________________
जैन सिद्धान्तो में सामाजिकता किया गया है, वह समाज मे एक तार संस्कृति का प्रसारक है व प्रतिशोध की भावनाम्रो का शमन करता है। जैन धर्म अहिंसा प्रधान है लेकिन हिंसा और प्रन्याय में टक्कर हो जाय तो अन्याय को सहन करना गलत माना गया है। श्रावक चे। महाराजा का दृष्टान्त आप जानते है कि न्याय की रक्षा के लिए उन्होने भय कर युद्ध किया किन्तु फिर भी वे अपने श्रावकत्व से स्खलित नही समझे गये । समाज मे समानता तभी फैलेगी जब न्याय बुद्धि बनी रहेगी, वन्ना अगर अन्याय करने पर ही शक्तिघारी मनुष्य तुल जायेंगे तो वे समानता की रक्षा भी कतई नहीं करेगे।
इस तरह जैन सिद्धान्तो की जो गति है वह निवृत्ति के लिए प्रवृत्ति की है, प्रवृत्ति के लिए प्रवृत्ति की नहीं। निवृत्ति का प्रसार उसी समाज मे हो सकेगा जिसमे गुणो और प्राचरण की पूजा होती होगी। किन्तु जब तक ऐसा दग्य समाज बनेगा नहीं तो यह भी सम्भव नही हो सकता कि निवृत्ति का व्यापक प्रसार हो सके । 'जे कम्मे सूरा, ते घम्मे सूरा' हमारे यहां कहा गया है कि शून्ता पहले पंदा होनी चाहिए और वह जव कर्म मे पैदा होगी तो धर्म मे भी पैदा होगी। धर्म का प्राचरण तभी शुद्ध बन सकेगा जब समाज का व्यवहार शुक्र होगा और समानता के जो स्त्रोत जैन सिद्धान्तो के धनुमार मैने ऊपर बताये है, वे ही सगवत साधन हैं जिनके प्राधार पर समाज के व्यवहार का शुद्धि करण किया सा सकता है ।
भारत देश कहने को तो पमं प्रपान है पर प्राज दिया किघर को है, यह समम ने की बड़ी आवश्यकता है। क्या कोई भी व्रत दिसी का तिरम्बार वरना सिखाता है ? इसका यही उत्तर है कि नहीं। अहिंसा व्रत वा अध्ययन किया जाय तो स्पष्ट होगा कि किसी का मन, वचन या काया दिसी से भी तिरस्कार वरना हिसा है, गुण और विकास की दृष्टि को छोडकर परिणत दष्टि से पाहून के भूठे भेद तथा पन के प्रोछे भेद से ऊंच-नीच या व्यवहार करना भी हिंसा है। महिला पहनाने दाने जैन मधुनो को सोचने की जररत है कि दे दीडो और महोहो ने दिलामणा उपनाने में तो पाप समझते हैं लेकिन पवेन्द्रिय मनुष्यो नी भयर क्लिामगा उपनाने