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न धर्म का ईश्वरवाद कैसा ?
१०३ अपनी शक्ति को चमका दे । संयम और साधना का 'पुरुषार्थ करते हुए ये बद्ध ईश्वर ही मुक्त ईश्वर हो जाते हैं और शरीर के अन्तिम बन्धनो को छोडकर ये ही सिद्ध ईश्वर के चरम स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। भगवान् महावीर आदि तीर्थकर भी पहिले बद्ध ईश्वर थे फिर त्याग व तपश्चर्या से अपना विकास साधते हुए मुक्त ईश्वर हुए तथा उसके बाद सिद्ध ईश्वर हो गये ज्योतिस्वरूप निर्मल ।
जैन धर्म का जो यह ईश्वरवाद है, वह बडा गूढ है और उसमे स्वय कर्तृत्व की एक उदात्त भावना छिपी हुई है । बद्ध से लेकर प्रसिद्ध स्थिति तक जो प्रात्मस्वरूप वरिणत किया है उसका स्पष्ट निष्कर्प है कि प्रारम्भ से कोई एक ही ईश्वर नहीं है जो प्रात्मा सिद्ध होकर ईश्वर हो जाता वे अपनी समस्त ज्ञानादि अनन्त शक्तियो को प्राप्त करके अपने स्वतन्त्र निज स्वरूप रमण मे तल्लीन रहती है और अन्य सिद्ध परमात्माओ की पूर्ण ज्योति के सदृश ज्योतिस्वरूप बन जाती है । तदन्तर उनका ससार से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नही रहता है फिर कर्ता और नियन्ता होने की बात तो कतई
ससार को बनाती, विगाडती या बदलती है ये वद्ध आत्माएं जो जब उत्कार्यों में प्रवृत्त होती है अधिकतया तब ससार मे जिसे सतयुग कहें या दुछ और नीति और धर्म का युग चलता है और जव इन बद्ध आत्मानो मे दिकृतियां बढती हैं तव प्रनीति और अन्याय का क्रम चलता है। इन बद्ध यात्मानो मे विकास की गति एक अोर ससार मे सामूहिक रूप से अच्छा पातावरण पैदा करती है तो दूसरी ओर इन बद्ध प्रात्मामो मे से ही जो उच्चतम विकास साध लेती है, उन्हें मुक्त प्रौर सिद्ध अवस्थानो की ओर प्रागे बढाती है।
तो ससार मे रहा हुमा हर वद्ध प्रात्मा अपने मे एक प्रेरणा का एत्साह दाल सकता है क्योकि वास्तविक रूप से वह किसी एक ईश्वर की राक्ति को पाठपुतली नहीं, स्वयं अपने विकास के कर्ता, नियन्ता और निर्माता है-पुरुषार्थ करने से अनादि से वद्ध आत्मा भी विकास करते हुए मुक्त