही सर्वोदयवाद है । परमात्मा हमारे सम्बन्धो वा एक माध्यम है कि उसके द्वारा हम परस्पर समानता का वातावरण स्थापित करने का प्रयास करते हैं । 'सबका उदय हो, स मानवता के रहस्य को नमक कर प्रपनी अन्यायपूर्ण 'विशेषता' को छोडेर विश्वबन्धुत्व की स्थापना करें - इसी मे परमात्मा की जय दलने का सार रहा हुआ है। ब्राज हम प्रपनी जय चाहते हैं, किन्तु श्रपने विरोधी शब् की जय नही चाहन, उसका विनाश देखने की उत्सुक्ता रखते है, यही मान है और परमात्मा के स्वरूप को वास्तविकता से नही समभने वा फल है । परमात्मा के स्वरूप को पहिचानने वाला सच्चा भक्त अपनी जय नहीं चाहता । वह तो समस्त प्राणियो की जय मे ही श्रपनी जय समभता है । सभी पर उसकी समताभरी दृष्टि होती है ।
मैं पहले ही कह चुका हूँ कि यदि का शिरोमणि की जय बोलने मे
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग आशय समस्त प्राणियों को जय बोलता है। मस्तिष्क की जय बोलने में सभी अंगों की स्वाभाविक जय समझी जाती है, क्योकि सभी अगो का पारस्परिक सहयोग के नाते कदाचित अभिन्न सम्बन्ध है। मस्तिष्क का अस्तित्व ही इस बात पर है कि उदर रस बनाकर भोजन पचाता है या नहीं, पर और हाथ इधर-उधर सब जगहो में भटक कर उसे अनुभव लेने का अवसर देते हैं या नही, अन्यथा अन्य अगो के सहयोग के बिना मस्तिष्क अपनी उन्नत श्रेणी तक कभी नहीं पहुंच सकता। सभी अंगो के सहयोगपूर्ण सम्मिलित कार्य में ही शरीर की सुन्दरता तथा स्वस्थता का सद्भाव हो सकता है ।
तात्पर्य यह है कि समाज के सहयोग से ही व्यक्ति का विकास होता है और वह उन्नत अवस्था को प्राप्त होता है। जैसे सभी अंगो के कारण से मस्तिष्क विचारक्षम व गभीर चिन्तन करने वाला होता है, उसी तरह समाज के सरल सौहार्द्रमय वातावरण मे ही महान् विभूतियो और महात्माप्रो का जन्म होता है और जैसे मस्तिष्क अधिक विचारक्षम होने के पश्चात् अन्य अगो का विशेष रूप से रक्षण व पोपण करता है, उसी प्रकार वे महान विभूतियां और महात्मा अपना सब-कुछ समाज के हितार्थ बलिदान कर देते हैं । किन्तु ये महान् विभूतियां जब मुक्त हो जाती हैं, निवारण प्राप्त कर लेती हैं, तब वे कवि के शब्दो मे 'जगत् शिरोमणि' हो जाती हैं और फिर ये 'शिरोमरिणयों' अपने शुभ्र एव धवल प्रकाश से सम्पूर्ण जगत् को पालोकित कर देती हैं।
सभी भगो के समुचित सहयोग का प्रश्न समाज के निज के सामूहिक विकास के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। जब तक अन्न, वस्त्र प्रादि जीवनोपयोगी पदार्थों का समाज मे प्रत्यावर्तन होता रहता है, तब तक सामाजिक जीवन में शान्ति रहती है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि सभी अंगो की सहायता से शरीर के पोषक तत्व खून द्वारा शरीर के समी भागो मे पहुँचाये जाते हैं। किन्तु जब यह प्रत्यावर्तन चन्म हो जाता है या रुक जाता है, चाहे वह समाज में हो या शरीर मे, तभी स्वास्थ्य विगउने लग जाता है। जब समाज की उपेक्षा करके व्यक्ति के हृदय में मगह को
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सर्वोदय-भावना का विस्तार भावना उत्पन्न होती है, अपनी ही स्वार्थपूर्ति की प्राकाक्षा सजग हो उठती है, तव समाज मे संघर्षपूर्ण विषमता पैदा होती है पौर वह सामाजिक प्रशान्ति का मूल कारण बन बैठती है।
आज का संघर्ष भी पूंजीपतियो की बढती हुई धनलिप्सा एव अन्यायपूर्ण भावना ही है। सग्रह वृत्ति की राक्षसी मान्यता ने ही चोर-बाजार, रिश्वत प्रादि प्रमानुषिक प्रवृत्तियो को जन्म दिया है। अतः पूंजीपति जव तक अपनी संचय बुद्धि को त्याग कर अपने द्रव्य का प्रावश्यकतानुसार वितरण करने की ओर नहीं झुकेंगे, तब तक राष्ट्र और समाज मे विपमता का नाग होकर गान्ति की स्थापना होना दुष्कर है। जैसे शरीर अपने अगों मे विभेद न रखकर ही स्वस्थ रह सकता है, उसा प्रकार समाज की स्वस्थता भी परिग्रह का साम्यदृष्टि से वितरण करने में है।
अब मैं समाज की वर्तमान वर्ण-व्यवस्था को पालोचना करते हुए बतलाना चाहूंगा कि समाज के विभिन्न प्रगो मे क्योकर भेद उत्पन्न कर दिया गया और इसके कारण किस प्रकार एक अग पोपण और दूसरा भग पोषण के प्रभाव मे विकृत हो चला ? इसके साथ यह भी बताऊंगा कि दर्ण-व्यवरथा की स्थापना कर और किस उद्देश्य को दृष्टिकोण मे रखकर
____ जैसे शरीर के चार प्रमुख अग होते है, उसी प्रकार समाज मे कर्तव्यो को प्टि मे रखकर चार वर्णो की स्थापना हुई। जो लोग सशक्त और युद्धकला में निपुण थे, उन्होने रक्षा का भार अपने ऊपर लिया और वे क्षत्रिय पलाये । जिन लोगो को अध्ययन और आध्यात्मिक क्षेत्र में अधिक रुचि थी, दे दाहाण कहलाये और उन्होंने समाज मे नीति द धर्म के प्रचार का बीड़ा उठाया। जिस समुदाय को शुद्र कहा जाता है, उसने अपनी सर्वोच्च द तीन सेवा भावना से समाज की नीची-से-नीची सेवा करने की इच्छा
पाट की और समाज के हर तरह के काम के लिए उन्होने अपने आपको समर्पित कर दिया । किन्तु इन तीनो दर्गों के भरण-पोषण का सवाल उठ खड़ा हया। सभी समाज के अलग-अलग कामो को पूरा करेंगे, मगर खाना कहाँ
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जैन-सस्कृति का राजमार्ग से प्रावेगा ? तो समाज के एक हिम्मे ने यह उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया कि व्यापार, खेती श्रादि साधनो से जीवनोपयोगी पदार्थ उत्पन्न कर वह समुदाय समग्र समाज के भरण-पोपण का प्रबन्ध करेगा तथा यह समुदाय 'वश्य' कहलाया । ___समाज की सुव्यवस्था को लश्य मे रख कर ही सम्भवत यह वर्णविभाग हुप्रा होगा, किन्तु समय प्रवाह के माय यह वर्ण-विभाग विकृत की
ओर बढ चला । कत्र्तव्य की अपेक्षा जातिवाद को अधिक महत्व दिया जाने लगा। अपने को श्रेष्ठ बताकर अपनी ही पूजा-प्रतिष्ठा कराने के लिए अन्य वों का तिरस्कार और निरादर किया जाने लगा । शूद्रो को सबसे निकृष्ट माना जाने लगा, जिन्होने समाज की कठोरतम सेवा करना स्वीकार किया था और तो क्या, शूद्रो को शास्त्र सुनने का भी अधिकार नही बताया गया। यदि कोई भूल से सुन लेता तो उसके कानो मे गरम शीशा डाल दिया जाता था। शूद्रो का तिरस्कार करने की प्रवृत्ति का जन्म ब्राह्मण-मस्कृति की विकृति से ही हुआ।
ब्राह्मण यदि प्राचार-विचार से श्रेष्ठ है और इसलिए वह ऊँचा रहे तो इसमे किसी को असहमति नहीं हो सकती, किन्तु शूद्रो का, क्योकि वे शूद्र हैं, तिरस्कार करना सर्वथा अन्याय है। शरीर के अन्य अगो को वस्याभूषण से सुसज्जित करके तथा सिर पर तुरे लगाकर सुन्दर साफा बांधकर शरीर के निम्न भाग को तिरस्कृत समझ यदि नग्न ही रखा जाय तो वह शोभनीय प्रतीत होगा ? वह तो शरीर का एक उपहासास्पद स्वरूप हो जायगा । यही आज के समाज का हाल है। जैन-सस्कृति का स्पष्ट दृष्टिकोण है कि
फम्मुरणा बेमरणो होई कम्मुरणा होई पत्तियो।
कम्मरणो वेसयो भवई, सुद्दो हबई कम्मुणा ।। कर्म अर्थात कार्य (माचार-विचार) से ही ब्राह्मणत्व आदि का आरोप किया जा सकता है। जैन-मस्कृति वर्ण को बपौती के रूप में नहीं मानती कि ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण ही है, चाहे व विलामी, हत्यारा और पापी
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सर्वोदय - भावना का विस्तार
सब कुछ हो, तथा शूद्र का बेटा शूद्र ही हो, चाहे त्याग और चारित्र्य की दृष्टि से उसका जीवन दूसरो के लिए अनुकरणीय बना हुआ है। जैन-सस्कृति तो गुरण पूजक है । वह क्षत्रिय, ऋषभ, महावीर श्रादि तीर्थंकरो, ब्राह्मण गौतम आदि गणधरो, वैश्य धन्ना, शालिभद्र महान् त्यागियो श्रौर शूद्र (भगी) हरिकेशी प्रादि मुनिवरो की सबकी हृदय से प्राराधना और उपानना करने का प्रादेश देती हैं । इसलिए नही कि वे क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, या शूद्र घे, वल्कि इसलिए कि वे गुणधारी थे, उन्होने निज का जीवन विकसित कर अन्य प्राणियो के जीवन विकास की ओर अपनी सभी शक्तियो को लगाया | जैन-सस्कृति के सामने वर्ण का कतई दृष्टिकोण नही है, उसके सामने तो प्रात्मिक विकास की महिमा है ।
प्राज समाज के हरिजन - उद्धार की एक समस्या है । महात्मा गाधी ने इस क्षेत्र मे महान् आन्दोलन किया है और अब तो भारतीय सविधान द्वारा छुआछूत को घपराध करार दे दिया गया है । किन्तु यह समस्या श्रद भी समस्या है और जब तक विचारों मे जोरदार प्रान्दोलन नही होता, यह समस्या हल नही हो सकती । समाज मे हरिजन यदि अपना काम करना छोड दें तो तत्काल अन्य वर्षो की तबियत ठिकाने श्रा जाय । भारत मे ही मानवता के क्रूर अपमान का दृश्य इस रूप मे हमे देखने को मिलता है । कुत्तो को चूम-चूमकर प्यार किया जाता है, किन्तु भूख और रोग मे सड़ते हुए इस मानव की घोर रूढिवादी सवर्ण देखना भी नही चाहता । धूलियागंज मे मुझे एक भाई ने पूछा कि 'हरिजन का हमारे मन्दिर मे प्रवेश न हो इसके लिए हमारे एक मुनि (दिगम्बर) ने अनशन करके प्राण त्याग दिये, इस विषय मे छापका क्या विचार है ? '
मैंने कहा—“जैन दर्शन में तो जातिवाद को कही महत्व नही दिया गया है, फिर छुवाछूत का उसके सामने विचार ही नही उठना प्रत. शुद्ध जीवन व्यतीत करने वाले हरिजन के लिए भेदभाव का कोई प्रश्न नही हो
सकता ।
जन-दर्शन विगाल घोर व्यापक विचारधारा लेकर चलता है । प्रत्येक
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग मानव ही नही, प्रत्येक प्राणी को समता की दृष्टि से देखता है । किन्तु इसका ही एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो अन्य दर्शनो के समान सकुचित विचारधारा रखता है । वह है दिगम्बर सम्प्रदाय, जो शूद्र को मोक्ष का अधिकारी नही मानता और इस प्रकार शूद्र व स्त्री को मोक्ष के अधिकार से वचित कर दिया है। प्रतिगामी विचारो का ही प्रदर्शन किया है। उनका कहना है कि गुणस्थान मे अर्थात् साधुत्व मे स्त्री गौत्र का उदय नही होता और सूत्र मे नीच गोत्र का उदय है, एतदर्थ वह उक्त गुणस्थान को स्पर्श नही कर सकता और उसका स्पर्श किये बिना मोक्ष की प्राप्ति नही हो सकती। बह उपयुक्त है किन्तु 'गोत्र' शब्द से जाति का अर्थ लेना कतई ठीक नही कहा जा सकता। जाति विशेष को लक्ष्य मे रखफर गौत्र शब्द की व्याख्या इसी सम्प्रदाय ने की है। किन्तु ठाणायाग सूत्र की टीका मे 'गोत्र' शब्द की व्याख्या इस प्रकार दी गई है
__ "प्रय सत्पुरुष, अयं धर्मात्मा, अय सदाचारी, एतादृशां गा वारणी प्रायते, रक्षतेति उत्तम गौत्रः।"
अर्थात्-श्रेष्ठ कर्तव्य के द्वारा जो श्रेष्ठ वाणी की रक्षा करता है, वह उच्च गोत्र वाला है। और
"अयं शूद्र., अयं दुराचारी, अय दुष्टात्माः, एतादृशां गा वारणी त्रायते रक्षतेति नीच गौत्र.।"
अर्थात्-सपने नीच कर्म द्वारा निकृष्ट वारणी की जो रक्षा करता है, वह नीच गोत्र वाला है।
- इस प्रकार ऊंच-नीच गोम जाति विशेष से नहीं, किन्तु भावना व फर्म विशेष से है। गुणस्यान का स्पर्श भी भावना से होता है । निकृष्ट स्थान मे भी उत्पन्न व्यक्ति श्रेष्ठ भावना रखता है तो वह ऊपर के गुग्गस्थानों का स्पर्श कर सकता है । हरिकेशी मुनि का ज्वलन्त उदाहरण इसी सत्य को स्पष्ट करता है । ये मुनि हरिजन कुल मे पैदा होने पर भी अपने दिव्य गुणो के कारण, देवेन्द्र, नरेन्द्र और क्रियाकाडी, जातीयाभिमानी विप्रो कमी पूज्यनीय बने थे । अतः यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि विशिष्ट गुण
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युक्त व्यक्ति ही उत्तम गुणस्थानो का स्पर्श कर सकता है । उसमे जाति का कोई महत्व नही | ऊंच पौर नाच गौत्र कषायो पर ही अवलम्बित है | तीव्र कषाय वाला नीच गोत्रीय है और मन्द कषाय वाला ऊँच गोत्रीय ।
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अतः जिस प्रकार प्रशुचि के साफ करने से हम माता को घृणित नही समझ लेते, बल्कि उसके प्रति विनम्र और प्रज्ञाकारी होते है, उसी प्रकार हरिजन भी समाज के लिए माता के तुल्य समझे जा सकते है और इनके प्रति भी यथायोग्य समान व्यवहार की श्रावश्यकता है ।
मेरे कहने का निष्कर्ष यही है कि सर्वोदयवाद के महत्व को समझे और परमात्मा की जय बोलने मे सब प्राणियो के साथ साम्य दृष्टि को अपनाएँ । वैभव और ये शरीर आदि सब नश्वर हैं, एक दिन नष्ट हो जायेंगे और साथ रह जायगा वहीं, जो कुछ किया है । जैनशास्त्रो मे परदेशी राजा का उदाहरण घ्राता है, जिसके हाथ निर्दोषों के खून से सने रहते थे, वह भी केशी भ्रमण के उपदेश से त्याग पथ की प्रोर अग्रसर हुम्रा । प्राज भी उसी त्याग की प्रावश्यकता है, समाज की सघर्षमय विषमता को मिटाने के लिए | गोषरण का हमेशा के लिए खात्मा कर दिया जाय, इसके लिए अपनी वासना और घावश्यकताओ को सीमित करना चाहिए और अपने वैभव का प्रमुक हिस्सा दानादि शुभ कार्यों के लिए निर्धारित किया जाना चाहिए । प्राप यहाँ बैठे हुए नज्जन भी दान आदि शुभ कार्य का श्रपना हिस्सा निकालने का व्रत लें । इस पर कई श्रावको ने ऐसा व्रत लिया ।
धन्त मे यही कहना चाहता हूँ कि समस्त प्राणियों को श्रात्मवत् समझे, सबसे प्रेम करे, सबकी रक्षा करे, यही सर्वोदयवाद है श्रोर इसी मे परमात्मा की जय यथार्थ रूप से वोली जा सकती है ।
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जैन धर्म का ईश्वरवाद कैसा ?
सुविधि जिनेश्वर वन्दिये हो,
वन्दत पाप पुलाय ।
यह सुविधिनाथ भगवान की प्रार्थना है। इसमें कवि विनयचन्द जी कहते हैं कि हे भव्य पुरुपो, परमात्मा को नमस्कार करो, क्योकि नमस्कार करने से तुम्हारे सकल पाप पुज नष्ट हो जायेंगे ।
लेकिन प्रश्न पैदा होता है कि जब परमात्मा दृष्टगोचर ही नही होता तो किसे वन्दन करें ? वह परमात्मा कहाँ है, कैसा है ? आप लोग सोचते होगे कि जब परमात्मा सम्मुख हो तभी तो उसके दर्शन हो सकते हैं, उसको वन्दन किया जा सकता है किन्तु मैं पूछता हूँ कि क्या परमात्मा के दर्शन इन चर्मचक्षुप्रो से सम्भव है ? स्वयं तीर्थंकर के सम्मुख होने पर भी उनके दर्शन इस तरह नही किये जा सकते । उत्तराध्ययन सूत्र मे कहा है"न हू जिरण अज्ज दिस्सई"
भगवान् महावीर स्वय बैठे हुए हैं और गोतम से कह रहे हैं, है गौतम ! तुम्हे श्राज जिन नही दिखाई देते । यह बडी गहन बात है । भगवान् महावीर स्वय बैठे हुए हैं और यह कहते हैं कि तुम्हे जिन नही दिखाई देते' इसका अर्थ क्या ? यही कि चर्म चक्षुत्रो से दीखने वाला परमाणुत्रों का धमान है । जिनत्त्व का जो स्वरूप है वह जिन बने विना नही दीखता । तः उन्होने कहा कि जिन बने विना जो स्परूप देखते हो, वह जिन नहीं किन्तु अन्य दीखता है । कई लोग कहते है - चलो भगवान् के दर्शन करने चलें किन्तु वह भगवान् के आत्मिक स्वरूप नही, शारीरिक रूप की भी मूर्ति प्रतिकृति मात्र है । जब कि महावीर का कथन है कि स्वयं भगवान् समक्ष उपस्थित हो फिर भी दिव्य ज्ञान चक्षुत्रो के बिना इन चर्म चक्षुनो से उनके दर्शन नही हो सकते तो फिर मूर्ति के दर्शनों से क्या होगा ?
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जैन धर्म का ईश्वरवाद कैसा?
६६ दूसरी बात है वह भगवान् कहाँ है ? जिसके हम दर्शन करे। वह भगवान् और कही नही है, आपके ही हृदय के अन्दर विराजमान है । कहा है
देह देवालय प्रोक्त', जीवो देव सनातन ।
त्यजेद ज्ञान निर्माल्य सोऽह भावेन पूज्येत् ॥ भगवान् जिस मन्दिर मे रहते हैं, वह मन्दिर हमारी ही देह है और उसमे रहा हुआ चिदानन्द प्रात्मा ही सनातन देव है। यह प्रज्ञान के कारण ही अपने स्वरूप को भूल चुका है। इसलिए इस अज्ञान को छोडो और "मैं ही भगवान् हूँ।" इस निष्ठा से अपनी प्रात्मा का ही समादर करो-भगवान् का पता अवश्य लग जायगा।
इस विवरण से मैंने यह कहना चाहा कि भगवान कोई अलग वस्तुस्थिति नही, वह तो एक स्वरूप है, अनुभाव है जिसके दर्शन अपनी ही प्रात्मा की उच्चता के साथ अपने ही दिव्य चक्षुषो से किया जा सकता है । अब जैनधर्म मे ईश्वरवाद का स्वरूप किए ढग से वणित किया गया है, उसकी सूटम ना पर प्रकाश डालने के पूर्व एक शका का स्पष्टीकरण करना चाहता हूं कि ईश्वर को मृष्टि का कर्ता मानने वाले दर्शनो के सम्बन्ध मे जनधर्म की मान्यता क्या है ?
पई दर्शन ऐसे है जो ईश्वर को इस सृष्टि का कर्ता मानते हैं । उनका वहना है कि ईश्वर ने ही जीवो को बनाया और समार की समस्त दृष्टिगत वस्तुणे की रचना की । इसके बाद भी ईश्वर इनकी पालना करता है, इनका विनाश करता है और नवीन रचनाएँ करता रहता है। ईश्वर की इच्छा के बिना पेड का एक पत्ता भी नहीं हिलता तथा उसके चलाये ही हर पदार्थ गति करता है । इस मान्यता का निष्कर्ष यह हुआ कि ईश्वर, ईश्वर है जो हमशा एक व नित्य रूप से ईश्वर ही रहता है तथा अन्य जीव, जीव है जो कभी भी ईश्वर का रूप नही ग्रहण कर सकते, अर्थात् जीव कभी भी अपना विकास कर भगवान् नही बन सकता और भावना सदैव सूत्रधार की तरह इन सर चीजो का निर्माण, पोपण व विनाश करता रहकर क्रीडा व अानन्द । करता है। सूत्रधार अपना नाटक खेलबार जिस प्रकार उन पात्रो को समाप्त
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जन-संस्कृति का राजमार्ग कर देता है, उसी प्रकार ईश्वर भी इन सब जीवो को क्रीडा कराकर निश्चित अवधि पर समाप्त कर देता है। परन्तु ऐसा मानने पर ईश्वर, ईश्वर नहीं रहता । यह तो बच्चो के खिलौने की तरह कल्पना कर ली है। जैन दर्शन ईश्वर के स्वरूप को इस प्रकार नहीं मानता।
प्राज प्रात मैं बाहर जाकर पा रहा था कि एक भाई मिले । बातचीत के दौरान मे उन्होने पूछा कि आज किस विषय पर व्यास्यान होगा। मैंने कहा कि मैं हमेशा ईश्वर प्रार्थना बोलता हूँ सो आज पूरा व्याख्यान ही ईश्वरप्रार्थना पर होगा । वे बोले-जैन और बौद्ध तो ईश्वर को मानते ही नही, फिर पाप ईश्वर प्रार्थना के विषय मे व्याख्यान कैसे देगे? वे भाई ही क्या, दूसरे कई दार्शनिक भी जैनधर्म के तत्व को नही समझने के कारण कह देते हैं कि जैनधर्म अनीश्वरवादी है, अत नास्तिक है।
जिन लोगो ने ईश्वर को कुम्हार की तरह एकान्त रूप से कर्ता मान लिया है और राजा का तरह उसे नियन्ता मान लिया है, वे अपनी इच्छानुसार ईश्वर की कल्पना मानने वाले को ही ईश्वरवादी और प्रास्तिक समझते हैं एव अन्य लोगो को अनीश्वरवादी व नास्तिक कहते हैं । इसी भ्रान्त धारणा के श्राधार पर जैनधर्म को अनीश्वरवादी व नास्तिक कहा जाता है, पर वे यह नहीं समझते कि जैनो के २४ तीर्थकर हुए हैं तथा उनके नमस्कार मन्त्र मे पहले और दूसरे पद पर जिन प्रारिहत और सिद्धो को नमस्कार किया गया है वे ईश्वर ही हैं।
जैनधर्म में ईश्वर की जो परिभाषा दी गई है, वही अनुभव के घरातल पर सिद्ध और तर्क की कसौटी पर सत्य ठहरती है । ईश्वर के सत्य स्वरूप को समझने के लिए स्याद्वादी व नयात्मक दृष्टिकोण से जैनधर्म मे ईश्वर तीन प्रकार के माने गये हैं याकि ईश्वरत्व को तीन सपो में देखा गया है।
ईश्वर के वे तीन प्रकार इस तरह माने गये है-(१) सिद्ध, (२) मुक्त और (३) बद्ध।
सिद्ध ईश्वर का स्वरूप निरंजन, निराकार, निरामय, ज्योति स्वरूप माना गया है । प्राचारांग सूत्र मे सिद्धस्वरूप का विस्तृत वर्णन है। जिनके
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जैन धर्म का ईश्वरवाद कसा ? वणं, गन्ध, रस, स्पर्श, सहनन, सठान प्रादि नहीं हैं व जिनके कोई लिंग नहीं है-वे सिद्ध हैं । उनके न राग है, न द्वेष । किसी प्रकार का कर्म फल जिनके संलग्न नहीं है । उन्होने आत्म-स्वरूप की उज्ज्वलता के बाधक प्रष्ट कर्मों को नष्ट कर दिया है और जो शुद्ध प्रात्म-स्वरूप मे स्थित हो गये है। सिद्ध शब्द का शब्दार्थ भी यही हैसिज बन्धने एवं ध्या अन्निसयोगे धातुरो से यह शब्द बना है जिसका अर्थ होता है कि प्रकृति के समस्त बन्धनो को नष्ट करने वाले । इस प्रकार जैनधर्म मे सिद्ध ईश्वर उन प्रात्मानो को माना गया है जो अपने स्वरूप की परमोज्ज्वलता को प्राप्त कर ससार से समस्त बन्धनो से विमुक्त हो निराकार आदि निर्बन्ध रूप मे प्रतिष्ठित हो गई है। उन प्रात्माप्रो का ससार से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, वे ससार की किसी भी प्रवृनि को प्रेरित नहीं करती।
दूसरा प्रकार है मुक्त ईश्वर का { मुक्त ईश्वर वे प्रात्माएँ हैं जिन्होने गगेगे मे रहते हुए अपने समस्त विकारो के कलुप को धो डाला है । काम, प्रोध का जिनमे प्रश भी नहीं है-राग द्वेष की भावना को समूल नष्ट कर दिया है । जानावरणीय, दर्गनावरणीय, मोहनीय व अन्तराय कर्मों को क्षय करके जिन्होने अपनी प्रात्मा के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन एव अनन्त शक्ति को प्रकाटित कर दिया है। ऐसे महापुरुष जो सर्वज्ञ व सर्वदर्शी हैं तथा स्वस्वरूप मे रमण करते है, वे मुवन ईश्वर हैं या जिन्हे जीवन मुक्त कह दें । भगवान् महावीर प्रादि तीर्थ दर इसी भूमिका पर थे । नमस्कार मन्त्र मे पहले पद पर जिन अरिहतो को नमस्कार किया है वे हैं मुक्त ईश्वर और दूसरे पद पर जिनको नमस्कार किया गया है वे है सिद्ध ईश्वर । सिद्ध ईश्वर के स्वरूप को प्रभाशित करने वाले भी मुक्त ईश्वर ही है अत. उनका पद पहला रखा गया है।
तीसरे, बद्ध ईश्वर ससार की समस्त प्रात्माएं हैं जो चार गति चौरासी लाख जीव योनियो मे विखरी हुई है। बद्ध याने कर्मों से वघा हुना। ये ससार की समस्त श्रात्माएँ काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग द्वेष प्रादि के कारण अपने प्रात्म स्दम्प को भूली हुई है और पाठो प्रकार के कमों का वध करती
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग
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रहती है । यह बद्ध ईश्वर ही सृष्टि का निर्माण करता है । वृक्ष को बीज मे रहे हुए श्रात्मा ने ही बनाया है, पानी में रहे हुए जीवात्माश्रो ने पानी की तरलता का निर्माण किया । श्राज का विज्ञान भी वनस्पति मे तो जीव स्वीकार कर चुका है किन्तु पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि आदि में नही करता । पानी और वायु मे केवल उन्ही त्रस जीवो को वह मानता है जो दूरवीक्षण यत्र से देखे जा सकते हैं पर उनके पिड नही मानता। जैन दर्शन मे इन पिंड शरीरो का विस्तृत वर्णन है कि इनमे जीव कैसे हैं और वे जीवात्मा मिलकर पुद्गलो को ग्रहण करते हुए किस प्रकार इन पदार्थों की रचना करते हैं ? हमारे शरीर को भी हमारी प्रात्मा ने गर्भ मे माता की रसवाहिनी नाड़ी से रस दे देकर बनाया है तो उसी तरह सारे बाह्य जगत् की जो सृटि है - जो मकान, सड़क, रेल मोटर आदि निर्माण कार्यों का जाल बिछा हुआ है वह इन्ही बद्ध आत्माओ की रचना है। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, कोट, पतग, पशु आदि अपने-अपने ढंग से ससार के कई पदार्थों की रचना मे योग देते हैं तो मनुष्य ने प्रपने मस्तिष्क और अपनी बुद्धि से प्राज जगत् की विविध दृश्यावलियाँ निर्मित की है। जैन धर्म इस तरह सृष्टि का कर्ता, निर्माता वा नियन्ता किसी एक का नित्य वा अधूरे ईश्वर को नही मानता, वह तो इस समस्त क्रिया कलापो का कर्ता उन सब आत्माओ को मानता है जो इस संसार मे वद्ध है और अपने एकाकी वा सामूहिकप्रयासो से सृष्टि की रचना मे योग देते रहते हैं ।
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और जैन धर्म की सूक्ष्म सिद्धान्त दृष्टि के अनुसार ये सब बद्ध ईश्वर की तरह निश्चय दृष्टि मे शुद्ध स्वरूपी हैं किन्तु तैजस कामणं शरीर से बधा हुना होकर अपने शुद्ध स्वरूप को भूला हुआ है। जैन दर्शन की इस मान्यता के पीछे श्रात्मानो को अपने विकास के लिए प्रेरणा का अदभुत स्रोत बह रहा है । यह नही कि श्रात्मा सिर्फ ईश्वर की छाया है, उसका कोई स्वतन्त्र मस्तित्व नही, बल्कि सभी श्रात्माएँ पूर्ण विलग व स्वतन्त्र हैं तथा उन सब यद श्रात्माओ मे ईश्वरत्व छिपा पडा है । वे सब शक्ति धारिणी हैं, आवश्यकता कि वे अपनी मात्माप्रो पर लगे कर्म मैल को पूरी तरह धोकर
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न धर्म का ईश्वरवाद कैसा ?
१०३ अपनी शक्ति को चमका दे । संयम और साधना का 'पुरुषार्थ करते हुए ये बद्ध ईश्वर ही मुक्त ईश्वर हो जाते हैं और शरीर के अन्तिम बन्धनो को छोडकर ये ही सिद्ध ईश्वर के चरम स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। भगवान् महावीर आदि तीर्थकर भी पहिले बद्ध ईश्वर थे फिर त्याग व तपश्चर्या से अपना विकास साधते हुए मुक्त ईश्वर हुए तथा उसके बाद सिद्ध ईश्वर हो गये ज्योतिस्वरूप निर्मल ।
जैन धर्म का जो यह ईश्वरवाद है, वह बडा गूढ है और उसमे स्वय कर्तृत्व की एक उदात्त भावना छिपी हुई है । बद्ध से लेकर प्रसिद्ध स्थिति तक जो प्रात्मस्वरूप वरिणत किया है उसका स्पष्ट निष्कर्प है कि प्रारम्भ से कोई एक ही ईश्वर नहीं है जो प्रात्मा सिद्ध होकर ईश्वर हो जाता वे अपनी समस्त ज्ञानादि अनन्त शक्तियो को प्राप्त करके अपने स्वतन्त्र निज स्वरूप रमण मे तल्लीन रहती है और अन्य सिद्ध परमात्माओ की पूर्ण ज्योति के सदृश ज्योतिस्वरूप बन जाती है । तदन्तर उनका ससार से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नही रहता है फिर कर्ता और नियन्ता होने की बात तो कतई
ससार को बनाती, विगाडती या बदलती है ये वद्ध आत्माएं जो जब उत्कार्यों में प्रवृत्त होती है अधिकतया तब ससार मे जिसे सतयुग कहें या दुछ और नीति और धर्म का युग चलता है और जव इन बद्ध आत्मानो मे दिकृतियां बढती हैं तव प्रनीति और अन्याय का क्रम चलता है। इन बद्ध यात्मानो मे विकास की गति एक अोर ससार मे सामूहिक रूप से अच्छा पातावरण पैदा करती है तो दूसरी ओर इन बद्ध प्रात्मामो मे से ही जो उच्चतम विकास साध लेती है, उन्हें मुक्त प्रौर सिद्ध अवस्थानो की ओर प्रागे बढाती है।
तो ससार मे रहा हुमा हर वद्ध प्रात्मा अपने मे एक प्रेरणा का एत्साह दाल सकता है क्योकि वास्तविक रूप से वह किसी एक ईश्वर की राक्ति को पाठपुतली नहीं, स्वयं अपने विकास के कर्ता, नियन्ता और निर्माता है-पुरुषार्थ करने से अनादि से वद्ध आत्मा भी विकास करते हुए मुक्त
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जैन-संस्कृति का राजमार्ग और सिद्ध हो सकता है । निष्कर्ष यह हुआ कि हम भी मुक्त होकर सिद्ध हो सकते हैं और इसीलिए परमात्मा को प्रार्थना व स्तुति की जा रही थी ही
सुविधि जिनेश्वर वन्दिये हो
वन्दत पाप पुलाय । अब एक और प्रश्न रह जाता है कि जब सिद्ध या मुक्त कुम्भकार को तरह कर्ता नही है और हमारी प्रार्थना व अप्रार्थना मे वह रीझता या रूसता नही है तो फिर उसकी प्रार्थना करने क्या लाभ ?
प्रार्थना के असली महत्त्व को समझने की दृष्टि से यह प्रश्न वडा महत्त्वपूर्ण है । मैं आपको पूछता हूँ कि आप प्रार्थना क्यो करना चाहते हैं ? सभव है, कई यह समझते होगे कि प्रार्थना करने से भगवान् हमारी मन की इच्छाएं पूरी करेंगे और उनकी समझ होती है ससार की इच्छाओ के सम्बन्ध मे। मतलब कि भगवान् की प्रार्थना करेंगे । तो धन, परिवार या कि उपयोग आदि की दृष्टि से उनका सुख बढ़ेगा और इस सम्बन्ध में कोई कष्ट आवेगा ही नही या नावेगा तो भगवान् उसे दूर कर देगे। अथवा प्रार्थना से प्रभु प्रसन्न रहेगे और भक्त जन पर अपनी कृपा बरसाते ही रहेगे कि वह किन्ही कष्टो से पीड़ित न हो।
प्रार्थना करने के सम्बन्ध मे ऐसी भी भावनाएं कई दर्शनो मे मानी जाती हैं और उसका प्राधार वही है कि ईश्वर ही संसार में होने वाले हर कार्य का प्रेरक है । वस्तुतः प्रार्थना या गुणगान ईश्वर को प्रसन्न करने या रिझाने के लिए नही किया जाता । वह ईश्वर तो ससार से अलिप्त है, उसे अापकी प्रार्थना से क्या ? वह प्रार्थना और गुणगान करना है अपनी ही पात्मा के लिए। उनके गणो का स्मरण करके, उनके विशुद्ध अात्मस्वरूप पर चिन्तन करके हम अपनी आत्मा मे विकास की प्रेरणा जगा सकते हैं और उस स्वरूप को आदर्श मानकर उस दिशा मे गति कर सकते है। इसलिए प्रार्थना व गुणगान से अपनी आत्मा का विकास संभव है। ठीक उसी तरह जिस तरह सूर्य की ऊष्णता से किसान अपनी फसल पकाता है, धान्य की उपलब्धि करता है किन्तु उस उत्पादन से सूर्य का अपना कोई वास्ता नही
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जैन धर्म का ईश्वरवाद कैसा? होता। सूर्य अलिप्त है उस फसल से और धान्य से, वह तो किसान की प्राप्ति है, सूर्य उसमे का नहीं। उसी प्रकार मुक्त और सिद्ध ईश्वर अलिप्त होते हैं, वीतराग होते हैं, किन्तु उनके तेज से यदि बद्ध प्रात्माएं प्रेरणा लेकर विकास करना चाहे- प्रात्मोत्थान की फसल पकाना चाहे तो वे उनके प्रादर्श को अपने सामने रखकर वैसा कर सकते है ।
इसी दृष्टि से प्रार्थना और ईश गणगान का महत्त्व है। उसका सम्बन्ध किसी सासारिक वासना या कामना से नहीं है। भगवान महावीर ने कहा कि जिन होकर जिन को देख सकोगे प्रत प्रार्थना की एकाग्रता व तल्लीनता हमे भी विरागी होने की प्रेरणा देती है और एक विरागी ही बीतरागी के स्वरूप का यत्किचित् दर्शन कर सकता है। प्रार्थना केवल वाणी से नहीं, मन, वचन और काया द्वारा प्रभु के ध्यान मे तल्लीनता लाने ने सफल होती है । एक कवि ने कहा है कि
खुदा से मिला वो खुदा हुआ,
नहीं जुदा हुआ। प्राप लोग खुदा का नाम सुनकर चौंके होगे कि यह इस्लाम की क्या बात है ? हम तो अनेकान्तवादी हैं, जहां भी सत्याश हो उनको प्रेम से ग्रहण करो और पूर्ण सत्य के दर्शन की चेष्टा करो। खुदा फारसी भाषा का शब्द है । यह शब्द खुदा "खुद आमदन" से बना है जिसका अर्थ होता है स्वयं प्राया दृप्रा । प्रात्मा बना हुप्रा नही है क्योकि जो बनता है वह नष्ट भी हो जाता है । जैसे मकान, कपडा, शरीर प्रादि धनते हैं तो नष्ट हुए देखे जाते है, लेकिन प्रात्मा बना हुप्रा नही है प्रत. खुदा है। अब जो खुदा से मिला, प्रर्थात् जिसने प्रात्मस्वरूप मे रमण किया, वह खुदा बन गया, परमात्मा हो गया और जब वह श्रात्मा एक वार परमात्मा हो गया तो फिर उस ईश्वरत्व से वह कभी जुदा होने वाला नहीं है । एक बार ईश्वरत्व, सिद्धत्व प्राप्त करने परमात्मा पुन. कभी ससार मे नही लौटता, वह वहीं अनन्त श्रानन्द मे लीन रहता है।
इसलिए शुह विचारणा व शुद्ध भावना से ईश्वर की प्रार्थना करना
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जैन-सस्कृति का राजमार्ग साधन है, साध्य नही। साध्य तो सिद्ध ईश्वरत्व प्राप्त करना है । प्रार्थना मे अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह प्रादि सत्पुरुपार्थ स्पष्ट होते है तथा 'इन सत्पुरुषार्थों को श्रात्मा के पराक्रम से साध लेने पर विकार नष्ट होते हैं
और विकास उपलब्ध होता है। जैसे गुरू के पास विद्याध्ययन करने से ज्ञाना. वरणीय कर्म नष्ट होता है और आत्मा का गुण-ज्ञान प्रकट होता है । स्वर्ण के विकार को जैसे अग्नि के ताप से नष्ट किया जाता है वैसे ही प्रात्मा के विकार इन सत्पुरुपार्थों की साधना से गलते पोर जलते चले जाते हैं ।
शास्त्रो में प्रात्मोत्थान के जितने भी साधन बताये हैं, उनका मूल उद्देश्य पुद्गलो के मोह को दूर करना और अपनी ही प्रात्मा मे रहे हुए ईश्वरत्व को पहचानना तथा प्रकटाना है । जड पदार्थों से मोह और परिग्रह से ममत्व हटता है तो प्रात्मा का स्परूप उज्ज्वल होने लगता है । इम स्वरूप को उस चरम स्थिति पर विकसा देने का नाम ही मुक्ति है, वे ही मुक्त ईश्वर हो जाते है । मुक्ति इसी देह मे, इसी ससार मे साघी जा सकती है । आवश्यकता है कि इन पुद्गलो का मोह दूर हटाया जाय । इन पुद्गलो की भयंकरता पर एक कवि ने इस तरह प्रकाश डाला है
पुद्गल दे दे धक्का, तूने मुझको खूब रुलाया रे । ध्रुव । षड्द्रव्यन में तू और मैं, दोनो हो हैं बलवान । तूने मुझको ऐसा बनाया, मै भूल गया स्वभाव ॥१॥ यद्यपि मै हूँ सिद्धस्वरूप, तू अचेतन भाव ।
तुझ जड़ से मै ऐसा बंधिया सोया चेतन नांव ॥२॥ ससार की चारो गतियो मे भ्रमण कराने वाला यह पुद्गल मोह ही है । कवि ने तो सव बोझ पुद्गलो पर डाला है पर वास्तव में प्रात्मा का अपने स्वरूप को भूलकर इन पुद्गलो मे पासक्त होना ही अपना पतन कराना है । इस कठिन विषय को मैं एक दृष्टान्त के रूप में सरल विधि से कहना चाहता हूं, ताकि बहिनें और बच्चे भी इसको आसानी से समझ लें।
एक गांव में एक महाजन के चार लडकियां थी । वह उन सबकी शादी . कर चुका था। एक बार चारो जामाता ससुराल मे पाये। महाजन ने चारों
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१०० जैन धर्म का ईश्वरवाद कैसा ? का रस्म के मुताबिक खूब सत्कार किया। किन्तु रोज ससुराल मे पकवान साते हुए वे चारो वहां टिक ही गये । महाजन उनकी सेवा-सत्कार से घबराने लगा लेकिन मुंह से जाने को किस प्रकार कहे, इस विचार से उसने तरकोव करनी शुरू की। उसने पक्ववान्न चन्द करके वाजरे का खीच और घी देना शुरू किया तो बडा जामाता समझ गया कि यह रवाना हो जाने का संकेत है । उसने प्रस्थान करने की स्वीकृति मांगी श्रीर दिखावे की मनुहार के बाद विदा हुमा।
किन्तु तीनो जामाता तो खीच, घी का आनन्द ही लूटने लगे और जमे रहे तो महाजन ने घी की जगह तेल शुरू कर दिया । इस पर दूसरे जामाता से भी विदा ली। लेकिन बाकी दो तो फिर भी टिके रहे। तब महाजन ने कहा कि उनके पल ग, गद्दे वगैरह धूप मे देना है सो वे सब मंगवा लिए और उन्हे सोने के लिए खाली दरियाँ दे दी। इस हरकत पर तीसरा जामाता भी विदा कर गया लेकिन चौथा जामाता फिर भी वेशर्म बना रहा तो महाजन ने एक और तरकीब की । दिखावे के रूप मे महाजन अपने बेटे से लडने लगा तो जामाता बीच-बचाव करने छुड़ाने गये तो दोनो ने मिलकर उनकी मच्छी पूजा कर दी । प्राखिर तब चौथा जामाता भी घर गया।
यह दृष्टान्त मिलता है अपने ही जीवन की चारो अवस्थाओ से । हमारा घर है मुक्ति-सिद्ध स्वरूप स्थिति और यहां माया से जुड़कर संसार के ससुराल मे पडे हुए हैं जिसे ससम्मान छोड देने मे ही आत्मा का कल्याण है। प्रात्मा स्वय ईश्वर रूप है किन्तु उस समय प्रच्छन्न रूप को निखार देने के लिए जरूरी है कि सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र के मार्ग की आराधना दी जाय और कर्म मल को काटा जाय जिससे यही प्रात्मा-परमात्मा का सर्वोत्कृष्ट रूप ग्रहण कर सकें।
एक अपेक्षा से जैनधर्म ईश्वरवादी नही है किन्तु दूसरी अपेक्षा से ईस्वरवादी है भी सही । एक ईश्वर है और वह कर्ता है । ऐसी मान्यता में हम सत्य नहीं देखते हैं किन्तु हर प्रात्मा मे ईश्वर का रूप विद्यमान है जिसे परम प्रगति के बिन्दु तक उठा देने पर वह रूप प्रकाशित हो जाता है । एक
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बार प्रात्मा के सिद्ध-बुद्ध होने पर उसका ससार से किसी भी रूप मे कोई सम्बन्ध नहीं रहता।
और जैन दर्शन की इस मान्यता के मूल मे रही हुई है कर्मण्यता की भावना और समानता का सन्देश । हर प्रात्मा बराबर है अपनी शक्ति और अपने स्वरूप की दृष्टि से किन्तु उस शक्ति और स्वरूप की प्राप्ति होती है एक कठिन साधना के बाद । इसलिए यह मान्यता प्रेरणा जगाती है कि हर आत्मा अपने उत्थान के लिए पराक्रम करे, कर्म बाधायो को काटकर मुक्ति के मार्ग पर आगे बढ़े । हम भी यह मान्यता हृदयगम करते हुए मुक्ति पथ पर अग्रसर हो, यही मेरी कामना है । सब्जी मण्डी, दिल्ली
२५-३-१९५१
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जैन सिद्धान्तों में सामाजिकता यह भगवान महावीर की प्रार्थना है । भगवान महावीर का जन्म ढाई हजार वर्ष पहले उस समय हुआ था जब चारो ओर घोर हिंसामय विकृतियां छाई हुई थी। पुरोहितो ने धर्म पर ठेका जमा लिया था तथा ईश्वर और मनुष्य के बीच सम्बन्ध कराने के वे ठेकेदार बन गये थे । वर्ण-व्यवस्था के नाम पर समाज मे फूट, कलह तथा पारस्परिक विद्वेष की भावनाएं प्रबल रूप धारण की हुई थी। छुवाछूत के झूठे झगडे पूरी मात्रा मे चल रहे थे और ऊंच-नीच का भेद कटु और वीभत्स हो रहा था । धर्म के नाम पर यनो मे घोडे और मनुष्यो तक की बलि दी जाती थी और उसे हिंसा नहीं कहा जाता था। इस तरह अमानवीय लीला के उस वातावरण मे भगवान महावीर ने जन्म लिया था।
और जहाँ ज्यादा विकृति फैल रही हो, महापुरुषत्व भी उसी मे प्रकट होता है कि अन्धकार मे प्रकाश की ज्योति जगाई जाय । फिर महावीर तो युग पुरुष थे। उन्होने समाज मे नई समानता की भावना का विकाम किया। यद्यपि उन्होने जिस जैन शासन को प्रदीप्त किया, उसका मुख्य मार्ग निवृत्ति मार्ग है अर्थात् सासारिक प्रपचो से जितनी मात्रा मे निवृत्त हुया जा सके, रोकर प्रात्मा को मुक्ति मार्ग की ओर आगे बढाया जाय । प्रत्यक्ष लक्ष्य साफ था लेकिन निवृत्ति की भावना हो ससार के प्राणियो मे तब पैदा होगी, इस प्रश्न पर महावीर ने गम्भीरता से सोचा और उस विकृत्तियो से भरे युग मे उन्होने एक-एक विकृति को चुन-चुनकर मानव हृदयो मे से काटा व एक नये प्रास्थावान् वातावरण का सर्जन किया।
यह निश्चय है कि जब तक सासारिक क्षेत्र मे ही एक भावनापूर्ण वातावरण की सृष्टि नहीं होगी, समाज मे परस्पर व्यवहार की रीति-नीति समान व सम्यक् नहीं बनेगी तो निवृत्ति के मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति भ
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साधारण रूप से पैदा नही हो सकेगी । इसलिए समाज मे समान और सम्यक् वातावरण पैदा हो तथा सामाजिकता की भावना का प्रमार हो, यह निवृत्ति के प्रत्यक्ष लक्ष्य का परोक्ष साधन माना गया । क्योकि यह ससार में प्रवृत्ति कराने की बात नही थी वरना सामाजिक सुधार द्वारा निवृत्ति के लक्ष्य को मस्तिष्को मे स्पष्ट कराने का अथक प्रयास था ।
यही कारण है कि उस श्रमानवीय युग मे श्री महावीर ने जो समान मानवता का अलख जगाया और नया जागरण पैदा किया वही महावीर का प्रमुख महावीरत्व है ।
मैं अभी आपको विस्तार से बताऊँगा कि महावीर के सिद्धान्तों में किस तरह समानता का अनुभाव कूट-कूटकर भरा है और ऐसा लगता है कि इस तरह एक लक्ष्य के लिए महावीर ने चतुर्मुखी प्रयास किये । एक दृष्टि से उन्होने यह सिद्ध किया कि सारे प्राणी एक समान हैं, एक समान शक्ति के धारक हैं और समान सम्मान के अधिकारी हैं और इस धारणा को कार्यरूप में परिणत करने के लिए उन्होने न सिर्फ तत्कालीन समाज मे ही एक क्रान्ति की, बल्कि क्रान्ति की बलवती ध्वनि को युग-यु के लिए गुंजायमान कर गये । जैन सिद्धान्तों मे सामाजिकता की प्रभावशाली प्रेरणा भरी होने की यही मुख्य पृष्ठ भूमिका है ।
सबसे पहले जैन सिद्धान्तो मे श्राध्यात्मिक दृष्टि से यह बताया गया है कि निश्चय नय से सभी प्रात्माएँ समान हैं । सभी अपना समान सर्वोच्च विकास साध सकती हैं और सभी श्रात्माओ मे अनन्त शक्ति विद्यमान है । अनन्त आत्माएं हैं उन सब का एक ही लक्षण है और जो भेद दृष्टि है वह सिर्फ कर्मों के कारण ही है । ये कर्म भी इन्ही श्रात्माओ की उपज होते है । श्रात्माएँ ही स्वयं कर्म करती है और उनका फल भोगती हैं, इस व्यापार में वे किसी भी अन्य शक्ति द्वारा प्रतिवन्धित नही होती । जंन मान्यता ने ईश्वर को सृष्टि का कर्ता इसीलिए नही माना है कि यह सिद्धान्त श्रात्माओ में भेद करता है श्रोर ईश्वरत्व को श्रात्मा के सर्वोच्च विकास से अलग मानत है जो समानता की दृष्टि से सर्वथा अनुचित व अग्राह्य है । प्राणीमात्र कहे
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जैन सिद्धान्तो में सामाजिकता हमारे यहाँ विकास की दृष्टि से पांच भागो मे बांटा गया है, एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय तक और मनुष्य पचेन्द्रियो मे श्रेष्ठ प्राणी है । इस मूल प्राध्यात्मिक धारणा को पुष्ट करते हैं जैनों के अहिंसा और अनेकान्तवाद के सिद्धान्त जो प्राचार और विचार की दृष्टि से मनुप्य मे एकता और समता पंदा करता है।
जब निद्धान्तो के मूल मे ही मानव समानता का लक्ष्य सामने रखा गया तो वह साफ था कि उसका सुप्रभाव समाज की हर दिशा मे पडता । इसलिए जनधमं ने कृत्रिम वर्ण व जाति भेद को सर्वथा तिरस्कृत किया और यह विचार फैलाया 'कि मनुष्य की समानता के प्रागे ये सब परम्पराएं प्राघातकारी और विघ्नकारी हैं । जैनधर्म जाति या वर्ण के प्रचलित प्राधारों में विश्वास नहीं करता । कोई भी व्यक्ति इसलिए वडा या छोटा नहीं है कि दह प्रमुक वर्ग या जाति मे पैदा हुमा है।
वर्णवाद को गम्भीर चुनौती देते हुए महावीर ने उद्घोष किया कि वर्ण से कोई क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य या शूद्र माना भी जाय तो उसका प्राधार उनके द्वारा किये जाने वाले कर्म ही होगे । यदि कोई वर्ग से ब्राह्मण है और कर्म गूद्र के करता है तो जैन सिद्धान्त उसे ब्राह्मण मानने को तैयार नहीं, दह शूद्र की ही श्रेणी मे गिना जायगा । मी तरह जाति या कुलो को ऊंच नीचता भी मनुष्यो फी ऊंच-नीचता नहीं हो सकती। महावीर ने सले तौर पर वर्ण, जाति और कुलो के भेद-भावो के माधार पर खडे हुए समाज को रलवारा प्रौर उसे सर्व समानता का नवीन माघार प्रदान किया।
उन्होने कहा कि पमं किसी का तिरस्कार करना नहीं सिखाता, भेद माद की सीटिया नही गहता । बालाएं नद एक है, मनुष्य एप हैं तो उनमें कर्म के प्रनाग भेदभाव कौन सा ? जाति-पाति या वि छुपान, ये मव प्रगानुपिक भेदभाव है। सभी मनु पो के एक सी इन्द्रियां हैं, विवेक और अनुभव की दृष्टि है, हो सकता है कि वातावरण के अनुसार इन गक्तियों पे दिशाम मे अन्तर हो, किन्तु उनकी मूल धिति में जब कोई भेदभाव नहीं है तो कोई कारण नहीं कि एद कल या गति में जन्म लेने मे एक मनुप्य
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जैन-सस्कृति का राजमार्ग तो पूजनीय और प्रधान का पात्र हो जायगा और दूसरा जन्म लेने मात्र से ही नीच, अधर्म और अनादर का भाजन हो जायगा।
सच पूछा जाय तो यह परम्परा बनाई धर्म के उन ठेकेदारो ने जो 'धर्म को अपनी पैतृक सम्पत्ति समझने लगे थे। ब्राह्मणो का उच्च वर्ग इसलिए माना गया कि वे साधनारत होकर ज्ञान का पठन-पाठन करते किन्तु वे तो पाचरण के धरातल को छोडकर वर्ण के प्रावार पर ही अपने-अापको बडा समझने लगे। इसी प्रकार क्षत्रियो व वैश्यो का भी समाज रक्षा व पालन का जो कर्तव्य था, वह भी कमजोर हो गया। अब इन तीनो वर्गो के दंभ का सारा बोझ गिर पडा शूद्रो पर, जिनके कर्तव्य तो तीनो वर्गों की हर प्रकार की सेवा के थे मगर अधिकार कुछ नही और पाश्चर्य तो इस बात का कि धर्म के क्षेत्र मे भी वे निरीह बना दिये गये। धर्मस्थान मे जाने का उनको अधिकार नही, धर्मप्रथ पढने के वे योग्य नहीं और धर्मगुरुप्रो का उपदेश भी वे नहीं सुन सकते । एक तरह से सामाजिक अन्याय की हद हो गई थी और यह हद इतनी नफरत-भरी थी कि चांडाल और मेहतर वगैरा को छुया नहीं जा सकता । छूने से उच्च वरणों का धर्म भ्रष्ट हो जाता। एक मनुष्य पशु को छूता था लेकिन अपने जैसे ही मनुष्य को छूना पाप था।
और आज भी वही घृणित परम्परा चल रही है, छूग्राछूत की बीमारी गांधीजी के सत्प्रयासो के वाद भी घर करे बैठी हुई है । अग्रेजी फैशन मे पडे लोग कुत्तो को गोद में लेकर वैठेगे, मगर हरिजन को नहीं छुएंगे। मनुष्यता का इससे अधिक पतन क्या हो सकता है कि मनुष्य मनुष्य का इतना वीभत्स अनादर करे ? और जब आप यह सोचेंगे कि हरिजन का ऐसा अनादर क्यो होता चला आ रहा है तो मेरा विचार है कि लज्जा से सिर झुक जायगा । इसीलिए तो उनका अनादर है कि वे आप लोगो का मैला अपने सिर पर उठाकर ले जाते हैं, जबकि सेवा का इससे बडा उदार क्या काम हो सकता है। माता होती है, बड़ी खुशी से अपने बालक की विष्टा साफ करती है, क्या आप उससे घृणा करोगे ? उसकी ममता पूजी जाती है तो फिर हरि
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न सिद्धान्तमेानाि
जन के साथ ऐसा प्रन्याय क्यो कि छुवाछूत की प्रथा चलाई जाय ? इमी छुपासून हरिजनो के सस्कारो को गिनाया है और उनके जीवन में प्राच रण की विकृतियों पैदा की है। आज जब उन्हें समाज मे समान दर्जा मिलने लगेगा तो स्वयमेव उनके जीवन मे भी विकास होने लगेगा |
तो महावीर ने इस छुप्राछून को भी बुनियाद से हिलाया था । धर्म वाणवरण जो भी करेगा, वह ऊंचा चढेगा । उसमे कोई भेदभाव नहीं कि चाहाल, श्रावक या साधु धर्म का प्राचरण न कर सके । जैन धर्म मे यो तो का हरिजन वा चाडाल हुए होने किन्तु चाडाल मुनि हरिकेशी बडे प्रतापी हुए है यद्यपि हरिकेशी प्रत्येक बुद्ध थे, वे स्वयं प्रतिबोध पाये । स्वयं ही दीक्षित हुए । श्रोर गण व गुरु किसी की भी सहायता न लेते हुए साधना क्षेत्र में धागे बढे व चरम विकास कर मोक्षगामी हुए । प्रत उनकी वह या हमारे लिए श्रादर्श उपस्थित करती है ।
जैन धर्म ने जाति, वर्ग व बुल के भेदभावो की जगह मानव समता ही नही बल्कि प्राणी मान की नमता की स्थापना की और गुण पूजा तथा ग्राचरण को महत्ता प्रदान की । इस तथ्य का परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक मनुष्य अपने ज्ञान और प्राचरण का विकान करके अपने जीवन मे प्रगति लान का प्रयास करे और जो इन प्रेणियों में ऊपर चटता जायगा वही अपने गुणो की दृष्टि से ऊंचा होता जायगा । यह धारणा है जिसमे हर प्राणी मे विकास का एक उत्साह जागता है घोर होन मान्यता पैदा नही होती । ममाज मे आध्यात्मिक व व्यवहारिक समता पैदा करने का महावीर वा यह धनुपग उपदेश पा ।
पुरषो मोर स्त्रियों की दिवास क्षमता मे भी जैन धर्म कोई भेद नहीं बन्ता वयोकि मात्म-विदास मे लैंगिक भेद को भी कोई दाघा नहीं होती । समादर की दृष्टि से भी हमारे यहां दोनो मे भेद नही होती क्योकि समादर की दुनियाद हमारे यह साधना और गो पर है । धाप पुरुष होते हुए भी साध्वियो को treat करते ही है, क्योंकि स्त्री होने हुए भी साधना मौर रणों से मे आप भाषको से ऊंची होती है । वास्तव में देखा जाय तो जैन
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जन-संस्कृति का राजमार्ग सिद्धान्त मनुष्यो के बीच किसी भी प्रकार के भेदभावो को मान्यता नही देते और यही जैन धर्म की सर्वोत्कृष्ट विशेपता है कि वह मानवता का कितना बड़ा सरक्षक व उन्नायक है ?
इस गुरणपूजा मे जैन धर्म बाह्यडम्बर को मुख्य नही मानता, मुख्य है व्यक्ति का जीवन स्तर और उसमें प्राप्त किया हुआ आत्मा का विकास महावीर के समवशरण मे मगघ के महाराजा श्रेणिक और सकड़ाल कुम्हार का स्थान समान था क्योकि वह समानता उनके वाह्याडम्बर पर आधारित नही थी। वह समानता उनके आन्तरिक विकास की स्थिति को जताती थी। धनिक व गरीव का भी कोई अन्तर नही था। आत्म-साधना आनन्द श्रावक ने भी की, जो कोटि-कोटि सम्पत्ति का स्वामी था और उसी श्रेणी की प्रात्म: साधना पूणिया श्रावक ने भी की जिसके घर मे एक समय का पूरा अन्न
भी नहीं था, किन्तु बारह उच्च श्रावको की पात मे दोनो के सम्माननीय । स्थान में कोई अन्तर नही था। । आज भी आप लोग देखते हैं कि समाज मे घनिक और गरीब की स्थिति मे बड़ी विषमता पाई जाती है । प्रतिष्ठा और सामाजिक सम्मान का प्रतीक धन अधिक बन गया है और गुणो का स्थान कम महत्त्वपूर्ण हो गया है, यह स्थिति जैन सिद्धान्तो की दृष्टि से उचित नही मानी जा सकती। इस । विषमता पर प्राघात करने के लिए ही जैन दर्शन का अपरिग्रहवाद महावीर • ने सम्मुख रखा । समाज मे यदि श्रावक धन सम्पत्ति व उपभोग-परिभोग की
समस्त सामग्रियो के उपयोग की मर्यादा बांध लें और उसमे अपने ममत्व को कम करते जावें, स्वामित्व को छोडते जावें तो ज़रूरी है कि समाज की । सम्पत्ति का अधिक-से-अधिक हाथो मे विकेन्द्रीकरण होता जायगा और । समाज मे जब दु.ख और विषमता घटेगी तो यह कल्पना प्रासानी से की • जा सकती है कि उस समय समाज मे रही हुई असमानता व अनीति भी । घटेगी। इसीलिए अपरिग्रहवाद का सामाजिक पहलू यह है कि वह परिग्रह , के दंभ को हटाकर सामाजिक समानता का मार्ग प्रशस्त करता है। ।। । इसके साथ ही धावक व साधु धर्म मे जिस प्रकार हिंसा का निषेध
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जैन सिद्धान्तो में सामाजिकता किया गया है, वह समाज मे एक तार संस्कृति का प्रसारक है व प्रतिशोध की भावनाम्रो का शमन करता है। जैन धर्म अहिंसा प्रधान है लेकिन हिंसा और प्रन्याय में टक्कर हो जाय तो अन्याय को सहन करना गलत माना गया है। श्रावक चे। महाराजा का दृष्टान्त आप जानते है कि न्याय की रक्षा के लिए उन्होने भय कर युद्ध किया किन्तु फिर भी वे अपने श्रावकत्व से स्खलित नही समझे गये । समाज मे समानता तभी फैलेगी जब न्याय बुद्धि बनी रहेगी, वन्ना अगर अन्याय करने पर ही शक्तिघारी मनुष्य तुल जायेंगे तो वे समानता की रक्षा भी कतई नहीं करेगे।
इस तरह जैन सिद्धान्तो की जो गति है वह निवृत्ति के लिए प्रवृत्ति की है, प्रवृत्ति के लिए प्रवृत्ति की नहीं। निवृत्ति का प्रसार उसी समाज मे हो सकेगा जिसमे गुणो और प्राचरण की पूजा होती होगी। किन्तु जब तक ऐसा दग्य समाज बनेगा नहीं तो यह भी सम्भव नही हो सकता कि निवृत्ति का व्यापक प्रसार हो सके । 'जे कम्मे सूरा, ते घम्मे सूरा' हमारे यहां कहा गया है कि शून्ता पहले पंदा होनी चाहिए और वह जव कर्म मे पैदा होगी तो धर्म मे भी पैदा होगी। धर्म का प्राचरण तभी शुद्ध बन सकेगा जब समाज का व्यवहार शुक्र होगा और समानता के जो स्त्रोत जैन सिद्धान्तो के धनुमार मैने ऊपर बताये है, वे ही सगवत साधन हैं जिनके प्राधार पर समाज के व्यवहार का शुद्धि करण किया सा सकता है ।
भारत देश कहने को तो पमं प्रपान है पर प्राज दिया किघर को है, यह समम ने की बड़ी आवश्यकता है। क्या कोई भी व्रत दिसी का तिरम्बार वरना सिखाता है ? इसका यही उत्तर है कि नहीं। अहिंसा व्रत वा अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट होगा कि किसी का मन, वचन या काया दिसी से भी तिरस्कार वरना हिसा है, गुण और विकास की दृष्टि को छोडकर परिणत दष्टि से पाहून के भूठे भेद तथा पन के प्रोछे भेद से ऊंच-नीच या व्यवहार करना भी हिंसा है। महिला पहनाने दाने जैन मधुनो को सोचने की जररत है कि दे दीडो और महोहो ने दिलामणा उपनाने में तो पाप समझते हैं लेकिन पवेन्द्रिय मनुष्यो नी भयर क्लिामगा उपनाने
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जन-सन्कात की राजमाग और उनका तिरस्कार करने मे क्यो कोई भी जघन्य कार्य नहीं समझते, उसगे महागप नही मानते ? किसी काल मे अहकार की भावना ने जाति, वर्ण व कुलगन भेदभावो को जन्म दिया तया अाज अर्थगत भेदभाव जटिल बनते जा रहे हैं विन्तु इन सब भेदभावो मे प्रायः सत्याश कुछ भी नहीं हैं, यह जैन सिद्धान्तो की दृढ धारणा है, क्योकि ये सव भेदभाव अहकार को पुष्ट करते हैं जो समानता का विरोधी है । "माणेण प्रहमागई"-उत्तगध्ययन सूत्र में कहा है कि मान से प्रात्मा अधम गति को पहुँचती है और जब मानव अधमाई की ओर बढता है तो वह सत्य को नहीं समझ पाता।
__ भगवान महावीर ने प्राणीमात्र की एकता, समानता और प्रात्मसम्मान और निर्वाह का आदर्श प्रस्तुत किया। उनका ढाई हजार वर्ष पहले कहा गया यह वाक्य आज भी एक नवीन प्रकाश प्रदान कर रहा है कि
"अप्पसमं मन्येच्छधिकायं ।" । छहो काया के समस्त जीवो को अपनी ही प्रात्मा के समान समझो। कितना विशाल और उदार सिद्धान्त है यह ? पर आज उन वीर प्रभु के उपासको का ही मुख किधर है ? यह सोचें कि प्रात्मवत् व्यवहार से प्रापकी कितनी दूरी है ?
आज जैनधर्म के पुनीत सिद्धान्तों की मांग है कि उन पर प्राचरण किया जाय वरना अनावरित सिद्धान्त' का कोई महत्त्व नही रह जाता और उनके आचरण का अर्थ होगा कि आप समानता के अनुभाव को हृदय मे जमा लें और समाज के विभिन्न क्षेत्रो में उसका व्यवहारिक प्रयोग करें। जब यह तैयारी पार लोगो की हो जायगी तो मानव के बीच रहे हुए अगुण कृत किसी भी प्रकार के अन्तर को श्राप सहन न कर सकेंगे चाहे वह अन्तर जाति का वर्ण के भेद पर खडा हो या कि आर्थिक विषम के कगार पर और तभी धर्म का भी स्वस्थ प्राचरण प्रारम्भ होगा। मानव के मानवोचित सम्यक् कर्तव्यो का पुज ही तो धर्म है जो समाज मे वन्धुता और समता की धारा बहाते हुए प्रात्म-विकास की दिशा मे पराकमशाली बनाता है।
जन-सिद्धान्तो की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे समाज पोर
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जंन सिद्धान्तो में सामाजिकता
११७ व्यक्ति दोनो किनारो को छूते हैं भोर समाज की स्वस्थ रीति-नीति पर व्यक्ति के विकास का एव व्यक्ति की तेजस्विता पर समाज के उत्थान का मार्ग प्रगस्त करते हैं। दोनो के अन्योन्याश्रित सम्बन्धो से दोनो का विकास साधना चाहते हैं ताकि मनुष्य का निवृत्तिवाद न सिर्फ प्रात्म-कल्याण के लिए ही मावश्यक बने बल्कि वह मनुष्य की विकसित होती हुई सामाजिकता के लिए भी मावश्यक हो । सजग सामाजिकता प्रात्म-कल्याण की ज्योति जगाए यही जन-सिद्धान्तो का सन्देश है । जन मन्दिर, शाहदरा, दिल्ली प्रथम प्राषाढ़ कृष्णा २ स. २००७
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