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जैन-संस्कृति का राजमार्ग मानव ही नही, प्रत्येक प्राणी को समता की दृष्टि से देखता है । किन्तु इसका ही एक सम्प्रदाय ऐसा है, जो अन्य दर्शनो के समान सकुचित विचारधारा रखता है । वह है दिगम्बर सम्प्रदाय, जो शूद्र को मोक्ष का अधिकारी नही मानता और इस प्रकार शूद्र व स्त्री को मोक्ष के अधिकार से वचित कर दिया है। प्रतिगामी विचारो का ही प्रदर्शन किया है। उनका कहना है कि गुणस्थान मे अर्थात् साधुत्व मे स्त्री गौत्र का उदय नही होता और सूत्र मे नीच गोत्र का उदय है, एतदर्थ वह उक्त गुणस्थान को स्पर्श नही कर सकता और उसका स्पर्श किये बिना मोक्ष की प्राप्ति नही हो सकती। बह उपयुक्त है किन्तु 'गोत्र' शब्द से जाति का अर्थ लेना कतई ठीक नही कहा जा सकता। जाति विशेष को लक्ष्य मे रखफर गौत्र शब्द की व्याख्या इसी सम्प्रदाय ने की है। किन्तु ठाणायाग सूत्र की टीका मे 'गोत्र' शब्द की व्याख्या इस प्रकार दी गई है
__ "प्रय सत्पुरुष, अयं धर्मात्मा, अय सदाचारी, एतादृशां गा वारणी प्रायते, रक्षतेति उत्तम गौत्रः।"
अर्थात्-श्रेष्ठ कर्तव्य के द्वारा जो श्रेष्ठ वाणी की रक्षा करता है, वह उच्च गोत्र वाला है। और
"अयं शूद्र., अयं दुराचारी, अय दुष्टात्माः, एतादृशां गा वारणी त्रायते रक्षतेति नीच गौत्र.।"
अर्थात्-सपने नीच कर्म द्वारा निकृष्ट वारणी की जो रक्षा करता है, वह नीच गोत्र वाला है।
- इस प्रकार ऊंच-नीच गोम जाति विशेष से नहीं, किन्तु भावना व फर्म विशेष से है। गुणस्यान का स्पर्श भी भावना से होता है । निकृष्ट स्थान मे भी उत्पन्न व्यक्ति श्रेष्ठ भावना रखता है तो वह ऊपर के गुग्गस्थानों का स्पर्श कर सकता है । हरिकेशी मुनि का ज्वलन्त उदाहरण इसी सत्य को स्पष्ट करता है । ये मुनि हरिजन कुल मे पैदा होने पर भी अपने दिव्य गुणो के कारण, देवेन्द्र, नरेन्द्र और क्रियाकाडी, जातीयाभिमानी विप्रो कमी पूज्यनीय बने थे । अतः यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि विशिष्ट गुण