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जन दर्शन का तत्त्ववाद प्रकाशित होता है उसी प्रकार मात्मा स्वय प्रकाशमान होता है तथा दूसरों को भी प्रकाशित करता है । हमे अनिष्ट पदार्थ से दुख उत्पन्न होता है, इप्ट से सुब मिलता है तो यह जो अनुभव होता है कि दुख प्रिय है और सुग्व प्रिय है, वह प्रात्मा स्वय करता है और उसी अपने अनुभव को वह दूसरो पर प्रकट भी करता है तब वही अनुभव दूसरो के लिए भी ज्ञान का रूप धारण कर लेता है एव यह अनुभव और ज्ञान की सृष्टि का सवाहक तया सचालक बनता है।
। जैसे व्याख्यान मे वहिने बैठी हुई है वे जब अपने रसोईघर मे पकवान वनाती हैं तो उस समय उन्हे चख भी लेती हैं यह मालूम करने के लिए कि उनका स्वाद ठीक तो बन पड़ा है। वह स्वाद जब उन्हे सुरुचिकर लगता है तो वे यह समझ लेती हैं और सही समझ लेती है कि वही स्वाद दूसरे खाने वाले मी अनुभव करेंगे, क्योकि वे स्वयं प्रकाशित होकर दूसरो को भी प्रकाशित कर रही है । यही शक्ति चैतन्य शक्ति है । क्या यह ज्ञान और अनुभूति जड में हो सकती है ? सत् होते हुए भी चित् जड़ मे नही है ।
चेतन का तीसरा गुण प्रानन्द है। हम हैं और हम अनुभव करते हैं उसका परिणाम जो निकलता है वह प्रानन्द है। जब इन्द्रिय जन्म इष्ट विषयो का भी संयोग इन्द्रियो के साप होता है तो उससे चाहे वह क्षणिक हो किन्तु जो एक विभोरावस्था पैदा होती है वह भी जिस प्रकार मानन्द लगता है और प्रानन्द विभोर होकर नाचने-कूदने की अवस्था पैदा होती है तो जद प्रात्मा ज्ञान मे रमण करता है, अपने पराक्रम का अनुभव करता है तो उसमे जिस घलौकिकता का भाव जागता है वही चेतन का तीसरा गुण प्रानन्द है। इन्द्रिय-जन्य प्रानन्द को मानन्दामास कहा है क्योकि वह प्रानन्द क्षणिक होता है और धात्मा को प्रानन्दमय नही बनाता । उसका परिणाम कटु होता है इसलिए यात्मिक ग्रानन्द वही है जो प्रात्मिक गुणो की परिवृद्धि के फलस्वरूप उत्पन्न होता है और परिदद्ध होता रहता है।
धमे मानव घानन्द की अनुभूति तीन दगामो में ररता है-जागति, सुषप्ति एव स्वप्निल । जागते हुए इन्द्रिय-जन्य मुखो वा उपभोग किया जाता