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जन-संस्कृति का राजमार्ग
बाल्यकाल हो या कि वृद्धावस्था प्रथवा एक जीवन हो या कि दूमरा जीवन, इन सब सवस्थाघो मे जिस एक रूप चैतन्य की अनुभूति होनी रहती है, वही आत्मा का रूप है, जीव की शक्ति है । शारीरिक दशाश्रो मे श्रयवा जन्म-मरण की योनियो मे परिवर्तन होता रहता है किन्तु प्रात्मा नही पलटता है । जैसे कि गीता मे भी कहा हैवासासि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||
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देह मे रहने वाला देह का अधिष्ठाता देह के बाल, युवा, व वृद्ध रूप मे पलटने पर भी स्वय नही पलटता है । शरीर की तो व्याख्या ही यह की गई है कि जो शनैः-शनं क्षरण होता रहता है, क्षीरगत्व को प्राप्त करता रहता है लेकिन उसमे व्याप्त, उसका दृष्टा श्रात्मा सदा काल शाश्वत रहता है | अतः उसे सत् माना गया है। इसमे भा एक तर्क उत्पन्न होता है कि क्या सत् उसे माना जाय जो त्रिकाल मे स्थायी बना रहता है प्रोर वह सत् चैतन्य होता है तो सिर्फ यही व्याख्या शकास्पद हो सकती है क्योकि जड भी त्रिकाल मे बना रहता है तो क्या वह भी सत् होकर चैतन्य हो गया ।
किन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। चैतन्य का रूप जैसा कि ऊपर बतलाया गया है, सत् चित् नौर श्रानन्द तीनो गुणो मे पूर्णतया प्रकट होता है । जड़ में इस तरह सत गुरण तो हैं किन्तु अन्य गुण तो नही है इसलिए वह चेतन नही कहला सकता ।
प्रकाशित होने की शक्ति
चेतन का दूसरा गुरण है चित् श्रर्थात् जो ग्रुपने से ऊपर साधन की अपेक्षा न रखते हुए स्वयं ही प्रकाशमान होकर दूसरो को भी प्रकाशित करता है । जैसे कार मे रखे हुए घटपटादि को कोई व्यक्ति देखने लगे तो वह उन्हे देख नही सकेगा क्योकि घट-पट मे नही, उन्हे बाहर के प्रकाश की अपेक्षा रहती है । अगर वह व्यक्ति दीपक लेकर वहां जावे तो उन घटपटादि को देख सकेगा । प्रत जिस प्रकार घटपटादि को देखने के लिए दीपक की श्रावश्कयता होती है किन्तु स्वयं दीपक को देखने के लिए दूसरे दीपक की आवश्यकता नही होती क्योकि दीपक स्वयं